Friday 29 September 2017

जुड़वा 2: सिनेमा के साथ कॉमेडी; कॉमेडी के साथ ट्रेजेडी! [1/5]

डेविड धवन की 'जुड़वा 2' देखते वक़्त, दो लोगों पर बेहद तरस आता है. एक तो विवान भटेना पर, जो फिल्म में खलनायक के तौर पर सिर्फ पिटने के लिए रखे गए हैं. शरीर के बाकी हिस्सों को नज़रंदाज़ कर भी दें, तो फिल्म में विवान के सर पर ही, कभी नारियल से, तो कभी फुटबाल से इतनी बार प्रहार किया जाता है, कि उन्हें दो-दो बार अपनी याददाश्त खोनी पड़ती है. इतनी ही बुरी हालत से मैं भी खुद को गुजरता हुआ पाता हूँ, जब मनोरंजन के नाम पर डेविड धवन मुझे वापस वही 20 साल पुरानी फिल्म चिपका डालते हैं, उन्हीं पुराने 'जोक्स' के साथ और उसी सड़ी-गली वाहियात कहानी के साथ. डेविड की मानें तो 'ऐसा केस 8 मिलियन में सिर्फ एक होता है', हम 80 के दशक में पैदा हुए बदनसीबों के साथ 'जुड़वा' जैसा केस 20 साल में दो-दो बार हुआ है; मुझे नहीं पता इन दोनों फिल्मों से सही-सलामत जिंदा बच जाने का जश्न मनाऊँ या झेलने का मातम? 

बॉलीवुड का एक ख़ास हिस्सा बार-बार बड़ा होने से और समझदार होने से इनकार करता आ रहा है. डेविड धवन भी उनमें शामिल हो चले हैं. डेविड के लिए मनोरंजन के मायने और तौर-तरीके अभी भी वही हैं, जो 20-25 साल पहले थे. हंसी के लिए ऐसी फिल्में मज़ाक करने से ज्यादा, किसी का भी मज़ाक बनाने और उड़ाने में ख़ासा यकीन रखती हैं. तुतलाने वाला एक दोस्त, 'तोतला-तोतला' कहकर जिस पे कभी भी हंसा जा सके. 'पप्पू पासपोर्ट' जैसे नाम वाले किरदार जो अपने रंगभेदी, नस्लभेदी टिप्पणी को ही हंसी का हथियार बना लेते हैं. लड़कियों को जबरदस्ती चूमने, छेड़ने और इधर-उधर हाथ मारने को ही जहां नायक की खूबी समझ कर अपना लिया जाता हो, अधेड़ उम्र की महिलाओं को 'बुढ़िया' और 'खटारा गाड़ी' कह के बुलाया जाता हो. मनोरंजन का इतना बिगड़ा हुआ और भयावह चेहरा आज के दौर में भी अगर 'चलता है', तो मुझे हिंदी सिनेमा के इस हिस्से पर बेहद अफ़सोस है.

प्रेम और राजा (वरुण धवन) बचपन में बिछड़े हुए जुड़वा भाई हैं. एक मुंबई के वर्सोवा इलाके में पला-बढ़ा टपोरी, तो दूसरा लन्दन का शर्मीला, कमज़ोर पढ़ाकू टाइप. फिल्म मेडिकल साइंस के उस दुर्लभ किंवदंती पर पनपती है, जहां दोनों भाई एक-दूसरे के साथ अपने दिमाग़ी और शारीरिक प्रतिक्रियाएं आपस में बांटते हैं. एक जैसा करेगा, दूसरा भी बिलकुल वैसा ही. फिल्म अपनी सुविधा से इस फ़ॉर्मूले को बड़ी बेशर्मी से जब चाहे इस्तेमाल करती है, जब चाहे भूल जाती है. जो हाथ किसी को मारते वक़्त एक साथ उठते हैं, वही रोजमर्रा के काम करते वक़्त एक साथ क्यूँ नहीं हिलते-डुलते? पर फिर डेविड धवन की फिल्म से इस तरह के तार्किक प्रश्नों के जवाब माँगना अपने साथ बेवकूफी और उनके के साथ ज्यादती ही होगी. जिन फिल्मों में टाइम-बम अपने आखिरी 10 सेकंड में फटने वाला हो, और हीरो लाल तार (क्यूंकि लाल रंग गणपति बप्पा का रंग है) काट के अपने लोगों को बचा ले; ऐसी फिल्मों को पूरी तरह 'बाय-बाय' करने का सुख आखिर हमें कब मिलेगा?

थोड़ा सोच कर देखें, तो 'जुड़वा 2' भद्दे हंसी-मज़ाक के लिए हमारे पुराने, दकियानूसी स्वभाव को ही परदे पर दुबारा जिंदा करती है. रंग, बोली, लिंग और शारीरिक बनावट के इर्द-गिर्द सीमित हास्य की परिभाषा को हमने ही अपनी निज़ी जिंदगी में बढ़ावा दिया है और देते आये हैं, फिर डेविड या उन जैसों की फिल्में ही क्यूँ कटघरे में खड़ी हों? नायक अगर नायिका की माँ से फ़्लर्ट करे, उनको गलती से किस कर ले और नायिका की माँ अगर उस पल को मजे से याद करके इठलाये, तो इसे डेविड का उपकार मानिए और एक प्रयोग की तरह देखिये. अगर आपको इस इकलौते दृश्य पर ठहाके के साथ हंसी आ जाये, तो समझिये कुछ बहुत गलत चल रहा है आपके भीतर, वरना आप अभी भी स्वस्थ हैं, सुरक्षित हैं. 

अभिनय में वरुण बेहद उत्साहित दिखते हैं. 'जुड़वा' के सलमान खान की झलक उनमें साफ़ नज़र आती है. उनमें एक ख़ास तरह का करिश्मा, एक ख़ास तरह की जिंदादिली है, जो बुरे से बुरे दृश्य में भी आपको उनसे कभी उबने नहीं देती, पर इस तरह की खराब फिल्म में सिर्फ इतने से ही बचा नहीं जा सकता. तापसी पन्नू और जैकलीन फ़र्नान्डीस अदाकारी में महज़ दिखावे के लिए हैं, वरना तो उनकी अदाकारी उनके 'फिगर' जितनी ही है, 'जीरो'. यूँ तो हंसी के लिए राजपाल यादव, अली असगर, उपासना सिंह, अनुपम खेर जैसे आधे दर्जन नाम फिल्म में मौजूद रहते हैं, पर उन पर भी कुढ़ने और चिढ़ने से ज्यादा फुर्सत नहीं मिलती. 'सुनो गणपति बप्पा मोरया' गाने के 'सिग्नेचर स्टेप' में वरुण के ठीक बायीं ओर डांस करने वाली 'एक्स्ट्रा' कलाकार अपने हाव-भाव से, आपके चेहरे पे मुस्कान लाने में कहीं ज्यादा कामयाब होती है, बजाय इस बेमतलब उछलने-कूदने वाले 'ब्रिगेड' के.     

