Thursday 18 October 2018

बधाई हो: ...पारिवारिक फिल्म हुई है. बेहद मनोरंजक! [3.5/5]


दो-चार-दस सालों से हिंदी सिनेमा ने मनोरंजन के लिए परदे पर कही जाने वाली कहानियों के चुनाव में ख़ासी समझदारी दिखाई है. मुद्दे ऐसे तलाशने शुरू किये हैं, जिनके ऊपर बात करना न तो बंद दरवाजों के बीच परिवार के साथ खुले तौर पर आसान और मुमकिन होने पायी थी, न ही सामाजिक दायरों के संकुचित दड़बों में ही इनकी कोई निश्चित जगह बनती दिख रही थी. स्पर्म डोनेशन (वीर्यदान) पर बात करती ‘विक्की डोनर हो, या इरेक्टाइल डिसफंक्शन (नपुंसकता) को मनोरंजन की चाशनी में तर करके पेश करती ‘शुभ मंगल सावधान; इन हिम्मती कहानियों ने परिवार और समाज के साथ संवाद स्थापित करने की एक गुंजाईश तो पैदा कर ही दी है. लेट प्रेगनेंसी के इर्द-गिर्द घूमती अमित रविंदरनाथ शर्मा की ‘बधाई हो इसी कड़ी में अगला नाम है. जवान बेटों की माँ पेट से है, और बाप नज़रें चुराये फिर रहा है, जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. बेटों के लिए भी इसे समझना इतना आसान नहीं है. जहां ‘सेक्स’ को ही एक शब्द के तौर पर भी बिना असहज हुए बोल जाना गर्म लावे पर पैर धरकर आगे बढ़ने जैसा कठिन हो, उसे अपने माँ-बाप के साथ जोड़ कर देखना और सोचना भी कम साहसिक नहीं है. ‘बधाई हो इस मुश्किल को सहज करने और सहज करके मनोरंजक बनाने में पूरी तरह कामयाब रहती है.

अधेड़ उम्र के कौशिक साब (गजराज राव) रेलवे में टीटीई हैं. एक अदद माँ (सुरेखा सीकरी), एक अदद बीवी (नीना गुप्ता) और दो बेटों के साथ खुश थे, लेकिन फिर जाने क्यूँ उस रात उनका कवि-ह्रदय जाग गया, और अब वो घर में ‘छोटा मेहमान आने का समाचार डर-डर कर ज़ाहिर कर रहे हैं. बड़े बेटे (आयुष्मान खुराना) ने तो छोटे बेटे को ही चपेड़ लगा दी, “अलग कमरे की बड़ी जल्दी थी तुझे? कुछ दिन और मम्मी-पापा के बीच में नहीं सो सकता था?” उसकी भी दिक्कत कम नहीं है. अपनी प्रेमिका (सान्या मल्होत्रा) के साथ अन्तरंग होते वक़्त भी दिमाग वहीँ अटका रहता है, “यार, ये (सेक्स) भी कोई मम्मी-पापा के करने की चीज़ है?”. चेहरे की अपनी झुर्रियों जितनी शिकायतें लिए बैठी दादी अलग ही फट पड़ी है. कभी बहू को इस उम्र में लिपस्टिक लगाने के लिए कोस रही है, तो कभी बेटे को वक़्त न देने के लिए ताने सुना रही हैं.      

