Friday 29 June 2018

संजू: दत्त, रनबीर, हिरानी...मनोरंजन सब पर भारी! [3.5/5]


क्या कोई भी 3 घंटे की फिल्म या 400 पन्नों की किताब किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या उसके व्यक्तित्व के बारे में आपकी राय बदलने में कामयाब हो सकती है? नहीं. भले ही वो फिल्म राजकुमार हिरानी जैसे चहेते फ़िल्मकार ने ही क्यूँ न बनायी हो. क्या राजकुमार हिरानी ने संजू के साथ संजय दत्त की छवि सुधारने की ऐसी कोई कोशिश की है? मुझे नहीं लगता. संजय दत्त जैसे सनसनीखेज जिंदगी जीने वाले मशहूर शख्सियत से जुड़ा हर पहलू जानने-समझने-टटोलने के लिए संजू कम पड़ जाती है. तय वक़्त के कथानक में पिरोने के लिए घटनाओं के अपने चुनाव में भी, और मनोरंजन को मद्देनजर रख कर उन घटनाओं के इर्द-गिर्द अतिरंजित भावनाओं का जाल बुनने में भी. जाल शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर कर रहा हूँ. अभिजात जोशी के साथ मिलकर हिरानी स्क्रिप्ट लिखते वक़्त ‘LCD’ फ़ॉर्मूले को ध्यान में रखते हैं, यानी कागज़ पर लिखे जिस दृश्य में LAUGHTER, CRY या DRAMA नहीं, उसका फिल्म में बने रहना जरूरी नहीं. इस गरज़ से, संजू मनोरंजक लगने की कोशिश करते हुए ज्यादा नज़र आती है, और सिनेमाई तौर पर परिपक्व या सम्पूर्ण फिल्म होने का हक़ खोती चली जाती है.

संजय दत्त तमाम बदनामियों और अपनी बिगडैल छवि के बावजूद, दर्शकों के एक बहुत बड़े हिस्से के चहेते अभिनेता रहे हैं. उनसे जुड़े हजारों किस्सों और किंवदंतियों में उन्हें तलाशना अपने आप में किसी रहस्य से कम नहीं है. हिरानी उनकी जिंदगी को जब अपनी सीधी-सरल, पर बेहद चमकदार रंगीन दुनिया में जगह देते हैं, आपकी उम्मीद रहती है कि आप हिरानी की मदद से इस पहेली को आसानी से सुलझा पायेंगे. ऐसा नहीं होता. कम से कम हर बार नहीं होता. संजू में बहुत सारा कुछ ऐसा है, जो आपको असलियत से परे लगता है. अक्सर क्या ऐसा हुआ था?’ से कहीं आगे बढ़कर आप अरे, ऐसा थोड़े ही हुआ होगा की तरफ पहुँचने लगते हैं. और उसकी वजह शायद हर बार हिरानी साब का मनोरंजन को लेकर अपना एक ख़ास नजरिया और तय रवैया ही है. 4 सफल फिल्मों के बाद, अब दर्शक के तौर पर आपको भी उनके दांव-पेंच समझ आने लग गये हैं. चौंकाने के लिए अब हिरानी साब के तरकश में कम ही तीर बचे हैं. हालाँकि अभी भी आप और हम उनसे उबेंगे नहीं, पर बासीपने के हलकी गंध आने लग पड़ी है.

