Friday 20 April 2018

बियॉन्ड द क्लाउड्स: मजीदी के सिनेमा पर बॉलीवुड के बादल! [2.5/5]

मुंबई के रेडलाइट इलाके की एक इमारत है. छोटे-छोटे कमरों से भरे गलियारे में जिस्मों के मोल-भाव चल रहे हैं. एक माँ अपने क्लाइंट के साथ कमरे में दाखिल होती है, एक छोटी बच्ची कमरे से निकल कर चुपचाप दीवार से लग कर खड़ी हो जाती है. उसे कुछ समझाने, बताने या कहने की अब जरूरत भी नहीं पड़ती. स्लमडॉग मिलियनेयर को आये 10 साल बीत चुके हैं, और सलाम बॉम्बे तो 30 साल पहले आई थी. मुंबई की इन बदनाम, तंग गलियों में तंगहाल जिंदगियों के हालात, हो सकता है अब भी बहुत ज्यादा न बदले हों, मगर जब माज़िद मजीदी जैसे वाहिद और काबिल फ़िल्मकार आज भी परदे पर अपनी कहानी कहने के लिए, उन्हीं मशहूर फिल्मों के उन्हीं चिर-परिचित दृश्यों की परिपाटी का सहारा लेते हैं, सवालों से कहीं ज्यादा बढ़कर मायूसी होती है. क्या मुंबई शहर की, शहर के इस सबसे निचले-गंदले हिस्से की पूरी समझ मजीदी साब को फिल्मों से ही उधार में मिली है? या फिर उनकी यह कोशिश महज़ किसी ख़ास बकेट-लिस्ट का एक पड़ाव भर है?

ईरानी फ़िल्मकार माज़िद मजीदी पारिवारिक रिश्तों में आत्मीयता खोजने के लिए सीधी-सरल और मासूमियत भरी कहानियों के लिए जाने जाते हैं. लापरवाही से छोटी बहन ज़ाहरा के जूते गंवाने के बाद, नए जूतों के लिए नयी-नयी तिकड़में लगाता अली तो याद ही होगा (चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन)? बियॉन्ड द क्लाउड्स भी ऐसे ही एक भाई-बहन की कहानी है. हालांकि मासूमियत तो छोडिये, उनके बीच के ज़ज्बात भी बहुत रह-रह कर, बुझे-बुझे ही आप तक पहुँचते हैं. आमिर (ईशान खट्टर) ड्रग्स के धंधे में है. तारा (मालविका मोहनन) धोबी घाट पर कपड़े इस्तरी करती है. एक रोज, तारा पर गन्दी नज़र रखने वाले अक्षी (गौतम घोष) पर तारा हमला कर देती है, और अब वो जेल में है, तब तक जब तक अक्षी ठीक होकर बयान देने की हालत में न आ जाए. एक बड़ा हाथ मारकर लाइफ राकेट करने की बेचैनी के बीच, अब आमिर अक्षी और उसके परिवार की देखरेख में फंसा है.

मुंबई में फ्लेमिंगो देखा है कभी? हर साल आते हैं कच्छ से उड़कर. बियॉन्ड द क्लाउड्स भी ईरान से उड़कर आया लगता है. हालाँकि मुंबई का लगने की जद्द-ओ-जहद में बनावटीपन कुछ ज्यादा ही  हावी हो जाता है. ईशान खट्टर का सांवलापन पहले फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक पहुँचते-पहुँचते किसी फेयरनेस क्रीम के शेडकार्ड जैसे नतीजे दिखाने लगता है. फिल्म में हर बदनसीब औरत किसी न किसी बेवड़े से परेशान होकर जिंदगी के इस तकलीफ़देह मुकाम तक पहुंची है. माँ-बाप का न होना बड़ी सहूलियत से कार-एक्सीडेंट के मत्थे चढ़ जाता है. और फिल्म में सबसे गैर-जिम्मेदाराना भागेदारी तो विशाल भारद्वाज के हिस्से आती है, जिन्होंने फिल्म के हिंदी संवाद लिखे हैं. उनकी किसी एक ट्रांसलेटर से ज्यादा की भूमिका कभी नज़र ही नहीं आती. विशाल की कलम से सिर्फ रूखे-सूखे शब्द ही निकलते हैं, उनमें किसी किस्म का कोई भाव, कोई ख़ास लहजा, किसी तरह का कोई जायका दिखाई ही नहीं देता. रहमान साब के बाद, अगर इस फिल्म में औसत काम के लिए किसी के पैसे कटने चाहिए तो विशाल भारद्वाज के.

मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है. मजीदी साब अपने सिनेमा की झलक जरूर दिखाते हैं, कई बार तो भड़ास के तौर पर भी. इसी कड़ी में, परछाईयों के साथ उनके प्रयोग एक-दो बार नहीं, फिल्म में बार-बार सामने आते हैं. आमिर की अक्षी के परिवार (एक बूढी माँ और दो नाबालिग़ बेटियों) के साथ के रिश्तों में वो ईमानदारी, वो मासूमियत, वो सहजता, वो गर्माहट पूरी कामयाबी से आपको छू जाती है, जिसके लिए मजीदी साब को आप हमेशा से चाहते आये हैं. मगर पूरी फिल्म में ऐसे मौके गिनती के हैं, बेहद कम हैं. ईशान और मालविका दोनों अपने-अपने अभिनय में घोर संभावनायें और मज़बूत करते हैं.   

बियॉन्ड द क्लाउड्स के आखिरी पलों में उम्रकैद झेल रही एक माँ का बच्चा चाँद देखने की जिद कर रहा है. जेल में ही पैदा और पला-बढ़ा होने की वजह से उसने कभी चाँद देखा ही नहीं है. माज़िद मजीदी का सिनेमा बस इक इसी पल में सांस लेता सुनाई देता है, बस एक इतने में ही पूरी फिल्म से ज्यादा मुकम्मल लगता है. बाकी के वक़्त तो आप बस एक हिंदी फिल्म देख रहे थे. मुंबई में बनी, मुंबई पे बनी, एक शुद्ध हिंदी (विशाल भारद्वाज की बदौलत) की फिल्म! [2.5/5]             

Friday 13 April 2018

अक्टूबर: एक उदास कविता और साल की सबसे अच्छी फिल्म! [5/5]

शिउली (बनिता संधू) कोमा में है. फिर से सब कुछ ठीक होने की उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही है. आईसीयू में उसके सामने खड़ा दानिश (वरुण धवन) बेपरवाह बोले जा रहा है, “कोई जल्दी नहीं. जिंदगी चलाने के लिए कुछ दिन मशीनों का सहारा ले लो. मेरी भी बाइक ख़राब हो जाती है, मैं धक्का देता हूँ न. वेंटीलेटर भी तो एक धक्का ही है. दानिश की इस उम्मीद का कोई सिरा नहीं है, वो जिस समन्दर में जिंदगी की सुनहली मछली ढूँढने उतरा है, उसकी तलहटी भी अपने आप में एक आसमान ही है. उदासी, खालीपन और अधूरेपन का आसमान. शिउली उसके साथ ही काम करती थी, मगर जान-पहचान बस नाम की. अब अगर कुछ उसे शिउली तक खींच लाया है तो सिर्फ एक सवाल, जो शिउली ने अपने साथ हुए हादसे से बिलकुल पहले पूछा था, डैन (दानिश) कहाँ है?”  

शूजित सरकार की अक्टूबर परदे पर एक ऐसी ज़ज्बाती कविता है, जिसमें बहे जाने का अपना ही एक अलग मज़ा है. एक ऐसी कविता जिसमें दो दिल तो हैं, पर जो प्रेम-कहानियों के पुराने धागों से बंधे होने या बंधने की परवाह बिलकुल नहीं करते. जिंदगी तब नहीं चल रही होती, जब आपको लगता है, चल रही है. जिंदगी चलना तब शुरू करती है, तब अचानक ही एक ठहराव आपके ठीक सामने आ जाता है. उदासी भी खूबसूरत हो सकती है, खालीपन भी आपसे घंटों बातें कर सकता है और किसी की आंखों की पुतलियों के दायें-बायें होने भर से आपका दिल भर जाये, अक्टूबर बड़ी संजीदगी, पूरे ठहराव और बहुत तबियत से ये कर दिखाती है.

दानिश दिल्ली के एक फाइव-स्टार होटल में स्टाफ के तौर पर अपना डिप्लोमा पूरा कर रहा है. बोलता बहुत है, जिद्दी है, लोगों से उलझता रहता है. जिंदगी चल रही है, मगर उसका कहीं कुछ नहीं चल रहा. आपकी मण्डली का वो दोस्त, जो बेवजह अस्पताल की रिसेप्शनिस्ट से डॉक्टरों का टाइम-टेबल पूछने लग जाये, अपनी जनरल नॉलेज के लिए. जूही चतुर्वेदी अपने अनूठे किरदारों की बारीकियों के लिए जानी जाती हैं, वो बारीकियां जो आम सिनेमा के लिहाज़ से जरूरी भले ना लगती हों, पर जिनका होना और जिनके होने को देख पाने की ललक और रोमांच एक चौकन्ने दर्शक के तौर पर हमेशा आपको आकर्षित करती है. मसलन, वो एक दृश्य जहां दानिश अस्पताल में पोछा लगते वक़्त, सबको पैर ऊपर करके बैठने की सलाह दे रहा है.