एक मुकम्मल पारिवारिक फिल्म होने के साथ-साथ, ‘बधाई हो दो सतहों पर अलग-अलग फिल्म के तौर पर भी देखी जा सकती है. माँ की प्रेगनेंसी को लेकर एक ओर जहां जवान बेटों की दुविधा, परेशानी और झुंझलाहट का मजाकिया माजरा है, दूसरी तरफ माँ-बाप बनने के बाद पति-पत्नी के बीच के धुंधले पड़ते रोमांटिक रिश्ते की अपनी कसमसाहट भी ख़ूब दिलकश है. रिश्तेदारों के सवालों से बचने के लिए बच्चे शादी में न जाने के बहाने ढूंढ रहे हैं. वहीँ पति के लिए सज-धज कर सीढ़ियाँ उतरती बीवी को निहारने का खोया सुख, परदे के लिए चिर-परिचित होते हुए भी एक बार फिर कामयाब है. बीच-बीच में बेटे (आयुष्मान-सान्या) का प्रेम-सम्बन्ध फिल्म में जरूरत भर की नाटकीयता के लिए सटीक तो है, पर इस (गजराज राव-नीना गुप्ता) रिश्ते के साथ आप जिस तरह का जुड़ाव महसूस करते हैं, दिल में काफी वक़्त के लिए ठहर सा जाता है. मैं इसे किसी ऐसे 80 की दशक के फिल्म का सीक्वल मान बैठना चाहता हूँ, जो कभी बनी ही नहीं. परदे पर एक ऐसा रोमांटिक जोड़ा जिसकी फिल्म ‘जस्ट मैरिड की तख्ती पर ‘...एंड दे लिव हैप्पिली आफ्टर’ के साथ ख़त्म हो गयी थी, अब लौटी है. प्रेमी-युगल को माँ-बाप बन कर रहने की जैसे सज़ा सुना दी गयी हो, उन्होंने भुगतनी मान भी ली हो, मगर फिर उनकी एक और ‘गलती उन्हें दोबारा परिवार और समाज के सामने कठघरे में ला खड़ा करती है.

‘बधाई हो के पीछे शांतनु श्रीवास्तव, अक्षत घिल्डीयाल और ज्योति कपूर का तगड़ा लेखन है, जो किरदारों को जिस तरह उनके स्पेस में ला खड़ा करता है, और फिर उनसे मजेदार संवादों की लड़ी लगा देता है; काबिल-ए-तारीफ़ है. फिल्म मनोरंजक होने का दामन कभी नहीं छोड़ती, हालाँकि फिल्म का दूसरा हिस्सा (इंटरवल के बाद का) थोड़ी हड़बड़ी जरूर दिखाता है, और अपने आप को समेटने में ज्यादा मशगूल हो जाता है. दिलचस्प है कि जिस तरह के हिम्मती कहानियों की कड़ी का हिस्सा है ‘बधाई हो, आयुष्मान उनमें से ज्यादातर का हिस्सा रह चुके हैं. इस तरह के किरदार में उनकी सहजता अब आम हो चली है, इसलिए ‘बधाई हो में उनसे ज्यादा ध्यान गजराज राव, नीना गुप्ता और सुरेखा सीकरी की तिकड़ी पर ही बना रहता है. गजराज जहां अपने किरदार की शर्मिंदगी और इस अचानक पैदा हुई सिचुएशन की उलझनों की बारीकियों को अपने चेहरे, हाव-भाव और चाल-चलन में बड़ी ख़ूबसूरती से ओढ़ लेते हैं, नीना गुप्ता अपने काबिल अभिनय से एकदम चौंका देती हैं. बड़े परदे पर उन्हें इस तरह खुल कर बिखरते देखे काफी अरसा हुए, शायद इसलिए भी. प्रेगनेंसी के दौर और इस दरमियान वाले दृश्यों में उनका उठना-बैठना-चलना भी उनके किरदार के प्रति आपकी हमदर्दी और बढ़ा देता है. सुरेखा जी के हिस्से कुछ बेहद मजेदार दृश्य आये हैं, जिन्हें आप लंबे समय तक याद रखेंगे.