संजू का पहला हिस्सा संजय दत्त (रनबीर कपूर) और ड्रग्स के साथ उनकी उठा-पटक के नाम रहता है. इस दौरान, कथानक में माँ नर्गिस जी (मनीषा कोईराला) की बीमारी, उनकी असामयिक मृत्यु, बेटे को ड्रग्स के दलदल से निकालने में पिता सुनील दत्त (परेश रावल) की नाकाम कोशिशों और संजय की ख़ुद से ही लड़ाई को अहमियत मिलती है. हलके-फुल्के पलों और एक-दो इमोशनल दृश्यों के अलावा, इस हिस्से में अगर कुछ आपको बहुत बांधे रखता है, तो वो है संजय के दोस्त कमलेश (विक्की कौशल) का किरदार. परदे पर विक्की के आते ही जैसे कोई तूफ़ान सा उठने लगता है. इस किरदार के बारे में आपको शायद ही पहले से कुछ पता रहा हो. संजय के साथ कमलेश की दोस्ती के पल हों, या इंटरवल से ठीक पहले कमलेश का एक सनसनीखेज खुलासा; इस एक किरदार के साथ आप हमेशा उत्सुक और उत्साहित रहते हैं. यही एक किरदार है, जो संजय के साथ-साथ रहते हुए कहानी में एक अलग तरह की निरपेक्षता और सकारात्मकता लेकर आता है. यहाँ तक कि पहली मुलाक़ात में ही संजय को दो-टूक सुनाने की हिम्मत दिखा देता है.  

संजय दत्त के अंडरवर्ल्ड से रिश्तों और एके-47 रायफल रखने के वाकये से होकर येरवडा जेल से छूटने तक का सफ़र फिल्म का दूसरा हिस्सा बनता है, जहां ज्यादातर कोशिशें और वक़्त मामले को लेकर संजय की सफाई के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है. पिछले हिस्से में जहां परदे का संजय (रनबीर) असल जिंदगी के संजय पर हर लहजे से हावी होता दिखाई दे रहा था, यहाँ तक आते-आते संजय दत्त का हालिया व्यक्तित्व आपको ज्यादा भाने लगता है. मुन्नाभाई एमबीबीएस घटने और संजू के बाबा बनने के दौर और दृश्य खासे सुहावने लगते हैं. हालाँकि हिरानी का फार्मूला अब भी आपको परेशान कर ही रहा होता है. दोस्तों के बीच गलतफहमियों से पनपी दूरियों को सुलझाने का दृश्य पीके के उस दृश्य की याद दिलाता है, जहां जग्गू और सरफ़राज़ शामिल हैं. कहानी को लम्बे-चौड़े बयानों में बोल बोल कर बताने की कला आप 3 इडियट्स में देख ही चुके हैं. यहाँ तक कि गानों में सपनीली दुनिया की सैर करते किरदारों (3 इडियट्स का ज़ुबी-ज़ुबी) का प्रयोग यहाँ भी ख़ूब (रूबी-रूबी) इस्तेमाल होता है.

अभिनय में, संजू पूरी तरह रनबीर में ढली-रची-बसी फिल्म है. सोनम कपूर के साथ बाथरूम वाला दृश्य हो, या फिर परेश रावल के साथ इमोशनल सीन्स; रनबीर संजय दत्त की तरह सिर्फ चलने, बोलने या दिखने से परे लगते हैं. परदे पर उनके होते हुए कुछ और देखने-सुनने की चाह भी नहीं रहती, हालाँकि विक्की कौशल के साथ वाले दृश्यों में उन्हें साफ़ टक्कर मिलती है. विक्की यहाँ अपने पूरे रंग में हैं. रनबीर जैसे बेहतर अभिनेता के सामने होते हुए भी उनकी अदाकारी में एक छटांक को भी बिखराव नहीं दिखता. आखिर में, संजू एक ऐसी फिल्म हैं जिसके मुख्य किरदार से आप पहले से ही वाकिफ हैं, और उसके बारे में जितना जानते हैं उतना ही और जानना चाहते हैं. इस लिहाज़ से संजू आपको छोटे-बड़े ढेर सारे मजेदार किस्से सुना डालती है. अब आपको तय करना है, हिरानी के फार्मूले में कौन कितना फिट बैठ गया था, और कौन सा बैठाया गया था? बहरहाल, मीडिया को  एकतरफ़ा ठहराने की कोशिश में फिल्म गंभीरता की ओर जरूर बढती दिखती है, पर आप इसे सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के चश्मे से ही देखने की जेहमत उठाएं, तो बेहतर नतीजे मिलेंगे. [3.5/5]           