कुल मिला कर, 'जुड़वा 2' को मनोरंजन के साथ किसी भी तरह से जोड़ कर देखना सिनेमा के लिए बड़ा शर्मनाक होगा. कुछ मजेदार 'जोक्स' को परदे पर एक के बाद एक चला देना, अपने आप में कॉमेडी के लिए ही एक ट्रेजेडी है. आने वाले दिनों में बॉक्सऑफिस कलेक्शन के भारी-भरकम आंकड़ों से आपको भरमाने की कोशिश होगी, मनोरंजन की गारंटी का वादा किया जाएगा; आपको बहकना चाहते हैं तो बेशक बहकिये, पर कम से कम बच्चों को तो दूर ही रखियेगा. एक 'जुड़वा' से हमें उबरने में सालों-साल लग गए, इस 'जुड़वा 2' का न जाने क्या असर होगा नयी पीढ़ी पर? [1/5]                 

Friday 22 September 2017

न्यूटन: लोकतंत्र का तमाशा! सिनेमा का जश्न! [4.5/5]

चुनावों के वक़्त टीवी चैनलों और अखबारों में, नाखूनों पे लगी स्याही दिखाते जोशीले चेहरों की तस्वीरें कितने फ़क्र से भारत में लोकतंत्र की बहाली, चुनावों की कामयाबी और जनता के प्रतिनिधित्व का सामूहिक जश्न बयाँ करतीं हैं. ऐसा ही एक दृश्य अमित मासुरकर की 'न्यूटन' में भी है, मगर जब तक फिल्म में ये दृश्य आता है, आँखों के आगे से सारे परदे गिर चुके होते हैं, आसमान से झूठ के बादल छंट चुके होते हैं और अब उन्हीं चेहरों से भारत में लोकतंत्र की खोखली इमारत का सच टुकुर-टुकुर झाँक रहा होता है. ठीक वैसे ही, जैसे किसी बच्चे को खिलौना दिखाकर उसके हाथ में सिर्फ खाली पैकेट थमा दिया गया हो. 'न्यूटन' बिना शक आज के राजनीतिक माहौल और सरकारी तंत्र की खामियों पर एक सही, सीधी और सटीक टिप्पणी है.  

सोते हुओं को जगाने के लिए, 'न्यूटन' छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र दंडकारण्य को अपनी प्रयोगशाला बनाती है. स्थानीय प्रत्याशी की हत्या के बाद क्षेत्र में दुबारा चुनाव कराये जा रहे हैं, सेना की देखरेख में. नौजवान चुनाव अधिकारी (राजकुमार राव) अपने नाम की तरह ही अजीब है, अजब है, अकडू है. अपना नाम न्यूटन उसने खुद ही रखा था, नूतन कुमार से बदल कर. 'आई वांट टू मेक अ डिफरेंस' वाली फैक्ट्री से निकला है, घोर ईमानदारी का पुतला है. सिर्फ 76 मतदाताओं वाले पोलिंग बूथ पे चुनाव कराना कौन सी बड़ी बात है, मगर आर्मी अफसर आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) का डरना-डराना भी जायज़ है. ये वो इलाका है, जहां के बारे में टीवी स्टूडियोज में बैठे सूट-बूट वाले न्यूज़ एंकर्स को ज्यादा पता है, और उनकी चीख-चिल्लाहट में हमने भी काफी कुछ सुन (ही) रखा है. "अपने ही लोग हैं, अपने ही लोगों के खिलाफ हैं", "देशद्रोही हैं स्साले, देश बांटने की मांग करते हैं", "चींटी की चटनी खाते हैं, बताओ!", वगैरह, वगैरह. 

खैर, 'न्यूटन' किसी भी तरह और तरीके से नक्सल की समस्या पर पक्ष-विपक्ष का पाला चुनकर बैठ जाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि फिल्म के समझदार और ईमानदार नजरिये की वजह से आप जरूर अपने आप को इस दुविधा में अक्सर लड़खड़ाते हुए पाते हैं. लोकल बूथ लेवल ऑफिसर मलको (अंजलि पाटिल) जब भी बातों-बातों में वहाँ के लोगों की बात सामने रखती है, आपके नजरिये को एक ठेस, एक धक्का जरूर लगता है. आत्मा सिंह जब बन्दूक न्यूटन के हाथ में थमा कर कहता है, 'ये देश का भार है, और हमारे कंधे पर है'; या फिर जब विदेशी रिपोर्टर पूछती है, 'चुनाव सुचारू रूप से चलाने के लिए आपको क्या चाहिए?" और उसका जवाब होता है, "मोर वेपन (और हथियार)!"; वो आपको खलनायक नहीं लगता, बल्कि आपको उसकी हालत और उसके हालात पर दया ज्यादा आती है. वो भी उसी सिस्टम का मारा है, और महंगा जैतून का तेल खरीदते वक़्त उसके माथे पर भी शिकन आती है.  

फिल्म के एक दृश्य में गाँवों से लोग मतदान के लिए जुटाए जा रहे हैं, और बराबर के दृश्य में एक महिला काटने-पकाने के लिए मुर्गियां पकड़ रही है. 'न्यूटन' इस तरह के संकेतों और ब्लैक ह्यूमर की दूसरी ढेर सारी मिसालों के जरिये आपका मनोरंजन भी खूब करती है, और आपको सोचने पे मजबूर भी. आत्मा सिंह नाश्ता करते हुए कहता है, "बड़ी इंटेंरोगेशन के बाद मुर्गियों ने अंडे दिये हैं". न्यूटन के पूछने पर कि क्या वो भी निराशावादी है?, मलको टन्न से बोल पड़ती है, "मैं आदिवासी हूँ'. खंडहर पड़े प्राइमरी स्कूल में बने बूथ में सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे लोगों के आने का इंतज़ार कर रहे हैं, माहौल शांत है, पर धीरे-धीरे आपको सरकारी तंत्र और खोखले दावों की चरमराहट सुनाई देनी शुरू हो जाती है.