आखिर में; ‘बधाई हो एक बेहद मनोरंजक पारिवारिक फिल्म है, जो कम से कम उस वक़्त तक तो आपको अपने माँ-बाप के बीच के रिश्तों को समझने की मोहलत देती है, जितने वक़्त तक आप परदे के सामने हैं. पति-पत्नी से माँ-बाप बनने तक के सफ़र में जिम्मेदारियों के बोझ तले दम तोड़ते अपने रोमांस को वापस जिलाना हो, या उनके गुपचुप रोमांस का जश्न मनाने की हिम्मत जुटानी हो; ‘बधाई हो जवान बच्चों से लेकर बूढ़े माँ-बाप तक सबके लिए है! [3.5/5]            

Friday 12 October 2018

तुम्बाड़: हिंदी सिनेमा में हॉरर का एक नया अध्याय! [4/5]


लोककथाओं में सांस लेती भूत-प्रेतों, राक्षसों और शैतानों की कपोल-कल्पित कहानियाँ अक्सर काल से परे होती हैं. ‘बड़े दिनों की बात है या फिर ‘मेरी दादी-नानी ऐसा बताती थीं जैसे अप्रामाणिक प्रसंगों और तत्थ्यों से दूर हटते किस्सों को सुनते-सोचते वक़्त, हम अक्सर अपने डर को डराने के लिए ‘सिर्फ कहानी है जैसे कथनों का सहारा ले लेते हैं. राही अनिल बर्वे ‘तुम्बाड़’ के जरिये एक ऐसी ही मनगढ़ंत कहानी हमारे सामने रखते हैं, पर बड़ी चालाकी से अपने क़िस्से को जिस तरह समय और जगह (काल और स्थान) की बेड़ियों में बाँध कर रखते हैं, आप पूरी तरह यकीन नहीं भी कर रहे हों, तो भी करना चाहने लग जाते हैं. नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली लोककथाएं भी परदे पर इतनी मायावी, सम्मोहक और रहस्यमयी लग सकती हैं, यकीन नहीं होता. ‘तुम्बाड़’ हॉरर फिल्मों के लिए हिंदी सिनेमा इतिहास में एक नए अध्याय की तरह है. कुछ ऐसा, जैसा आपने बचपन की कहानियों में सुना तो होगा, हिंदी सिनेमा के परदे देखा कभी नहीं होगा!

1918 का भारत है. महाराष्ट्र का एक छोटा सा गाँव, तुम्बाड़. सालों से जंजीरों में कैद दादी शापित हैं. लोभ से शापित. सिर्फ सोती हैं, खाती हैं. शायद बाड़े (किले नुमा हवेली) के खजाने का रहस्य जानती हैं. पोता अपनी माँ के साथ उन्हें वहीँ छोड़ आता है, मगर खजाने का लालच पोते विनायक (सोहम शाह) को 15 साल बाद वापस खींच लाता है. दादी के शरीर के ऊपर मोटी-मोटी जड़ों का जाल उग आया है. शरीर गल के मिट्टी हो चला है, पर दिल अभी भी धमनियों जैसी पेड़ों की जड़ों में जकड़ा धड़क रहा है. दादी अभी भी ज़िन्दा हैं, खजाने का राज़ बताने के लिए, जिसकी रक्षा करता है, लोभ का देवता, हस्तर. देवी की कोख से जन्मा पहला देवता, जिसने धरती का सारा सोना चुरा लिया था, और अब अपनी लालच की वजह से बाड़े में कैद है. विनायक लालच में हस्तर से कम नहीं. हस्तर को अब दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करने लगा है, मगर कब तक? 15 साल बाद, भारत आज़ाद हो चुका है, और विनायक पहले से कमज़ोर. अब उसे अपने बेटे को तैयार करना होगा. लोभ और लालच की दलदल में उतरने के लिए.