Friday 15 June 2018

लस्ट स्टोरीज़ (A): ‘लव’ से ज्यादा असल और अलग! [4/5]


प्यार की कहानियाँ सदियों से अनगिनत बार कही और सुनाई जाती रही हैं. वासना के हिस्से ऐसे मौके कम ही आये हैं. हालाँकि दोनों में फर्क बस सामाजिक बन्धनों और नैतिकता के सीमित दायरों का ही है. कितना आसान लगता है हमें, या फिर कुछ इस तरह के हालात बना दिए गये हैं हमारे लिए कि प्यार के नाम पर सब कुछ सही लगने लगता है, पाक-साफ़-पवित्र; और वासना का जिक्र आते ही सब का सब गलत, गंदा और अनैतिक. रिश्तों में वासना तो हम अक्सर अपनी सतही समझ से ढूंढ ही लेते हैं, वासना के धरातल पर पनपते कुछ अलग रिश्तों, कुछ अलग कहानियों को समझने-तलाशने की पहल नेटफ्लिक्स की फिल्म लस्ट स्टोरीज़ में दिखाई देती है, जो अपने आप में बेहद अनूठा प्रयास है. ख़ास कर तब, जब ऐसी कहानियों को परदे पर कहने का दारोमदार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के चार बड़े नामचीन फिल्मकारों (अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बैनर्जी, करण जौहर) के मजबूत और सक्षम कन्धों पर टिका हो.

चार छोटी-छोटी कहानियों से सजी लस्ट स्टोरीज़ अपने नाम की वजह से थोड़ी सनसनीखेज भले ही लगती हो, पर कहानी और किरदार के साथ अपनी संवेदनाओं और सिनेमा के लिए अपनी सशक्त जिम्मेदारियों में खुद को तनिक भी लचर या लाचार नहीं पड़ने देती. अनुराग की कहानी एक महिला प्रोफेसर के अपने ही एक स्टूडेंट के साथ जिस्मानी सम्बन्ध बनाने से शुरू होती है. कालिंदी (राधिका आप्टे) का डर, उसकी नर्वसनेस, तेजस (सैराट के आकाश ठोसर) पर जिस तरह वो अपना अधिकार जमाती है, सब कुछ एक सनक से भरा है. एक हिस्से में तो वो तेजस का बयान तक अपने मोबाइल में रिकॉर्ड करने लगती है, जिसमें तेजस सब कुछ आपसी सहमति से हुआ था की हामी भर रहा है. हालांकि अपने एक से ज्यादा रिश्तों में कालिंदी की तड़प उन दृश्यों में साफ़ होने लगती है, जिनमें वो कैमरे से रूबरू होकर कुछ बेहद अहम् सवाल पुरुषों की तरफ उछालती है. राधिका अपने किरदार के पागलपन में हद डूबी हुई दिखाई देती हैं, पर फिल्म कई बार दोहराव से भी जूझती नज़र आती है, अपने 35 मिनट के तय वक़्त में भी लम्बी होने का एहसास दे जाती है.