इतने सब उथल-पुथल और खामियों के बावज़ूद, 'न्यूटन' एक आशावादी फिल्म बने रहने का दम-ख़म दिखाने में सफल रहती है. न्यूटन की ईमानदारी, उसकी साफगोई, बदलाव के लिए उसकी ललक कहीं न कहीं आपको उसकी तरफ खींच कर ले जाती है. ऐसे न्यूटन अक्सर सरकारी दफ्तरों में किसी अनजाने टेबल के पीछे दफ़न भले ही हो जाते हों, उनकी कोशिशों का दायरा भले ही बहुत छोटा रह जाता है, पर समाज में बदलाव की जो थोड़ी बहुत रौशनी बाकी है, उन्हीं से है. ठीक 9 बजे ऑफिस आ जाने वालों पर हँसते तो हम सभी हैं, पर शायद ऐसे न्यूटन भी उन्हीं में से एक होते हैं. फिल्म में ट्रेनर की भूमिका में संजय मिश्रा फरमाते हैं, "ईमानदार होके आप कोई एहसान नहीं कर रहे, ऐसा आपसे एक्सपेक्टेड है'. कम से कम फिल्म इस कसौटी पर सौ फीसदी सही साबित होती है.

राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी की बेहतरीन अदाकारी, रघुवीर यादव, अंजलि पाटिल और संजय मिश्रा के सटीक अभिनय और मयंक तिवारी के मजेदार संवादों से लबालब भरी 'न्यूटन' साल की सबसे अच्छी फिल्म तो है ही, अपने विषय-वस्तु की वजह से बेहद जरूरी भी, और 'उड़ान', 'आँखों-देखी', 'मसान' जैसी नए भारत के नए सिनेमा की श्रेणी और शैली की मेरी पसंदीदा, चुनिन्दा फिल्मों में से एक. [4.5/5]       

Friday 15 September 2017

लखनऊ सेन्ट्रल: फर्ज़ी जेल, फ़िल्मी बैंड! [2/5]

फ़रहान अख्तर फिल्म में हों, और आपको मज़ा दो-चार दृश्यों में ही दिखने वाले रवि किशन से मिलता हो, तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि रंजीत तिवारी की 'लखनऊ सेंट्रल' कितनी अच्छी या बुरी हो सकती है? यशराज फ़िल्म्स की हालिया रिलीज़ हुई फिल्म 'कैदी बैंड' से हद मिलती-जुलती कहानी पर बनी 'लखनऊ सेंट्रल' अपने मुख्य कलाकार की कमज़ोर अदाकारी और परदे पर नाकामयाब किरदार को कुछ काबिल सह-कलाकारों के बेहतरीन अभिनय से ढकने, छुपाने की कोशिश तो भरपूर करती है, पर कितनी देर? 

उत्तर प्रदेश के गंवई गायक किशन गिरहोत्रा की भूमिका में फ़रहान की स्टाइलिंग इतनी बनावटी और चिकनी-चुपड़ी है, जैसे तेल में चुपड़े उनके बाल, जैसे उनके गले में पूरे तमीज से तह किया हुआ मफलर. निश्चित तौर पर उनकी कास्टिंग फिल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष है, हालाँकि फर्जीवाड़ा यहीं तक नहीं रुका है. मुंबई फिल्मसिटी में बने लखनऊ के सेंट्रल जेल का सेट पहाड़ों से घिरा है, और न तो कैमरा इसे परदे पर दिखाने से कोई परहेज़ करता है, न ही निर्देशक रंजीत तिवारी को इस मामूली सी गलती से फिल्म की साख पर लगने वाली बड़ी चोट का अंदाज़ा होता है. गनीमत है, फिल्म में राजेश शर्मा, इनामुलहक, मानव विज और दीपक डोबरियाल जैसे कुछ छोटे ही सही, पर मज़बूत कंधे तो हैं.

किशन (फ़रहान अख्तर) का सपना है मशहूर गायक बनने का, पर एक दिन एक झड़प के बाद उसे आईएएस अफसर की हत्या के झूठे इलज़ाम में उम्रकैद सुना दी जाती है. उसके मुरझाते सपने को थोड़ी हवा तब लगती है, जब युवा मुख्यमंत्री (रवि किशन) के आदेश पर जेल में 15 अगस्त जलसे के लिए कैदियों का बैंड बनाने की मुहिम शुरू होती है. खुद का बैंड जहां एक तरफ उसके सपनों को उड़ान दे सकता है, उसे नाम, मुकाम और पहचान दे सकता है, दूसरी तरफ बैंड की आड़ में जेल से भाग कर आज़ादी का स्वाद चखने का मौका भरपूर है. हालाँकि जेलर (रोनित रॉय) के रहते ऐसा सोचना भी खतरे की घंटी है. 

'कैदी बैंड' जहां इसी कहानी को बेहतर, पर चमकदार प्रोडक्शन डिज़ाईन के जरिये परदे पर बयाँ करती है, 'लखनऊ सेंट्रल' अपने लुक में थोड़ा तो खुरदुरापन, कालिख़ और मटमैलापन लाकर विश्वसनीयता के पैमाने पर ज्यादा अंक बटोर जाती है. हालाँकि रंजीत तिवारी की इस तरह की हॉलीवुड फिल्मों में दिलचस्पी साफ़ दिख जाती है, जब भी वो जेल में इस्तेमाल होने वाले तरीकों, चालाकियों और रणनीति की बात करते हैं. जहां फ़रहान और डायना पेंटी अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद अभिनय के सुर लगाने में कमज़ोर दिखते हैं, वहीँ उनके साथी कलाकारों की भूमिकाओं में राजेश शर्मा, इनामुलहक, मानव विज और दीपक डोबरियाल बेहतरीन हैं. रवि किशन बेहद सटीक हैं. इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस और ट्रैफिक पुलिस की वर्दी का रंग एक होने पर उनका कटाक्ष फिल्म में कई बार दोहराया जाता है, पर हर बार उतना ही मजेदार लगता है. 