‘तुम्बाड़’ लालच और हवस जैसी मानवीय प्रकृति के डरावने पहलुओं को कुछ इस अंदाज़ से पेश करती है कि असली दानव आपको हस्तर से कहीं ज्यादा विनायक ही लगने लगता है. हस्तर तक पहुँचने की विनायक की ललक और खजाने को हथियाने की दिलचस्पी में चमकती उसकी आँखों का खौफ, असली राक्षस के चेहरे से भी ज्यादा घिनौना लगता है. कहानी में आप जिस तरह किरदारों की लालच को पीढ़ी-दर-पीढ़ी रगों में उतरते और आखिर तक आते-आते अपने ही बनाए जाल में फंसते देखते हैं, इतना रोमांचक और रहस्य से भरा है कि आप एक पल को भी अपनी आँखें परदे से हटाना नहीं चाहेंगे. ‘तुम्बाड़’ में राही अनिल बर्वे हॉरर के उस मिथक को तोड़ देते हैं, जिसे हॉलीवुड भी आज तक दोहराते आया है. दर्शकों को चौंकाने या डराने के लिए राही, कैमरा या साउंड के साथ किसी तरह का कोई झूठा प्रपंच नहीं रचते, बल्कि इसके विपरीत एक ऐसी तिलिस्मी दुनिया रंगते हैं, जो देखने में जितनी मोहक है, उतनी ही रहस्यमयी भी. पंकज कुमार का कैमरावर्क यहाँ अपने पूरे शबाब पर है. पूरी फिल्म में उनके औसत और आम फ्रेम भी किसी पेटिंग से कम नहीं दिखते. बाड़े में लगे झूले पर बैठा विनायक और बाद में वही टूटा हुआ खाली झूला. फिल्म के आखिरी दृश्यों में लाइट के साथ पंकज कुमार के प्रयोग रोंगटे भी खड़े करते हैं, और आँखों को सम्मोहित भी.

अभिनय में, सोहम शाह की अदाकारी को पहली बार एक बड़ा कैनवस मिला है, और ये उनकी अपनी क़ाबलियत ही है, जिसने फिल्म में उनके किरदार के भीतर के हैवान को महज़ आँखों और चेहरे के भावों से भी कई बार बखूबी ज़ाहिर किया है. उनकी मज़बूत कद-काठी भी विनायक के हठी, लालची और घमंडी किरदार को और उकेर के सामने ले आती है. अन्य कलाकार भी अच्छे हैं, मगर फिल्म के मज़बूत पक्षों में कतई साफ़-सुथरा विज़ुअल ग्राफ़िक्स, बेहतरीन सेट डिज़ाइन और काबिल मेकअप एंड प्रोस्थेटिक टीम सबसे ऊपर हैं.

हॉरर फिल्मों का एक दौर था, जब हमने फिल्मों में कहानी ढूँढनी छोड़ दी थी, और डरने के नाम पर पूरी फिल्म में सिर्फ दो-चार गिनती के हथकंडों का ही मुंह देखते थे. कभी कोई दरवाजे के पीछे खड़ा मिलता था, तो कभी कोई सिर्फ आईने में दिखता था. पिछले महीने ‘स्त्री ने हॉरर में समझदार कहानी के साथ साफ़-सुथरी कॉमेडी का तड़का परोसा था. इस बार ‘तुम्बाड़’ एक ऐसी पारम्परिक जायके वाली कहानी चुनता है, जो हमारी कल्पनाओं से एकदम परे तो नहीं हैं, पर जिसे परदे पर कहते वक़्त राही बर्वे और उनके लेखकों की टीम अपनी कल्पनाओं की उड़ान को आसमान कम पड़ने नहीं देती. हस्तर के पास सोना तो बहुत है, पर वो अनाज का भूखा है. अनाज ही उसकी कमजोरी है, और अनाज ही उसका शाप. शापितों के लिए एक मंत्र है, ‘सो जाओ, नहीं तो हस्तर आ जायेगा, और शापित तुरंत गिर कर खर्राटे मारने लगता/लगती है.