सुधा (भूमि पेडणेकर) अजीत (नील भूपलम) के साथ कुछ देर पहले तक बिस्तर में थी. अब फर्श पर पोछा लगा रही है. पोहे की प्लेट और चाय का कप अजीत को दे आई है. अब बर्तन कर रही है. बिस्तर ठीक करते हुए ही दरवाजा बंद होने की आवाज़ आती है. अजीत ऑफिस जा चुका है. सुधा उसी बिस्तर पर निढाल होकर गिर गयी है. जोया अख्तर की इस कहानी में ऊंच-नीच का दुराव बड़ी संजीदगी से पिरोया गया है. सुधा एक काम करने वाली नौकरानी से ज्यादा कुछ नहीं है, उसे भी पता है. अजीत के साथ शारीरिक सम्बन्धों के बावजूद, अपने ही सामने अजीत को लड़की वालों से मिलते-बतियाते देखते और उनके लिए चाय-नमकीन की तैयारी करते वक़्त भी उसे अपनी जगह मालूम है, फिर भी उसकी ख़ामोशी में उसके दबते-घुटते अरमानों और ख्वाहिशों की चीख आप बराबर सुन पाते हैं. भूमि को उनकी रंग-ओ-रंगत की वजह से भले ही आप इस भूमिका में सटीक मान बैठे हों, पर असली दम-ख़म उनकी जबरदस्त अदाकारी में है. गिनती के दो संवाद, पर पूरी फिल्म में क्या दमदार उपस्थिति. इस फिल्म में जोया का सिनेमा भी क्या खूब निखर कर सामने आता है. कैमरे के साथ उनके कुछ दिलचस्प प्रयोग मज़ा और दुगुना कर देते हैं.

दिबाकर बैनर्जी की कहानी एक बीचहाउस पर शाम होते ही गहराने लगती है. रीना (मनीषा कोईराला) साथ ही बिस्तर में है, जब सुधीर (जयदीप अहलावत) को सलमान (संजय कपूर) का फ़ोन आता है. सलमान को लगने लगा है कि उसकी बीवी रीना का कहीं किसी से अफेयर चल रहा है. शादी-शुदा होने का बोझ और बीवी होने से ज्यादा बच्चों की माँ बन कर रह जाने की कसक अब रीना की बर्दाश्त से बाहर है. सलमान को खुल कर सब सच-सच बता देने में ही सबकी भलाई है. वैसे भी तीनों कॉलेज के ज़माने से एक-दूसरे को जानते हैं. शादी से बाहर जाकर अवैध प्रेम-संबंधों और अपने पार्टनर से वफादारी के मुद्दे पर दिबाकर इन अधेड़ उम्र किरदारों के जरिये एक बेहद सुलझी हुई फिल्म पेश करते हैं, जहां एक-दूसरे की जरूरतों को बात-चीत के लहजे में समझने और समझ कर एक माकूल रास्ता तलाशने में सब के सब परिपक्व और समझदार बन कर सामने आते हैं. मनीषा और संजय को नब्बे के दशक में हम बहुत सारी मसाला फिल्मों में नॉन-एक्टर घोषित करते आये हैं, इस एक छोटी फिल्म में दोनों ही उन सारी फिल्मों में अपने किये-कराये पर मखमली चादर डाल देते हैं. जयदीप तो हैं ही बाकमाल.

आखिरी किश्त करण जौहर के हिस्से है, और शायद सबसे फ़िल्मी भी. कहानी पिछले साल की शुभ मंगल सावधान से बहुत अलग नहीं है. मेघा (कियारा आडवाणी) के लिए बिस्तर पर अपने पति पारस (विक्की कौशल) के साथ सुख के पल गिनती के ही रह जाते हैं (हर बार वो उँगलियों से गिनती रहती है), और उसके पति को कोई अंदाज़ा ही नहीं कि उसकी बीवी का सुख उसके सुख से अलग है, और कहीं ज्यादा है. मनचाही ख़ुशी के लिए बैटरी और रिमोट से चलने वाले खिलौने की दखल के साथ, करण कहानी को रोचक बनाने में ज्यादा उत्तेजित दिखते हैं, कुछ इस हद तक कि अपनी महान पारिवारिक फिल्म कभी ख़ुशी कभी गम के गाने का मज़ाक उड़ाने में भी झिझकते नहीं. विक्की कौशल मजेदार हैं.