आखिर में, 'लखनऊ सेंट्रल' अपने कुछ गिनती के हिस्सों के रोमांच और कुछ सह-कलाकारों के अभिनय के आगे या पीछे और कुछ नहीं है. बचकानी 'कैदी बैंड' से हाथ लगी निराशा ने इस फिल्म से उम्मीदें काफी बढ़ा दी थीं, पर अफ़सोस! फिल्म के खाते में 'उतनी भी बुरी नहीं है' से ज्यादा तारीफ़ नसीब नहीं होती. असली जेलों के असली बैंडों की तुलना में ये फ़िल्मी बैंड 'बैन'ड' कर दिये जाएँ तो ही अच्छा!! [2/5] 

सिमरन: ए-ग्रेड कंगना, बी-ग्रेड क्राइम-कॉमेडी! [2/5]

आज़ाद ख़याल लड़कियां, जिन्हें अपनी ख़ामियों पर मातम मनाना तनिक रास नहीं आता, बल्कि उन्हीं कमजोरियों, उन्हीं गलतियों को बड़े ताव से लाल गाढ़े रंग की लिपस्टिक के साथ चेहरे पर तमगों की तरह जड़ लेती हैं; बॉलीवुड में कम ही पायी जाती हैं. कंगना फिल्म-दर-फिल्म परदे पर ऐसे कुछ बेहद ख़ास बेबाक और तेज़-तर्रार किरदारों को जिंदा करती आई हैं. 'क्वीन' की रानी जहां एक पल अपने बॉयफ्रेंड से शादी न तोड़ने के लिये मिन्नतें करती नज़र आती है, अगले ही पल अकेले हनीमून पर जाने का माद्दा भी खूब दिखाती है. तनु अपने पति से पीछा छुड़ाने के लिए उसे पागलखाने तक छोड़ आती है, और फिर वो उसकी कभी ख़त्म न होने वाली उलझन जो बार-बार उसे और दर्शकों को शादी के मंडप पहुँचने तक उलझाए रखती है. 'सिमरन' में भी कंगना का किरदार इतना ही ख़ामियों से भरा हुआ, उलझा और ढीठ है, पर अफ़सोस फिल्म का बेढंगापन, इस किरदार और इस किरदार के तौर पर कंगना के अभिनय को पूरी तरह सही साबित नहीं कर पाता. 'सिमरन' आपका मनोरंजन किसी बी-ग्रेड क्राइम-कॉमेडी से ज्यादा नहीं कर पाती, अगर कंगना फिल्म में नहीं होती.

तलाक़शुदा प्रफुल्ल पटेल (कंगना रनौत) अटलांटा, अमेरिका के एक होटल में 'हाउसकीपिंग' का काम करती है. पैसे जोड़ रही है ताकि अपना खुद का घर खरीद सके. बाप घर पर बिजली का बिल लेकर इंतज़ार कर रहा है, कि बेटी आये तो बिल भरे. प्रफुल्ल भी जहां एक तरफ एक-एक डॉलर खर्च करने में मरी जाती है, अचानक एक घटनाक्रम में, जुए में पहले-पहल दो हज़ार डॉलर जीतने और फिर एक ही झटके में अपनी सारी बचत गंवाने के बाद, अब 50 हज़ार डॉलर का क़र्ज़ लेकर घूम रही है. बुरे लोग उसके पीछे हैं, और क़र्ज़ उतारने के लिए प्रफुल्ल अब अमेरिका के छोटे-छोटे बैंक लूट रही है. 

'सिमरन' भारतीय मूल की एक लड़की संदीप कौर की असली कहानी पर आधारित है, जो अमेरिका में 'बॉम्बशेल बैंडिट' के नाम से कुख्यात थी, और अब भी जेल में सज़ा काट रही है. परदे पर ये पूरी कहानी दर्शकों के मज़े के लिए कॉमेडी के तौर पर पेश की जाती है. हालाँकि प्रफुल्ल का किरदार वक़्त-बेवक्त आपके साथ भावनात्मक लगाव पैदा करने की बेहद कोशिश करता है, पर फिल्म की सीधी-सपाट कहानी और खराब स्क्रीनप्ले ऐसा कम ही होने दे पाता है. प्रफुल्ल नहीं चाहती कि उसकी जिंदगी में किसी का भी दखल हो, उसके माँ-बाप का भी नहीं, पर वो बार-बार अपने इर्द-गिर्द दूसरों के बारे में राय बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ती. मुसीबतें उसके सर महज़ किसी हादसे की तरह नहीं पड़तीं, बल्कि साफ़-साफ़ उसकी अपनी बेवकूफ़ियों और गलतियों का नतीजा लगती हैं. जुए में हारने के बाद 'तुम सब स्साले चोर हो' की दहाड़े सुनकर आपको 'क्वीन' की 'मेरा तो इतना लाइफ खराब हो गया' भले याद आ जाता हो, पर आपका दिल प्रफुल्ल के लिए तनिक भी पसीजता नहीं. 

फिल्म जिन हिस्सों में प्रफुल्ल के अपने पिता के साथ संबंधों पर रौशनी डालती है, देखने लायक हैं. पैसे की जरूरत है तो पिता पर लाड बरसा रही है, वरना दोनों एक-दूसरे को जम के कोसते रहते हैं. समीर (सोहम शाह) का सुलझा, समझदार और संजीदा किरदार फिल्म को जैसे हर बार एक संतुलन देकर जाता है, वरना तो प्रफुल्ल की 'आजादियों' का तमाशा देखते-देखते आप जल्द ही ऊब जाते. अच्छे संवादों की कमी नहीं है फिल्म में, फिर भी हंसाने की कोशिश में फिल्म हर बार नाकाम साबित होती है. प्रफुल्ल का बैंक लूटने और लुटते वक़्त लोगों की प्रतिक्रिया हर बार एक सी ही होती है. इतनी वाहियात बैंक-डकैती हिंदी फिल्म में भी बहुत कम देखने को मिलती है. अंत तक आते-आते फिल्म किरदार से भटककर फ़िल्मी होने के सारे धर्म एक साथ निभा जाती है. 