अंत में; ‘तुम्बाड़’ एक बेहतरीन हॉरर फिल्म है, जो हिंदी हॉरर फिल्मों को लेकर आपके खट्टे-मीठे अनुभवों को एक नया मुक़ाम देगी. एक ऐसा मुकाम, जो अपने आप में अनूठा है, बेहद रोमांचक है, खूबसूरत भी और जिसे आप सालों तक सराहेंगे. लालच अच्छी बात नहीं, पर ‘तुम्बाड़’ जाने का लोभ छोड़िये मत. [4/5]               

Friday 5 October 2018

अन्धाधुन: रोचक, रोमांचक और रंगीन! [3.5/5]


सरकारी बस स्टेशनों और रेलवे प्लेटफार्म पर सरकते ठेलों पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों की शकल याद है? जिनके मुख्यपृष्ठ हाथ से पेंट किये गये 80 के दशक के मसाला फिल्मों का पोस्टर ज्यादा लगते थे, और हिंदी साहित्य का हिस्सा कम? जिनकी कीमत रूपये में भले ही कम रही हो, कीमत के स्टीकर हिंदी में अनुवादित जेम्स हेडली चेज़ के साथ-साथ वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे अपने मशहूर लेखकों के नामों से हमेशा बड़े दिखते थे? आम जनता के सस्ते मनोरंजन के लिए ऐसे मसालेदार साहित्य अंग्रेज़ी में ‘पल्प फिक्शन और हिंदी में ‘लुगदी साहित्य के नाम से जाने जाते हैं. श्रीराम राघवन सिनेमाई तौर पर हिंदी की इसी ‘लुगदी को सिनेमा की उस धारा (फ्रेंच में NOIR या ‘नुआं’ के नाम से विख्यात) से जोड़ देते हैं, जहां किरदार हर मोड़ पर स्वार्थी होकर किसी बड़े उद्देश्य के लिए अपनी भलमनसाहत गिरवी रखने को हमेशा तैयार मिलते हैं. ऐसा करते वक़्त, किरदारों के ख़ालिस इंसानी ज़ज्बात अक्सर उन्हें ऐसी औचक होने वाली आपराधिक घटनाओं की तरफ धकेल देते हैं, जिनसे निकलना और निकल कर अपनी तयशुदा मंजिल तक पहुंचना और भी दूभर लगने लगता है.
रहस्य और रोमांच से भरपूर ‘अन्धाधुन मनोरंजन के लिए छलावों से भरी एक ऐसी मजेदार दुनिया परदे पर रखती है, जहां जो दिखता है, सिर्फ उतना ही नहीं है. यहाँ जो कुदरती तौर पर नहीं भी देख सकता, वो भी अपने मतलब के दायरे में आने वाली चीजें भली-भांति देख सकता है. एक पति (अनिल धवन) का क़त्ल हुआ है. पत्नी (तब्बू) शक के दायरे में है. मौका-ए-वारदात पर इत्तेफ़ाक से मौजूद एक पियानो बजाने वाला (आयुष्मान खुराना) क़त्ल का गवाह तो है, पर आँखों से अंधा. उसके ‘देखे’ पर कोई यकीन कैसे करेगा? इससे आगे कहानी का कोई भी हिस्सा बताने पर ‘अन्धाधुन अपनी राजदारी खो सकता है, अब आप फिल्म के हद रोमांचक होने का अंदाजा इसी एक बात से लगा सकते हैं. हालाँकि राघवन जुर्म होते हुए परदे पर कातिल को ठीक आपकी नज़रों के सामने रखते हैं, और आप दूसरी आम अपराध-फिल्मों की तरह कम से कम इस पेशोपेश में नहीं पड़े रहते कि कातिल कौन हो सकता है?; फिर भी फिल्म देखते वक़्त, आपकी तल्लीनता परदे पर कुछ किस कदर बनी रहती है कि कहानी के साथ-साथ किरदारों के हर दांव पर आप अपनी सीट से उछल पड़ते हैं.