आखिर में, लस्ट स्टोरीज़ 2013 में आई अनुराग, ज़ोया, दिबाकर और करण की बॉम्बे टॉकीज वाले प्रयोग की ही अगली कड़ी है. फिल्म इस बार बड़े परदे पर नहीं दिखेगी, और सिर्फ नेटफ्लिक्स पर ही मौजूद रहेगी, इसलिए अपनी सहूलियत से कभी भी और कहीं भी देखने का लुत्फ़ आप उठा सकते हैं. ज़ोया और दिबाकर की कहानियों के बेहतर होने के दावे के साथ ही, एक बात की ज़मानत तो दी ही जा सकती है कि हिंदी सिनेमा के आज में इस तरह की समर्थ, सक्षम और असामान्य कहानियां कहने की कोशिशें कम ही होती हैं, खुद इन चारों फिल्मकारों को भी आप शायद ही इन मुद्दों पर एक बड़ी फिल्म बनाते देख पायें, तब तक एक ही फिल्म में चारों अलग-अलग ज़ायकों का मज़ा लीजिये. लव से ज्यादा मिलेगा, कुछ नया मिलेगा. [4/5]

Friday 1 June 2018

भावेश जोशी सुपरहीरो : ‘मार्वल’ नहीं, ‘डीसी’ है. देसी है. [3/5]


दुनिया ख़तम नहीं हो रही है. धरती पर दूसरे ग्रहों के आड़े-टेढ़े दिखने वाले एलियंस का अटैक भी नहीं हो रहा. इसीलिये उड़ने, चिपकने, रंग बदलने और तरह-तरह की अजीब-ओ-ग़रीब शक्तियों का रंगीन तमाशा दिखाने वाले सुपरहीरोज़ की जरूरत भी नहीं है. ये भारत है, यहाँ भ्रष्टाचार ही सबसे बड़ा दानव है. सिस्टम का खोखलापन ही वक़्त-बेवक्त लाचार से दिखने वाले आम इंसान को कभी-कभी इतना झकझोर देता है कि उसके लिए किनारे पर खड़े रहकर सब कुछ चुपचाप होते देखते रहना मुश्किल हो जाता है. हिंदी सिनेमा में शहंशाह ही शायद इस तरह की आख़िरी फिल्म रही थी. कृश इस मामले में देसी होते हुए भी अपनी पहचान हॉलीवुड से ही उधार लेता है. विक्रमादित्य मोटवाने की भावेश जोशी सुपरहीरो इन दोनों के बीच अपना एक अलग रास्ता, अपनी एक अलग जगह तलाशती है, जहां सबकुछ हद दर्जे तक अपना है, ज़मीनी है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे आन्दोलन में जन लोकपाल बिल की मांग करते लाखों नौजवानों में भावेश जोशी (प्रियांशु पैन्यूली) और सिकंदर खन्ना (हर्षवर्धन कपूर) भी शामिल हैं. करप्शन इज़ शिट, एंड शिट स्टिंक्स जैसे नारों से बढ़कर जब खुद कुछ करने की बारी आती है, तो मुंह पर पेपर-बैग्स पहन कर सोसाइटी का इन्टरनेट ठीक करवाने, पेड़ कटने से बचाने और नो एंट्री में घुसती कारों को रोकने से ज्यादा न कुछ उनके बस का होता है, ना ही वो कोशिश ही करते हैं. यूट्यूब चैनल पर लाइक्स तो मिल रहे हैं, पर धीरे-धीरे दुनिया बदलने का जोश भी ठंडा पड़ता जा रहा है. सिकंदर कोडिंग की नौकरी के सिलसिले में विदेश जाने के लिए पासपोर्ट बनवा आया है, वो भी खुद रिश्वत दे कर. हालाँकि भावेश के लिए अभी भी सब कुछ ख़तम नहीं हुआ है. मुंबई में जड़ों तक पसरे पानी की तस्करी के मामले ने उसमें एक नयी आग फूँक दी है. भावेश जोशी सुपरहीरो किसी एक चेहरे की कहानी नहीं है, बल्कि इस लड़ाई में लगातार उठ खड़े होते एक जज़्बे का किस्सा है.