आखिर में, हंसल मेहता की 'सिमरन' एक अच्छी फिल्म हो सकती थी, अगर संदीप कौर की बायोपिक के तौर पर, 'अलीगढ़' की तरह समझदारी और ईमानदारी से बनाई गयी होती; न कि महज़ मनोरंजन और बॉक्स-ऑफिस हिट की फ़िराक में कंगना रनौत के अभिनय को सजाने-संवारने और भरपूर इस्तेमाल करने की चालाकी से. फिल्म अपने एक अलग रास्ते पर लुढ़कती रहती है, और कंगना का अभिनय कहानी, किरदार और घटनाओं से अलग अपने एक अलग रास्ते पर. काश आप इनमें से किसी एक रास्ते पर चलना ही मंजूर कर पाते, मगर ये सुविधा आपको उपलब्ध नहीं है, तो झटके खाते रहिये! [2/5]

Friday 8 September 2017

समीर: उम्मीदों से खेलती एक नासमझ फिल्म! [2/5]

'कर्मा इज़ अ बिच'. याद है, मोहम्मद जीशान अय्यूब जाने कितनी बड़ी-बड़ी फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार निभाने के बावजूद कैसे तारीफों का सारा टोकरा खुद भर ले जाते रहे हैं? उन्हें बड़े स्टार्स की हाय आखिर लग ही गयी. दक्षिण छारा की 'समीर' में मुख्य भूमिका निभाते हुए भी जीशान फिल्म में बहुत असहज और असहाय नज़र आते हैं, और ठीक उनकी पिछली फिल्मों की तरह ही, दर्शकों को इस फिल्म में भी सहायक और छोटे (इस मामले में उम्र में भी) कलाकार ही ज्यादा धीर-गंभीर और ईमानदार लगते हैं. हालाँकि यह 'कर्मा इज़ अ बिच' वाला बचकाना नजरिया मैंने सिर्फ मज़े और मज़ाक के लिए यहाँ इस्तेमाल किया है, पर यकीन जानिये फिल्म भी एक मंझे हुए कलाकार के तौर पर जीशान की ज़हानत और मेहनत का ऐसा ही मज़ाक बनाती है. एक ऐसी ज़रूरी फिल्म, जो मुद्दों पर बात करने की हिम्मत तो रखती है, जो सोते हुओं को जगाने और चौंकाने का दम भी दिखाती है, पर अक्सर किरदारों और कहानी की ईमानदारी के साथ खिलवाड़ कर बैठती है. 

एटीएस के हाथों एक बेगुनाह लगा है, उसी को मोहरा बनाकर एटीएस के लोग एक खतरनाक आतंकवादी तक पहुंचना चाहते हैं. चीफ बेगुनाह को धमका रहा है, 'मिशन पूरा करने में हम साम, दाम, दंड सब इस्तेमाल करेंगे', पिटता हुआ बेगुनाह जैसे भाषा-विज्ञान में पीएचडी करके लौटा हो, छिटक पड़ता है, "...और भेद?". स्क्रिप्ट में ऐसे सस्ते मज़ाकिया पंच ख़ास मौकों पर ही प्रयोग में लाये जाते हैं. एक तो जब पूरी की पूरी फिल्म या किरदार भी इतना ही ठेठ हो, या फिर जब फिल्म रोमांच और रहस्यों में उलझी-उलझी हो, और आप इन मज़ाकिया संवादों के सहारे दर्शकों को आगे आने वाले झटकों से पूरी तरह हैरान-परेशान होते देखना चाहते हों. फिल्म बेशक दूसरे तरीके के मनोरंजन की खोज में है. 

बंगलौर और हैदराबाद में बम धमाकों के बाद, यासीन अब अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट करने वाला है. एटीएस चीफ देसाई (सुब्रत दत्ता) यासीन के साथ पढ़ने वाले स्टूडेंट समीर (जीशान) का इस्तेमाल कर, उसके ज़रिये यासीन तक पहुँचने की पूरी कोशिश में है. इस काम में रिपोर्टर आलिया (अंजलि पाटिल) भी देसाई के साथ है. अब भोले-भाले समीर को देसाई के हाथों की कठपुतली बना कर उस जंगल में छोड़ दिया गया है, जहां उसके सर पर तलवार चौबीसों घंटे लटकी है और कुछ भी एकदम से निश्चित नहीं है. झूठ का पहाड़ बढ़ता जा रहा है, और लोगों की जान का ख़तरा भी.

दक्षिण छारा अपनी फिल्म 'समीर' के जरिये दर्शकों को आतंकवाद के उस चेहरे से रूबरू कराने की कोशिश करते हैं, जो सिस्टम और राजनीति का घोर प्रपंच है, कुछ और नहीं. आम मासूम लोग बार-बार उन्हीं प्रपंचों का शिकार बनते रहते हैं और उन्हें इसका कोई अंदाजा भी नहीं होता. जहां तक फिल्म के कथानक और उसके ट्रीटमेंट की बात है, बनावट में 'समीर' काफी हद तक राजकुमार गुप्ता की बेहतरीन फिल्म 'आमिर' जैसी लगती है. दोनों में ही थ्रिलर का पुट बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया गया है, मगर 'आमिर' में जहां आप मुख्य किरदार के लिए अपने माथे पर शिकन और पसीने की बूँदें महसूस करते हैं, 'समीर' यह अनुभव देने में नाकाम रहती है. जीशान का किरदार मनोरंजक ज्यादा लगता है, हालातों का शिकार कम. 

फिल्म के सबसे मज़बूत पक्ष में उभर कर आते हैं कुछ छोटे किरदार, जैसे एक तुतलाता-हकलाता बच्चा राकेट (मास्टर शुभम बजरंगी) जो गांधीजी को 'दादाजी' कह कर बुलाता है और मोहल्ले में नुक्कड़ नाटक चलाने वाले मंटो (आलोक गागडेकर) के साथ मिलकर बड़ी-बड़ी बातें बेहद मासूमियत से बयाँ कर गुजरता है. देसाई के किरदार में सुब्रत दत्ता अच्छे लगते हैं, पर उनकी अदाकारी में एकरसता भी बड़ी जल्दी आ जाती है. बोल-चाल में उनका बंगाली लहजा भी कई मौकों पर परेशान करता है. अंजली पाटिल को हम बेहतर भूमिकाओं में देख चुके हैं, इस किरदार के साथ उनकी अदाकारी में किसी तरह का कोई इजाफा नज़र नहीं आता. 