बीते दौर के चित्रहार और छायागीत को फिल्म की शुरुआत में श्रद्धांजलि देने वाले राघवन, ‘अन्धाधुन में अजीब, अनोखे, रंगीले किरदारों की झड़ी सी लगा देते हैं. अनिल धवन परदे पर 70 के दशक की पुरानी फिल्मों के हीरो के किरदार में हैं, जो वो खुद भी असल जिंदगी में उसी मुकाम पर हैं. यूट्यूब पर अपनी ही फिल्मों (हवस, 1974) का गाना देखते हुए, अपनी ही फिल्मों (हनीमून, चेतना) के पोस्टरों से पटे पड़े घर में टहलते हुए, पियानो पर अपने ही गानों (पिया का घर, 1972) की फरमाईश सुनते हुए अनिल धवन फिल्म का सबसे मजेदार पहलू बन कर उभरते हैं. इस भूमिका में उनका चुनाव उस दौर के सिनेमाप्रेमियों के लिए किसी जश्न से कम नहीं लगता. तब्बू का किरदार शुरू से ही जता देता है कि वो कितनी शातिर हो सकती है? क्रैब (केकड़ा) को उबलते पानी में डालने से पहले डीप फ्रीज़र में डाल कर शांत कर देने का उसका तरीका फिल्म के अगले हिस्सों में उसके इरादों की एक झलक भर है. और फिर अपना पियानो प्लेयर? एक अधूरी धुन को पूरा करने में लगा एक ऐसा आर्टिस्ट, जो एक्सपेरिमेंट के नाम पर किसी हद तक जा सकता है. एक पुलिस वाला है, जो प्रोटीन के लिए 16-16 अंडे रोज खाता है, और एक उसकी बीवी, जो उसे धोखा देने पर ताना भी सबसे पहले इसी बात के लिए देती है.

‘अन्धाधुन आयुष्मान की सबसे मुश्किल फिल्म है. कलाकार के तौर पर उनकी मेहनत और शिद्दत साफ़ नज़र आती है. फिल्म की कहानी में छलावे कितने भी हों, पियानो पर उनकी उंगलियाँ पूरी सटीक गिरती, उठती, फ़िसलती हैं. कुछ न देख पाने और कुछ न देख पाने को जताने की कोशिश में उनकी क़ाबलियत निखर कर सामने आती है, पर इसके बावजूद फिल्म बड़ी आसानी से तब्बू के पाले में चली जाती है. राघवन जिस तरह तब्बू के किरदार में परतें खोजते हैं, तब्बू उससे कहीं आगे जाकर कामयाबी हासिल करती हैं. अक्सर तब्बू को हम उनकी संजीदा एक्टिंग के लिए जानते हैं, इस किरदार में उनकी बेपरवाही चौंकाती है. कई बार तो उनकी कोशिश नज़र भी नहीं आती, कुछ इतनी आसानी से बड़ा कर जाती हैं. अनिल धवन परदे पर बिजली की तरह चमकदार दिखते हैं, ख़ुशमिज़ाजी फैलाते हैं. राधिका आप्टे के हिस्से इस बार कम स्क्रीनटाइम हाथ आया है. जाकिर हुसैन, मानव विज, अश्विनी कलसेकर जैसे सह-कलाकार कहीं से भी कम नहीं पड़ते.

अन्त में; ‘अन्धाधुन श्रीराम राघवन के थ्रिलर-प्रेम की एक और सफल कड़ी है, जहां सिनेमा और साहित्य की सस्ती माने जाने वाली कुछ धाराओं को कपोल-कल्पना की ऊँची उड़ानों में पूरे गर्व के साथ ‘सेलिब्रेट’ किया जाता है. हालाँकि फिल्म घोर मनोरंजन की नज़र से ‘जॉनी गद्दार’ की तरफ ज्यादा झुकी नज़र आती है, और इंसानी ज़ज्बातों की गहरी दखलंदाज़ी वाली मार्मिक और संजीदा कहानी के तौर पर ‘बदलापुर की तरफ कम; फिर भी दिलचस्प उतार-चढ़ावों से भरपूर एक ऐसी फिल्म, जो अपने ज्यादातर वक़्त में आपको अपनी सीट पर बांधे रक्खे. [3.5/5]                         