विक्रमादित्य मोटवाने अपने मुख्य किरदार से फिल्म की शुरुआत में ही साफ़-साफ़ बुलवा देते हैं कि फिल्म मार्वल नहीं, बल्कि डीसी वाले ज़ोन में अपने आपको ज्यादा सुरक्षित महसूस करती है. आमने-सामने के सीधे मुकाबलों में नायक उतनी ही देर टिक पाता है, जितनी देर उसकी कद-काठी का कोई भी आम इंसान लड़ सकता हो. गैजेट्स के नाम पर उसके पास सिर्फ हैंडीकैम, लैपटॉप और एक स्मार्टफ़ोन ही हैं. ज्यादातर लड़ाईयां स्थानीय मुद्दों पर लड़ी जाती हैं, और इंटरनेट पर ही निपट जाती हैं. ज़मीनी झड़पों में चोटों का खामियाज़ा हमेशा नायक को ही उठाना पड़ता है. तीखे आदर्शवाद और तेज़ आक्रोश के साथ भावेश का जुझारूपन, अपने इर्द-गिर्द चीजें न बदल पाने की खीज़ और बावजूद इन सबके हार न मानने की जिद मोटवाने जिस नितांत गहरे और घने तौर पर सामने रखते हैं, कुछ नया देखने का एहसास लगभग लगभग हर वक़्त बना ही रहता है. हालाँकि फिल्म के दूसरे हिस्से में बदलने का जोश बदले की आग में तब्दील जरूर हो जाता है, पर इमोशन्स कमोबेश वैसे ही बने रहते हैं. कुछ बहुत करीने से फिल्माए गये एक्शन दृश्यों में विश्वसनीयता का तड़का उन्हें और भी रोचक-रोमांचक बना देता है.

सिकंदर की भूमिका में औसत कद-काठी वाले हर्षवर्धन का चुनाव, जहां एक स्तर पर उनके किरदार से पूरी तरह मेल खाता है, भीड़ में खो जाने और सुपर हीरो बनने की सबसे कम संभावनाओं के तौर पर सटीक लगता है; वहीँ उस किरदार के ज़ज्बाती उतार-चढ़ाव के सफ़र में उनका कमतर अभिनय फिल्म को नुक्सान भी बहुत पहुंचाता है. कभी-कभी लगता है, काश राजकुमार राव जैसा कद्दावर अदाकार कुछ पलों के लिए आता और सब कुछ संभाल लेता. प्रियांशु पेन्यूली से कोई शिकायत नहीं रहती. फिल्म के पहले हिस्से की कामयाबी काफी हद तक उनके ही मज़बूत कन्धों पर टिकी होती है. दूसरे हिस्से में मोटवाने या तो एक्शन दृश्यों का सहारा लेते दिखाई देते हैं, या फिर तेरे चुम्मे में च्यवनप्राश है जैसे आइटम नंबर में व्यस्त हो जाते हैं.  

155 मिनट के लम्बे वक़्त में, भावेश जोशी सुपरहीरो कई बार लड़खड़ाती है, लंगड़ाती है, मगर अंत तक आते-आते फिल्म के नायक की तरह ही आत्मविश्वास से कुछ इस कदर लबरेज हो जाती है, मानो अंत नहीं, इसे एक नयी शुरुआत समझी जानी चाहिए. भावेश जोशी के परदे पर वापस लौटने की संभावनाओं को एक माकूल ज़मीन देने में तो जरूर फिल्म सफल हो जाती है, पर खुद में एक मुकम्मल फिल्म का दर्ज़ा हासिल करने कहीं न कहीं चूक जाती है. भावेश लौटे, तभी भावेश जोशी सुपर हीरो को उसकी तयशुदा मंजिल हासिल होगी! [3/5]