आखिर में; 'समीर' एक अलग, रोचक और रोमांचक फिल्म होने की उम्मीदें तो बहुत जगाती है, पर अपने बचकाने रवैये से उन्हें बहुत जल्द नाउम्मीदी में बदल कर रख देती है. काश, थोड़ी सी संजीदगी और समझदारी 'शाहिद' और 'आमिर' से उधार में ही सही नसीब हो गयी होती!! [2/5]                               

डैडी: कहानी औसत, ट्रीटमेंट उम्दा! [3.5/5]

असीम अहलूवालिया की सिनेमाई दुनिया मुख्यधारा में रहते हुए भी बहाव से अलग, उलटी तरफ बहने का जोखिम पहले भी 'मिस लवली' जैसी फिल्म में उठा चुकी है. कहानी जहां हाशिये पर धकेल दिये गए सामाजिक वर्गों की हो, चेहरे जहां खुरदुरे हों, चेचक के निशान और खड्डों भरे या फिर गहरे लाल रंग की लिपस्टिक में बेतरतीब, बेजा पुते-पुताये, और कमरे इतने घुटन भरे कि सीलन की बास भी नाक से उतर कर अन्दर गले तक आ जाये. असीम इस कम-रौशन, सलीके से बिखरी-बिखराई दुनिया की, तसल्ली-पसंद तरीके से कही जाने वाली कहानी में जिस बारीकी से परदे के आगे बैठे दर्शक के लिए 'माहौल' बनाते हैं, उन्हें बॉलीवुड में ज़ुर्म की दुनिया पर बनने वाली फिल्मों का 'संजय लीला भंसाली' घोषित कर देना चाहिए. कुख्यात अपराधी अरुण गवली की जिंदगी पर आधारित, असीम की 'डैडी' हालाँकि एक ठोस कहानी के तौर पर सामान्य से आगे बढ़ने का हौसला नहीं जुटा पाती, पर फिल्म-मेकिंग के दूसरे जरूरी पहलुओं पर अपनी छाप छोड़ने में कतई निराश नहीं करती.

मुंबई के दगड़ी चॉल में रहने वाले तीन लफंगों की अपनी एक गैंग है. BRA गैंग, B से बाबू (आनंद इंगले), R से रामा (राजेश श्रृंगारपुरे) और A से अरुण गवली (अर्जुन रामपाल). बड़ा हाथ मारने और भाई (फ़रहान अख्तर) के टक्कर का बनने के लिए जो तेवर और ताव चाहिए, अरुण में ही सबसे कम दिखता है. फट्टू भी वही सबसे ज्यादा है, फिर भी हालात उसे भाई के ठीक सामने ला खड़ा करते हैं. सिस्टम की मार से अपराधी बनने की दुहाई देने वाला गवली धीरे-धीरे खुद ही एक पैरलल सिस्टम की तरह काम करने लगता है. जेल में काफी उम्र काट ली है, अब सफ़ेद टोपी पहन के 'गांधी' बनने चला है. शान से कहता है कि वो भाई की तरह 'भगोड़ा' नहीं है. लोग कहने लगे हैं, पर 'रॉबिनहुड' का मतलब भी उसे उसकी बेटी से पता चलता है.

अरुण गुलाब गवली की कहानी या यूँ कहें तो उसकी जिंदगी से काट-छांट कर फिल्म के लिए बुनी गयी कहानी में कुछ भी ऐसा अलग या नया नहीं है, जो इस तरह के तमाम गैंगस्टर-ड्रामा में आपने पहले देखा-सुना न हो. हाँ, घटनाओं को पिरोने और उन्हें एक-एक कर के बड़े तह और तमीज से आपके सामने रखने का असीम का अपना एक ख़ास स्टाइल है, वो इस तरह की फिल्मों के लिए नया और बेहतर जरूर है. असीम अलग-अलग किरदारों के जरिये गवली की कहानी को परदे पर सिलसिलेवार पेश करते हैं, और काफी हद तक कामयाब कोशिश करते हैं कि गवली का किरदार इंसानी लगे और सिनेमाई परदे को फाड़ कर बाहर आने की जुगत से बचता रहे. यही वजह है कि गवली का किरदार जेल में अपनी मौत की आहट भर से ही पसीने-पसीने हो उठता है; उसका एक गुर्गा उसे नयी टेक्नोलॉजी वाली पिस्तौल दिखा रहा है, पर गवली रोती हुई बेटी को झुनझुना बजा कर चुप कराने में ज्यादा मशगूल दिखता है. 

फिल्म में कैमरा अपने लिए आरामदायक जगह नहीं ढूंढता, अक्सर खिड़कियों और दरवाजों के धूल लगे शीशों से लगकर अन्दर झांकना मंजूर करता है. रौशनी बेख़ौफ़ धूप में छन कर नहीं आती, रंगीन लाल-नीले बल्बों में नहा कर चेहरों, पर्दों, और बिस्तरों पर उतनी ही पड़ती है, जितने से उसके होने का वहम बना रहे. किरदारों की स्टाइलिंग से लेकर प्रॉडक्शन-डिजाईन के छोटे से छोटे हिस्सों तक में असीम की पैनी नज़र और पूरी-पूरी दिलचस्पी साफ़ देखने को मिलती है. डिस्को-बार में 'जिंदगी मेरी डांस-डांस' गाने पर थिरकते कलाकारों के साथ, आपको '80 के दशक का बॉलीवुड जीने से एक पल को परहेज़ नहीं होता. जेल में नया कैदी आया है, खूंखार है, खतरनाक है, और मुंह से 'खलनायक' की धुन निकालता रहता है. ज़ाहिर है, 90 का दशक आ गया है. अब सैलून में संजय दत्त और जैकी श्रॉफ के पोस्टर चस्पा हैं. 

असीम अहलूवालिया का सिनेमा अगर 'डैडी' का शरीर है, तो गवली के किरदार में अर्जुन रामपाल का अभिनय साँसे फूंकने जितना ही जरूरी. प्रोस्थेटिक तकनीक से चेहरे की बनावट में ख़ास बदलाव करने तक ही नहीं, अर्जुन एक अदाकार के तौर पर भी पूरी फिल्म में अपनी ईमानदारी से तनिक पीछे नहीं हटते. उनकी खुरदुरी आवाज़, उनकी चाल-ढाल, उनका डील-डौल बड़ी सहजता से उन्हें हर वक़्त उनके किरदार के आस-पास ही रखता है. निश्चित तौर पर यह उनके अभिनय-कैरियर की चुनिन्दा देखने लायक परफॉरमेंसेस में से एक है. कास्टिंग के नजरिये से फ़रहान अख्तर को भाई (दाऊद इब्राहिम के किरदार से प्रेरित) के तौर पर पेश करना सबसे निराश करने वाला प्रयोग रहा. पुलिस इंस्पेक्टर विजयकर की भूमिका में निशिकांत कामत खूब जंचते हैं. अन्य किरदारों में ऐश्वर्या राजेश, श्रुति बापना और राजेश श्रृंगारपुरे बेहतरीन हैं. 