अक्टूबर जूही चतुर्वेदी के निडर लेखन, शूजित सरकार के काबिल निर्देशन और वरुण धवन के सहज, सरल और सजीव अभिनय का मिला-जुला इत्र है, जो फिल्म ख़तम होने के बाद तक आपको महकता रहेगा, महकाता रहेगा. बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ करने की दौड़ चल रही हो, और ऐसे आप सिनेमा के लिए अक्टूबर जैसा कुछ बेहद खुशबूदार, खूबसूरत और ख़ास लिख रहे हों, किसी बड़े मजे-मंजाये फिल्म-लेखक के लिए भी इतनी हिम्मत जुटाना हिंदी सिनेमा में आसान नहीं है. ऐसा होते हुए भी हमने कम ही देखा है. जूही चतुर्वेदी इस नक्षत्र का एकलौता ऐसा सितारा हैं. शूजित दिल्ली की गलियों का संकरापन पहले ही नाप चुके हैं, इस बार उनका कैनवस होटल और हॉस्पिटल तक ही सिमट कर रह गया है, फिर भी अविक मुखोपाध्याय के कमाल कैमरावर्क से वो हर फ्रेम में एक नया रंग ढूंढ ही लेते हैं.

वरुण को दानिश बनते देखना बेहद सुकून भरा है. यकीन मानिए, जुड़वा 2 की शिकायतें आपको याद भी नहीं आतीं. रंग बदलना, ढंग बदलना और अपने किरदार में तह तक उतरते चले जाना; ताज्जुब नहीं, वरुण अभिनय-प्रयोगों में अपने समकालीन अभिनेताओं से काफी आगे निकल गये हैं. बनिता प्रभावशाली हैं. फिल्म के सह-कलाकार भी उतने ही मज़बूत हैं, खास तौर पर शिउली की माँ की भूमिका में जानी-मानी एनिमेटर/फिल्ममेकर गीतांजली राव. हिंदी सिनेमा में धीर-गंभीर माओं की जगह घटती जा रही है, राव अच्छा विकल्प बन सकती हैं.

आखिर में, अक्टूबर आसान फिल्म नहीं है. मगर एक ऐसी मुकम्मल फिल्म, जो अपनी तरफ से एक नयी पहल करने, एक नया बदलाव रचने में कहीं कोई भूल नहीं करती. सिनेमा से आप बहुत कुछ उम्मीद करते हैं, अक्टूबर आपसे उम्मीद रखती है. फूलों के बगीचे में टहलना हो, तो अपने जॉगिंग वाले जूते बाहर उतार कर आईये. नंगे तलवों में ओस की ठंडक ज्यादा महसूस होती है. साल की सबसे अच्छी फिल्म! [5/5]

Friday 6 April 2018

ब्लैकमेल: ब्लैक कॉमेडी या ब्लैक ट्रेजेडी! [1.5/5]


“एक पति अपनी बीवी को सरप्राइज करने के लिए जल्दी घर पहुँच जाता है. बेडरूम में क्या देखता है कि उसकी पत्नी किसी और आदमी के साथ बिस्तर पे सो रही है. उसके बाद पता है, पति क्या करता है?”.... “पति उस आदमी को ब्लैकमेल करने लगता है”. अभिनय देव की ‘ब्लैकमेल’ में फिल्म का ये मजेदार प्लॉट गिन के तीन बार अलग-अलग मौकों पर सुनाया जाता है. फिल्म की शुरुआत में पहली बार जब नायक खुद इसे ज़ोक के तौर पर सुनाता है, उसके दोस्त को जानने में तनिक देर नहीं लगती कि वो अपनी ही बात कर रहा है. ‘ट्रेजेडी में कॉमेडी’ की एक अच्छी पहल, एक अच्छी उम्मीद यहाँ तक तो साफ दिखाई दे रही है, पर अंत तक आते-आते फिल्म का यही प्लॉट जब पूरी संजीदगी के साथ बयान के तौर पर पुलिस के सामने रखा जाता है, वर्दी वाला साहब बिफर पड़ता है, “क्या बी-ग्रेड फिल्म की कहानी सुना रहा है?” एक मुस्तैद दर्शक होने के नाते, आपका भी रुख और रवैय्या अब फिल्म को लेकर ऐसा ही कुछ बनने लगा है.