Monday 1 October 2018

नाच भिखारी नाच: एक मास्टरक्लास, भोजपुरी सिनेमा के लिए! [5/5]


काले-सफ़ेद घुंघराले बालों से लदे, 70 साला मर्दाना सपाट सीने पर सैकड़ों बार पहनी जा चुकी बदरंग सूती ब्रा चढ़ रही है. कपड़ों की कतरनों से, ठूंस-ठूंस कर दोनों कटोरियाँ भरी जा रही हैं. पर्दों के पीछे से बच्चे आँखें फाड़े ताक रहे हैं. बिहार के छपरा जिले में, एक छोटे से गाँव में मंच तैयार है. भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का नाटक ‘बिदेसिया खेला जाएगा. मर्द ही औरतों की भूमिका में नाचते, गाते, अभिनय करते नज़र आयेंगे. शिल्पी गुलाटी और जैनेन्द्र दोस्त की भोजपुरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘नाच भिखारी नाच’ बिहार की एक बेहद ख़ास विलुप्त होती सांस्कृतिक, सामाजिक विधा ‘लौंडा नाच’ को, भिखारी ठाकुर के मार्मिक सन्दर्भ के साथ न सिर्फ गहरे जानने की कोशिश करती है, बल्कि सिनेमा को उससे जुड़े कुछ बेहद नायाब कलाकारों की निजी जिंदगी का हिस्सा बनने का भी मौका देती है. समाज के निचले तबकों से आने वाले, नाच के दौरान भड़कीले रंगों से लिपे-पुते इन मनोरंजक चेहरों को इनकी आम जिंदगी में पढ़ते हुए, हर बार ज़ज्बाती तौर पर आप अपने आपको इनके और करीब पाते हैं.

लखीचंद मांझी जी के यहाँ कुछ खो गया है. ढूंढा जा रहा है. मांझी घरवालों पर बरस रहे हैं, “भिखारी ठाकुर का नाम लिखा था, यहीं तो था’. बात पुरस्कार के रूप में मिले सुनहरे फ्रेम की हो रही है, पर इसे आप असल जिंदगी का दर्द और तंज भी समझ सकते हैं. भिखारी ठाकुर अब इतनी सहजता से नहीं मिलते. ढूँढने पड़ते हैं. कभी दहेज़ जैसी सामाजिक कुरीतियों और भौगोलिक पलायन जैसे जनसामान्य से जुड़े मुद्दों को निशाने पर लेने वाली ‘लौंडा नाच’ की जगह अब भौंडे, अश्लील और बेशर्मी भरे ‘ऑर्केस्ट्रा’ ने ले ली है. राम चंदर मांझी का गुस्सा जायज़ है, ‘नाच कला है. नाच में भाव होने चाहिए. आजकल तो बस कसरत होती है, नाच के नाम पर.

एक वक़्त था, भिखारी ठाकुर के लोकनाटकों की नींव पर अपनी जमीन तलाशते नाच, सामाजिक और आर्थिक तौर पर दबे-कुचले समाज़ के लिये न सिर्फ एक सहज मनोरंजन का साधन होते थे, बल्कि एक तरह से उनकी बदहाल जिंदगी को ढर्रे पर लाने और एक नई दिशा मुहैया कराने के लिए भी पूरी ज़िम्मेदारी दिखाते थे. 75 साल के शिवलाल बाड़ी याद करते हैं कि कैसे भिखारी ठाकुर के नाटक ‘बेटी बेचवा ने बिहार की उस अमानवीय कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंका था, जिसमें शादी के लिए बेटियों की बाज़ार में जानवरों जैसे नुमाईश की जाती थी.

