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Friday, 4 August 2017

जब हैरी मेट सेजल: पुराने इम्तियाज़- नए शाहरुख़ [3/5]

बॉलीवुड में रोमांटिक फिल्मों का एक आख़िरी बेंचमार्क तकरीबन 22 साल पहले आया था. तब से मुंबई के मराठा मंदिर में 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे' आज तक चल रही है. इस बीच 'चेन्नई एक्सप्रेस' और 'बेफ़िक्रे' जैसी बहुत सारी फिल्मों ने गाहे-बगाहे इस 'भारतीय फिल्म इतिहास की शायद सबसे चहेती रोमांटिक फिल्म' को अपने-अपने तरीके से परदे पर दोबारा जिंदा करने की कोशिश की है. कहना ग़लत नहीं होगा कि कमोबेश सभी ने फिल्म की रूह को समझने से ज्यादा, उसकी बाहरी चमक-दमक को ही अपना केंद्र-बिंदु बनाये रक्खा. 'जब हैरी मेट सेजल' के साथ, इम्तियाज़ अली अपना जाना-पहचाना, जांचा-परखा, सूफ़ियाना असर फिल्म की रूमानियत में घोल देते हैं, साथ ही वापस ले कर आते हैं रोमांस के बादशाह शाहरुख़ खान को उनकी अपनी ही दुनिया में, मगर इस बार एक अलग नए अंदाज़ में. 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे' अगर इन 22 सालों में और बालिग़, और उम्रदराज़, और परिपक्व होने की किस्मत पा सकती, तो बेशक 'जब हैरी मेट सेजल' के आस-पास ही होती...सीरत में न सही, सूरत में जरूर! 

लन्दन के नौजवान मसखरे, दिलफेंक राज की जगह अब यूरोप के रूख़े, तुनकमिजाज़ और मुंहफट ट्रेवल-गाइड हैरी (शाहरुख खान) ने ले ली है. टूर ख़तम होने के साथ ही, उसके रंग बदलने लगते हैं. मीठा-मीठा बोलने वाला हैरी झल्लाहट में पंजाबी गालियाँ भुनभुनाता रहता है. अपनी बेपरवाही को चाशनी में लपेट कर लड़कियां पटाने की कोशिश नहीं करता, बल्कि पूरी अकड़ और तेवर से अपने 'गंदे' होने का ढिंढोरा पीट-पीट कर पहले ही आगाह कर देता है. और तब भी, अगर लड़की नज़दीक आने की कोशिश करे तो 'मत कर, मुश्किल हो जायेगी!' कहकर पीछे हट जाता है. हालाँकि देसी और विदेशी लड़कियों में उसका ये फ़र्क अब भी समझ से परे है, बावजूद इस वाहियात 'पुरुषवादी' सफाई कि 'तू चाइना वास की तरह है, एक जगह रख के देखते रहने के लिए'.

सेजल (अनुष्का शर्मा) भी सिमरन की ही तरह साफ़ कर देती है, 'मैं वैसी लड़की नहीं हूँ', पर इस बार उसे भारी दिक्कत 'स्वीट, क्यूट, ब्यूटीफुल, सिस्टर-लाइक' समझे जाने से है. सेजल सगाई की अंगूठी खोजने के बहाने कुछ और ही खोज रही है. शायद आज़ादी की सांस, जो अपनी ही फॅमिली बिज़नेस का लीगल एडवाइजर बन के नसीब नहीं हो रहा या फिर शादी के बाद जिसके खो जाने का डर बना हुआ है. हालाँकि यूरोप का 'यहाँ अंगूठी नहीं है, वहाँ चलो' वाला अबकी बार का ट्रिप, 'मैं इस बार ट्रेन मिस नहीं करना चाहती' वाले ट्रिप जितना मजेदार नहीं है, बल्कि कहीं ज्यादा झेला और झल्ला देने वाला है, इसमें कोई शक़ नहीं. 

शाहरुख़ के लिए रोमांस नया नहीं है, पर इस बार शाहरुख़ ज़रूर नए हैं. उम्र का असर सिर्फ परदे पर नज़र नहीं आता, एक गहराई के साथ उनके किरदार में भी समाया हुआ दिखता है. 'डियर जिंदगी' की तरह एकदम चौंकाने वाला तो नहीं, पर हैरी में शाहरुख़ के अन्दर का अदाकार काफी हद तक ज़मीनी और कम बनावटी नज़र आता है. अनुष्का भी बड़ी आसानी से और ख़ूबसूरती से अपनी भाव-भंगिमाएं बदल लेती हैं. तो फिर परेशानी क्या है? परेशानी है, कहानी. फिल्म की कहानी पानी के उस एक बुलबुले की तरह है, जिसके फूटने का इंतज़ार दर्शकों को ढाई घंटे तक कराना ही अपने आप में एक चुनौती है. उस पर से वही जानी-पहचानी, जांची-परखी इम्तियाज़ अली की दुनिया, जो एक तरफ तो फिल्म को अपने सूफियाना फलसफों से ठहराव भी बहुत देती है, पर इधर-उधर के तमाम दृश्यों की बनावट और सजावट में 'लव आजकल', 'रॉकस्टार' जैसी अपनी ही फिल्मों से उधार ली हुई लगती है. 

इम्तियाज़ अगर कहीं अपने आप को बेहतरी के लिये दोहराते हैं तो उस वक़्त जब उन्हें हैरी और सेजल के दरमियान आपसी नज़दीकियों के दृश्यों में कुछ बेहद खूबसूरत लम्हें कैद करने का मौका मिलता है, और ऐसे मौके फिल्म में दूर-दूर ही सही, मगर बहुत सारे हैं. खूबसूरत लोकेशन्स, बेहतरीन कैमरावर्क, गानों और बैकग्राउंड म्यूजिक के अलावा एक बात और जो काबिल-ऐ-तारीफ़ है, वो हैं फिल्म के संवाद. कुछ बातें मायनों के साथ कही जाती हैं, कुछ बातें कहने के बाद अपने मायने तलाशती हैं. 'जब हैरी मेट सेजल' लगातार बोलती रहती है पर जो कहना चाहती है, बड़ी समझदारी से अधूरा ही छोड़ देती है. 

आखिर में; 'जब हैरी मेट सेजल' की पूरी कोशिश परदे पर शाहरुख के उस करिश्माई शख्सियत को इम्तियाज़ अली की दुनिया से मिलाने की है, जिसे कभी यश चोपड़ा जी ने अपनी फिल्मों में निखारा-संवारा था. इम्तियाज़ आज के ज़माने के 'यश चोपड़ा' माने जाते हैं, पर एक अदद कमज़ोर कहानी की वजह से 'जब हैरी मेट सेजल' इस पूरी कोशिश को भले ही नज़रंदाज़ कर दे, शाहरुख़ को इस फिल्म में नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है. [3/5]   

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