देव (इरफ़ान खान) की शादीशुदा जिंदगी परफेक्ट नहीं है. ऑफिस में देर रात तक रुक कर वक़्त काटता है, और फिर घर जाने से पहले किसी भी डेस्क से किसी भी लड़की की फोटो लेकर चुपचाप ऑफिस के बाथरूम में घुस जाता है. एक रात सरप्राइज देने के चक्कर में जब उसे पता चलता है कि उसकी बीवी रीना (कीर्ति कुल्हारी) का किसी अमीर आदमी रंजीत (अरुणोदय सिंह) से चक्कर चल रहा है, वो अपनी मुश्किलें मिटाने के लिए उसे ब्लैकमेल करने का प्लान बनाता है. आसान लगने वाला ये प्लान तब और पेचीदा हो जाता है, जब सब अपनी-अपनी जान बचाने और पैसों के लिए एक-दूसरे को ही ब्लैकमेल करने लगते हैं. पति प्रेमी को, प्रेमी पत्नी को, पत्नी पति को, पति के साथ काम करने वाली एक राजदार पति को, यहाँ तक कि एक डिटेक्टिव भी.        

ब्लैक कॉमेडी बता कर खुद को पेश करने वाली ‘ब्लैकमेल’ एक उबाऊ चक्करघिन्नी से कम नहीं लगती. कुछ ऐसे जैसे आपकी कार इंडिया गेट के गोल-गोल चक्कर काट रही है, और बाहर निकलने वाला सही ‘कट’ आपको मिल ही नहीं रहा. वरना जिस फिल्म में इरफ़ान खान जैसा समझदार, काबिल और खूबसूरत अदाकार फिल्म की हर कमी को अपने कंधे पर उठा कर दौड़ पूरी करने का माद्दा रखता हो, वहां अज़ब और अजीब किरदारों और कहानी में ढेर सारे बेवजह के घुमावदार मोड़ों की जरूरत ही क्या बचती है? ‘ब्लैकमेल’ एक चालाक फिल्म होने के बजाय, तिकड़मी होना ज्यादा पसंद करती है. इसीलिए टॉयलेट पेपर बनाने वाली कंपनी के मालिक के किरदार में ओमी वैद्य अपने वाहियात और उजड्ड प्रयोगों से आपको बोर करने के लिए बार-बार फिल्म की अच्छी-भली कहानी में सेंध लगाने आ जाते हैं. देव के दोस्त के किरदार में प्रद्युमन सिंह मल्ल तो इतनी झुंझलाहट पैदा करते हैं कि एक वक़्त के बाद उन्हें देखने तक का मन नहीं करता. यकीन ही नहीं होता, ‘तेरे बिन लादेन’ में इसी कलाकार ने कभी हँसते-हँसते लोटपोट भी किया था. शराब में डूबी दिव्या दत्ता और प्राइवेट डिटेक्टिव की भूमिका में गजराज राव थोड़े ठीक लगते हैं.

‘ब्लैकमेल’ अभिनय देव की अपनी ही फिल्म ‘डेल्ही बेली’ जैसा दिखने, लगने और बनने की कोशिश भर में ही दम तोड़ देती है. ब्लैक कॉमेडी के नाम पर एडल्ट लगना या एडल्ट लगने को ही ब्लैक कॉमेडी बना कर पेश करने में ‘ब्लैकमेल’ उलझी रहती है. देव अपनी पहचान छुपाने के लिए जब एक पेपर बैग का सहारा लेता है, ब्रांड एक लड़कियों के अंडरगारमेंट का है. नाकारा रंजीत जब भी अपने अमीर ससुर के सामने हाथ बांधे खड़ा होता है, डाइनिंग टेबल पर बैठी उसकी सास कभी संतरे छिल रही होती है, तो कभी अंडे. इशारा रंजीत के (?) की तरफ है. हालाँकि कुछेक दृश्य इनसे अलग और बेहतर भी हैं, जैसे फ्रिज में रखी लाश के सामने बैठ कर फ़ोन पर उसकी सलामती के बारे में बात करना, पर गिनती में बेहद कम.

आखिर में, अभिनय देव ‘ब्लैकमेल’ के जरिये एक ऐसी सुस्त और थकाऊ फिल्म सामने रखते हैं, जहां अतरंगी किरदारों को बेवजह फिल्म की सीधी-सपाट कहानी में शामिल किया जाता है, और फिर बड़ी सहूलियत से फिल्म से गंदगी की तरह उन्हें साफ़ करने के लिए एक के बाद एक खून-खराबे के जरिये हटा दिया जाता है. बेहतर होता, अगर फिल्म अपने मुख्य कलाकार इरफ़ान खान की अभिनय क्षमता पर ज्यादा भरोसा दिखा पाती! सैफ अली खान की भूमिका वाली ‘कालाकांडी’ अपनी कहानी में इससे कहीं बेहतर फिल्म कही जा सकती है, जबकि उसे भी यादगार फिल्म मान लेने की भूल कतई नहीं करनी चाहिए. [1.5/5]