शिल्पी गुलाटी और जैनेन्द्र दोस्त भिखारी ठाकुर, उनके नाटकों और नाच-कला से सीधे-सीधे तौर पर जुड़े चार ख़ास किरदारों के जरिये भोजपुरी भाषा के एक ऐसे पहलू को हमारे सामने खोल कर रख देते हैं, जो सिनेमा और संगीत की हालिया बदसूरती से एकदम अलग, आपको सीधे-सादे-सच्चे चहेरों की साफ़-बयानी में और खूबसूरत लगती है. गाँव-गिरांव के लम्बे-लम्बे शॉट्स (जिसमें बाड़ी अपने ‘महराज जी का घर दिखा रहे हैं), गंवई चेहरों के एकदम नज़दीक बनते ईमानदार क्लोज-अप्स और नाटकों में रंगीन चेहरों के आगे-पीछे लहराता उदित खुराना का कैमरा फिल्म को जितना यथार्थ के करीब रखता है, अपने आस-पास मनोरंजन और ख़ूबसूरती को भी उतनी ही तवज्जो से ढूंढ लेता है. अपने वक़्त में श्रीदेवी और अमिताभ बच्चन से भी ज्यादा लोकप्रिय, 92 साल के राम चंदर मांझी चेहरे पर रंग पोत कर, पलकें उठाते हुए जिस तरह अपने जनाना किरदार में घुस कर देखते हैं, उदित इस एक पल को ही कैद कर पाने के लिए बधाई के पात्र बन जाते हैं.

‘नाच भिखारी नाच एक लुप्त होती कला से जुड़े सच्चे कलाकारों के दर्द, कसक और नाउम्मीदी से भरे पलों में भी कला के लिये अटूट प्रेम और लगन का एक बेहद मनोरंजक जश्न है. एक तरफ जहां राम चंदर छोटे निचले तबके से जुड़ाव की वजह से नाच के प्रति बड़ी जातियों की उपेक्षा पर पूरी तबियत से बोल रहे हैं, वहीँ शिवलाल बाड़ी हैरत में हैं कि जैनेन्द्र की फिल्म अभी पूरी क्यूँ नहीं हुई, जबकि वो साल भर पहले भी उनके साथ कैमरे पर बात कर चुका है? राम चंदर मांझी की पोती पिंकी कैमरे पर ही अपनी शिकायत दर्ज करा रही है, “बाबा को साबुन से नहाना पसंद नहीं. कहते हैं, गंगाजी गया था, वहीँ की मिट्टी पूरे देह पर मल ली. बताओ!”.

अंत में; हालिया डाक्यूमेंट्री फिल्मों में जिस तरह का इमोशनल कनेक्ट, जैसी परिपक्वता, जैसा रिसर्च, जैसी संजीदगी और काबलियत शर्ली अब्राहम और अमित मद्धेशिया की ‘दी सिनेमा ट्रेवलर्स’ ने टूरिंग टॉकीज को लेकर दिखाई थी, शिल्पी और जैनेन्द्र की ‘नाच भिखारी नाच उसी की एक योग्य कड़ी के रूप में उभर कर आती है. बेहद ज़ज्बाती, बेहद मनोरंजक, बेहद जरूरी. राम चंदर छोटे फिल्म में कहते हैं, “गाँव में सब मानता है, हम अच्छे आदमी हैं. ये सब नाटक की वजह से. नाटक में जो किरदार हम करते हैं, उसकी वजह से”. किसी भी कला, विधा की और जिम्मेदारी भी क्या होती है? समाज की गिरती दशा को सही दिशा देना.

भोजपुरी भाषा, सिनेमा और संगीत को उसका स्वर्णिम अतीत दिखलाने के लिए ‘नाच भिखारी नाच अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को पूरी शिद्दत से निभाती है, मगर क्रांति अकेले नहीं आएगी. कुछ कोशिशें दर्शकों के तौर पर भी आपको करनी होगी. फ़िलहाल, भोजपुरी सिनेमा से जुड़े लोगों के लिए ‘नाच भिखारी नाच किसी मास्टरक्लास से कम नहीं! [5/5]