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Friday, 1 June 2018

भावेश जोशी सुपरहीरो : ‘मार्वल’ नहीं, ‘डीसी’ है. देसी है. [3/5]


दुनिया ख़तम नहीं हो रही है. धरती पर दूसरे ग्रहों के आड़े-टेढ़े दिखने वाले एलियंस का अटैक भी नहीं हो रहा. इसीलिये उड़ने, चिपकने, रंग बदलने और तरह-तरह की अजीब-ओ-ग़रीब शक्तियों का रंगीन तमाशा दिखाने वाले सुपरहीरोज़ की जरूरत भी नहीं है. ये भारत है, यहाँ भ्रष्टाचार ही सबसे बड़ा दानव है. सिस्टम का खोखलापन ही वक़्त-बेवक्त लाचार से दिखने वाले आम इंसान को कभी-कभी इतना झकझोर देता है कि उसके लिए किनारे पर खड़े रहकर सब कुछ चुपचाप होते देखते रहना मुश्किल हो जाता है. हिंदी सिनेमा में शहंशाह ही शायद इस तरह की आख़िरी फिल्म रही थी. कृश इस मामले में देसी होते हुए भी अपनी पहचान हॉलीवुड से ही उधार लेता है. विक्रमादित्य मोटवाने की भावेश जोशी सुपरहीरो इन दोनों के बीच अपना एक अलग रास्ता, अपनी एक अलग जगह तलाशती है, जहां सबकुछ हद दर्जे तक अपना है, ज़मीनी है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे आन्दोलन में जन लोकपाल बिल की मांग करते लाखों नौजवानों में भावेश जोशी (प्रियांशु पैन्यूली) और सिकंदर खन्ना (हर्षवर्धन कपूर) भी शामिल हैं. करप्शन इज़ शिट, एंड शिट स्टिंक्स जैसे नारों से बढ़कर जब खुद कुछ करने की बारी आती है, तो मुंह पर पेपर-बैग्स पहन कर सोसाइटी का इन्टरनेट ठीक करवाने, पेड़ कटने से बचाने और नो एंट्री में घुसती कारों को रोकने से ज्यादा न कुछ उनके बस का होता है, ना ही वो कोशिश ही करते हैं. यूट्यूब चैनल पर लाइक्स तो मिल रहे हैं, पर धीरे-धीरे दुनिया बदलने का जोश भी ठंडा पड़ता जा रहा है. सिकंदर कोडिंग की नौकरी के सिलसिले में विदेश जाने के लिए पासपोर्ट बनवा आया है, वो भी खुद रिश्वत दे कर. हालाँकि भावेश के लिए अभी भी सब कुछ ख़तम नहीं हुआ है. मुंबई में जड़ों तक पसरे पानी की तस्करी के मामले ने उसमें एक नयी आग फूँक दी है. भावेश जोशी सुपरहीरो किसी एक चेहरे की कहानी नहीं है, बल्कि इस लड़ाई में लगातार उठ खड़े होते एक जज़्बे का किस्सा है.

विक्रमादित्य मोटवाने अपने मुख्य किरदार से फिल्म की शुरुआत में ही साफ़-साफ़ बुलवा देते हैं कि फिल्म मार्वल नहीं, बल्कि डीसी वाले ज़ोन में अपने आपको ज्यादा सुरक्षित महसूस करती है. आमने-सामने के सीधे मुकाबलों में नायक उतनी ही देर टिक पाता है, जितनी देर उसकी कद-काठी का कोई भी आम इंसान लड़ सकता हो. गैजेट्स के नाम पर उसके पास सिर्फ हैंडीकैम, लैपटॉप और एक स्मार्टफ़ोन ही हैं. ज्यादातर लड़ाईयां स्थानीय मुद्दों पर लड़ी जाती हैं, और इंटरनेट पर ही निपट जाती हैं. ज़मीनी झड़पों में चोटों का खामियाज़ा हमेशा नायक को ही उठाना पड़ता है. तीखे आदर्शवाद और तेज़ आक्रोश के साथ भावेश का जुझारूपन, अपने इर्द-गिर्द चीजें न बदल पाने की खीज़ और बावजूद इन सबके हार न मानने की जिद मोटवाने जिस नितांत गहरे और घने तौर पर सामने रखते हैं, कुछ नया देखने का एहसास लगभग लगभग हर वक़्त बना ही रहता है. हालाँकि फिल्म के दूसरे हिस्से में बदलने का जोश बदले की आग में तब्दील जरूर हो जाता है, पर इमोशन्स कमोबेश वैसे ही बने रहते हैं. कुछ बहुत करीने से फिल्माए गये एक्शन दृश्यों में विश्वसनीयता का तड़का उन्हें और भी रोचक-रोमांचक बना देता है.

सिकंदर की भूमिका में औसत कद-काठी वाले हर्षवर्धन का चुनाव, जहां एक स्तर पर उनके किरदार से पूरी तरह मेल खाता है, भीड़ में खो जाने और सुपर हीरो बनने की सबसे कम संभावनाओं के तौर पर सटीक लगता है; वहीँ उस किरदार के ज़ज्बाती उतार-चढ़ाव के सफ़र में उनका कमतर अभिनय फिल्म को नुक्सान भी बहुत पहुंचाता है. कभी-कभी लगता है, काश राजकुमार राव जैसा कद्दावर अदाकार कुछ पलों के लिए आता और सब कुछ संभाल लेता. प्रियांशु पेन्यूली से कोई शिकायत नहीं रहती. फिल्म के पहले हिस्से की कामयाबी काफी हद तक उनके ही मज़बूत कन्धों पर टिकी होती है. दूसरे हिस्से में मोटवाने या तो एक्शन दृश्यों का सहारा लेते दिखाई देते हैं, या फिर तेरे चुम्मे में च्यवनप्राश है जैसे आइटम नंबर में व्यस्त हो जाते हैं.  

155 मिनट के लम्बे वक़्त में, भावेश जोशी सुपरहीरो कई बार लड़खड़ाती है, लंगड़ाती है, मगर अंत तक आते-आते फिल्म के नायक की तरह ही आत्मविश्वास से कुछ इस कदर लबरेज हो जाती है, मानो अंत नहीं, इसे एक नयी शुरुआत समझी जानी चाहिए. भावेश जोशी के परदे पर वापस लौटने की संभावनाओं को एक माकूल ज़मीन देने में तो जरूर फिल्म सफल हो जाती है, पर खुद में एक मुकम्मल फिल्म का दर्ज़ा हासिल करने कहीं न कहीं चूक जाती है. भावेश लौटे, तभी भावेश जोशी सुपर हीरो को उसकी तयशुदा मंजिल हासिल होगी! [3/5]  

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