आखिर में; बॉलीवुड क्राइम फिल्मों का जमीनी जुड़ाव एक अरसे से लापता सा था. गैंगस्टर काफी वक़्त से दुबई में कहीं पूल-साइड पर लेट कर बिकनी में लड़कियों को देखते हुए जुर्म के फरमान सुनाने में अपनी शान समझने लगे थे. फिल्मों ने उनमें अपने स्टाइल-आइकॉन तलाशने शुरू कर दिये थे. पक्या, गोट्या, रग्घू और मुन्ना की टेढ़ी-मेढ़ी शक्लों की जगह गोरे-चिट्टे-चिकने चेहरों ने ले ली थी. असीम अहलूवालिया की 'डैडी' उस खाली जगह में बड़ी आसानी और ईमानदारी से फिट बैठ जाती है. [3.5/5]  

Friday 1 September 2017

बादशाहो: 'डिसअपॉइंटमेंट, डिसअपॉइंटमेंट, डिसअपॉइंटमेंट'! [1.5/5]

महीने भर के अंतर पर ही, 'बादशाहो' दूसरी ऐसी फिल्म है जो सन् 1975 में इंदिरा गांधी सरकार के आपातकाल को अपनी कहानी का आधार बनाती है. मधुर भंडारकर की 'इंदू सरकार' ने परदे पर जहां सिनेमा के शऊर, सिनेमा की तमीज को कठघरे में ला खड़ा कर दिया था; मिलन लूथरिया ने 'बादशाहो' के साथ तो जैसे मनोरंजन पर ही इमरजेंसी लागू कर दी. 'द डर्टी पिक्चर' से 'एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, और एंटरटेनमेंट' का जाप करने वाले मिलन अपने फिल्म-राइटर रजत अरोरा के साथ मिलकर मसालेदार मनोरंजन के नाम पर इस बार जो कुछ भी बासी, पुराना और सड़ा हुआ परोसते हैं, उसे सवा दो घंटे तक झेलना दर्शकों के लिए खुद किसी 'आपातकाल' से कम नहीं है. 

दिमाग़ी दिवालियेपन से निकली 'बादशाहो' की कहानी जयपुर की महारानी गायत्री देवी और उनसे जुड़े तमाम सुने-सुनाये किस्सों से उधार लेकर लिखी गयी है. संजय गांधी जैसी शक्ल और तेवर वाले नेता संजीव (प्रियांशु चैटर्जी) की बुरी नज़र पहले महारानी गीतांजली देवी (इलियाना डी'क्रूज़) और अब उनके इनकार के बाद, उनके पुश्तैनी खजाने पर है. सरकार, जब्त करने के बाद, सारा सोना एक आर्मी ट्रक में भर कर जयपुर से दिल्ली के लिए निकल पड़ी है. सरकार और सेना के हाथों से सोना वापस लूटने के लिए रानी साहिबा मदद लेती हैं अपने ही वफादार भवानी (अजय देवगन) और उसके साथियों (इमरान हाश्मी, संजय मिश्रा) की. उधर सोने की हिफाजत के लिए मुस्तैद है जाबांज अफसर सहर सिंह (विद्युत् जामवाल). इसके बाद शुरू होता है वो सब कुछ, जो दशकों पहले आप वीएचएस (VHS) के ज़माने में जरूर देख चुके होंगे. 

मिलन-रजत की जोड़ी पहले भी अपने आप को दोहराती आई है. तालियों की भूखी लाइनों और शोरगुल से भरे एक्शन दृश्यों वाली फिल्मों को औसत दर्जे के अभिनय से सजा-सजा के ऐसी कहानियों को परदे पर लाना, जिनकी सारी खामियों को 'मसाला' कह के आसानी से बॉक्स-ऑफिस पर चलाया जा सके. रजत की हर लाइन में 'पंच' रचने की कोशिश इस बार औंधे मुंह गिरती है, जब हर किरदार 70s के गंवई खलनायकों और हास्य-कलाकारों की तरह बार-बार एक ही लाइन 'तकियाकलाम' की शक्ल में बोलता रहता है. फिल्म की कहानी में लॉजिक या तर्क की रत्ती भर भी गुंजाईश नहीं दिखती. पूरे महल की तलाशी को महज़ कुछ पांच-सात लोगों से अंजाम दे दिया जाता है, सन् 75 के जमाने में 'वो उन्हें जरूर कॉल करेगी' जैसी गलतियां भर-भर के हैं, इमरजेंसी के दौर में भी आइटम-नंबर की जगह और इन सबसे ऊपर डकैती के कुछ बुनियादी उसूल. फिल्म में डकैती को अंजाम तक पहुंचाने में जितनी रुकावटें, जितनी बाधाएं बताई जा रही हों, सबको एक-एक करके पार करने की जद्दोजेहद. 

अभिनय में अजय देवगन सीधे विमल गुटखे के विज्ञापन से निकल कर राजस्थान लाये गए लगते हैं. हाँ, गंभीर अभिनय के नाम पर उनके किरदार में हंसी-ठिठोली की कमी भरपूर रखी गयी है. सेक्सिस्म का लबादा ओढ़े हाशमी अपनी पुरानी हरकतों के बदौलत ही फिल्म में रेंगते नज़र आते हैं. संजय मिश्रा ही हैं, जो इस डूबती फिल्म में पत्ते की तरह बहते हुए थोड़ा बहुत हास्य उत्पन्न कर पाते हैं. इलियाना और जामवाल परदे पर थोड़ा स्टाइल जरूर बिखेर पाते हैं. फिल्म में इस्तेमाल राजस्थानी बोली उतनी ही नकली लगती है, जितनी फिल्म की कहानी में इमरजेंसी का मुद्दा. अंत तक आते-आते फिल्म इतनी वाहियात हो जाती है कि टिकट पर खर्च किये 150-200 रूपये भी आपको बड़ी लूट की तरह झकझोर देती है.

आखिर में; जिस फिल्म का टाइटल ही बेमतलब, बकवास और सिर्फ बोलते वक़्त वजनी लगने की गैरत से रख दिया गया हो, फिल्म की कहानी से कुछ लेना-देना न हो, उस फिल्म से बनावटीपन और थकाऊ मनोरंजन के सिवा आप चाहते भी क्या थे? तकलीफ ये है कि लाखों (उस वक़्त के हिसाब से) के सोने की कीमत और अहमियत बार-बार बताने वाली 'बादशाहो', अपनी चीख-पुकार, चिल्लाहट से सोने के असली सुख से भी आपको वंचित रखती है. वरना सवा दो घंटे की नींद भी कम फायदे का सौदा नहीं होती! [1.5/5]

शुभ मंगल सावधान: शर्तिया मनोरंजन! एक बार मिल तो लें!! [3.5/5]

'सेक्स-एजुकेशन' हम सबके 'कमरे का हाथी' है. देख के भी नज़रंदाज़ करने की परम्परा जाने कब से चली आ रही है? टीवी पर अचानक से दिख जाने वाला सेक्स-सीन हो, या कॉन्डोम का सरकारी विज्ञापन; बच्चों के सवाल आने से पहले ही बड़ों के हाथ रिमोट खोजने लग जाते हैं. और अगर कहीं भूले-भटके कोई बात करने की हिम्मत जुटा भी ले, तो ज्ञान की नदियों के समंदर हर तरफ से यूं हिलोरें मारने लगते हैं कि जैसे सब के सब डॉ. महेंद्र वत्स (मशहूर सेक्स-पर्ट) के ही बैचमेट हों. जो जितना कम जानता है, उतना ही ज्यादा यकीन से चटखारे ले लेकर अपने तजुर्बों की किताब सामने रख देता है. रेलवे लाइन से लगी शहर की हर दीवार किसी न किसी ऐसे 'गुप्त' क्लिनिक का पता जरूर आपको रटा मारती है. पुरानी सी खटारा वैन की छत पे कसा भोंपू चीख-चीख कर अच्छे-खासे मर्द में भी 'मर्दानगी की कमी' का एहसास करा देता है. बंगाली बाबाओं के नुस्खों से लेकर सड़क किनारे बिकती रंगीन शीशियों में बंद जड़ी-बूटियों की तलाश में; 'सेक्स एजुकेशन' का यह 'हाथी' अक्सर 'चूहे' की शकल लिए मायूस घूमता रहता है. हंसी तो आनी ही है. 

आर प्रसन्ना की 'शुभ मंगल सावधान' में हालाँकि कोई हाथी तो नहीं है, पर एक भालू जरूर है. सरे-बाज़ार मुदित (आयुष्मान खुराना) पर चढ़ गया था, और अब उतरने का नाम ही नहीं ले रहा. मुदित के गीले बिस्किट चाय में टूट-टूट कर गिर रहे हैं, और उसका अलीबाबा गुफा तक पहुँच ही नहीं पा रहा. दिक्कत तो है, सुगंधा (भूमि पेडणेकर) से उसकी शादी बस्स कुछ दिनों में होने ही वाली है. मुदित की परेशानी में सुगंधा हर पल उसके साथ है. बिना सबटाइटल्स वाली अंग्रेजी फिल्मों से सीख कर वो मुदित को 'कम ऑन, माय डैनी बॉय!' भी सुना रही है, हालाँकि ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर दर्द ज्यादा है. तमाशा तब शुरू होता है, जब दोनों के परिवारों में ये किस्सा आम हो जाता है. बाप को गुमान है कि उसके बेटे का 'कुछ भी' छोटा नहीं हो सकता. माँ ने बड़े होने तक बेटे का अंडरवियर रगड़-रगड़ के साफ़ किया है, तो बेटे में 'खोट' होने की सूरत ही नहीं बचती. 

सगाई से लेकर शादी तक चलने वाली इस कहानी में 'डिसफंक्शनल' सिर्फ मुदित और सुगंधा की सेक्स-लाइफ ही नहीं है, बल्कि समाज, शादी और रीति-रिवाज़ भी इसके जबरदस्त शिकार हैं. मजेदार ये है कि सब कुछ हंसी-हंसी में आपके सामने आता है और वैसे ही चले भी जाता है. जहां आपकी फिल्म का विषय ही इतना वयस्क हो, इतना संवेदनशील हो, वहाँ (अच्छे) हास्य का सहारा लेकर अपनी बात कहना और उसे कहते वक़्त जरा भी अश्लील या भौंडा न होने पाना अपने आप में एक बड़ी कामयाबी की तरह देखी जानी चाहिए. इशारों-इशारों, मिसालों और कहानियों के ज़रिये यौन-संबंधों से जुड़ी समस्याओं पर बात करने की कोशिश करते वक़्त फिल्म के किरदारों की झिझक जिस तरह का कुदरती हास्य पैदा करती है, उसका ज़ायका हम पहले भी 'विक्की डोनर' में चख चुके हैं. 'शुभ मंगल सावधान' ठीक उसी जायके की फिल्म है. 

फिल्म में किरदारों का रूखापन, उनके खरे-खरे लहजे और उनके तीखे संवाद की तिकड़ी मनोरंजन में पूरा दखल रखती है. ताऊजी (ब्रजेंद्र काला) बात-बात पर बाबूजी के श्राद्ध पर खर्च हुए पैसों का एहसान गिनाना नहीं छोड़ते. ससुर को 'बहू दुपट्टा लेकर नहीं गयी' ज्यादा परेशान करता है. माँ (सीमा पाहवा) बेटी को शादी से जुड़े सब राज बताना भी चाहती है, मगर खुल के कैसे कहे? इन सभी किरदारों के अभिनय में आपको कोई भी कलाकार तनिक भी शिकायत का मौका नहीं देता. मुख्य भूमिकाओं में आयुष्मान अपनी पिछली कुछ 'एकरस' फिल्मों से जरूर आगे आये हैं. भूमि हालाँकि मिडिल-क्लास, घरेलू लड़की के इस दायरे में कैद जरूर होती जा रही हैं, पर जब तक कहानियों में धार रहेगी, उन्हें देखना कतई खलेगा नहीं. 

आखिर में; 'शुभ मंगल सावधान' एक पारिवारिक फिल्म है, जो मनोरंजन के सहारे ही सही एक ऐसे झिझक भरे माहौल में आपको उन समस्याओं पर हँसने को उकसाती है, जिसके बारे में बात करना भी आपके लिए 'सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक' बन्धनों की जकड़ में आता है. आज अगर नज़रें मिला कर, 'सेक्स' के मुद्दे पर खुल कर अपनों के साथ हंस पाये, तो क्या पता कल संजीदा होकर एक-दूसरे से बात करना भी सीख ही जाएँ? [3.5/5]