Thursday 1 August 2019

बाबा (मराठी): मोहक, मार्मिक और मनोरंजक! [3.5/5]


‘पालने वाला बड़ा है, या पैदा करने वाला?’ सवाल द्वापर युग से चला आ रहा है, जब कृष्ण को लेकर यशोदा और देवकी दोनों अपने-अपने दावों पर मज़बूत खड़े दिखाई देते हैं. फिल्मों में भी इस तरह का भावनात्मक द्वन्द आज तक परदे पर आना कायम रहा है, शायद इसलिये क्यूंकि भारतीय पारिवारिक मनोरंजन का एक काफी बड़ा हिस्सा माँओं के साथ गहरा जुड़ाव महसूस करता है. मराठी की ही एक और बेहतरीन फिल्म ‘नाळ’ में दो माँओं को एक बच्चे के लिए तड़पते हमने पिछले साल ही देखा है. राज आर. गुप्ता की ‘बाबा थोड़ी अलग है. पालने और पैदा करने वाली माँओं के ज़ज्बाती उथल-पुथल भरे समन्दर के बीच, बड़ी निर्ममता से पिता के प्रेम और पुरुषार्थ को सवालिया कठघरे में खड़े करने वाली एक छोटी सी नाव डूबने के लिये छोड़ देती है. सवाल अब और पेचीदा हो गया है- ‘पालने वाला क्या बच्चे को, पैदा करने वाले से बेहतर भविष्य दे पायेगा?’. ख़ास कर तब, जब मामला आर्थिक दुर्बलता के साथ साथ शारीरिक विकलांगता का भी हो.

माधव (दीपक डोबरियाल) और आनंदी (नंदिता पाटकर) सुन-बोल नहीं सकते. आठ साल का शंकर (आर्यन मेघजी) 3 दिन का था, जब उन्होंने उसे अपनाया था. माधव-आनंदी को अंदाज़ा भी नहीं है कि उनके साथ रहते रहते शंकर भी कभी बोलना सीख नहीं पाया. कुछ रिश्तों को समझने, पनपने के लिए शब्दों की जरूरत नहीं पड़ती. माधव-आनंदी-शंकर के आपसी रिश्तों में शब्दों के लिए जगह ही नहीं है, न ही उसकी कोई कमी ही महसूस होती है. हाँ, एक त्रयम्बक (चितरंजन गिरि) ही उनका नज़दीकी है, जिसका शब्दों से लेना-देना है, वो भी थोड़ा-बहुत ही. त्रयम्बक हकलाता है. ऐसे में, एक दिन शंकर को जन्म देने वाली माँ पल्लवी (स्पृहा जोशी) अपने पति के साथ शंकर पर अपना खोया हुआ हक़ जमाने आ पहुँचती है. कोर्ट में माधव और आनंदी की परवरिश पर उंगलियाँ उठाईं जा रही हैं. शंकर का भविष्य दांव पर है. अगली सुनवाई में अभी 22 दिन बाकी हैं, और अगर इस बीच माधव शंकर को बोलना सीखा देता है तो शंकर पर उसके दावेदारी की कुछ उम्मीद बन सकती है.

‘बाबा पिताओं के लगातार संघर्ष की कहानी है. वो पिता, जो अपने बच्चे की भलाई के लिए दिन-रात लगा रहे और माथे पर शिकन भी न आने दे. दीपक डोबरियाल के सजीव अभिनय में माधव फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष बनकर उभरता है. माधव को तमाम नाउम्मीदी और कठिनाइयों के बीच भी आप कभी रोते हुए नहीं पायेंगे, हालाँकि उसका गुस्सा, उसकी खीझ जरूर आपको बीच बीच में कोंचती रहेगी- कभी भगवान की मूर्ति के आगे सवाल करते हुए, तो कभी जज साब के फैसले से नाराजगी जताते हुए. रेडियो खरीदने से लेकर रोज़ाना 50 रूपये में रटंत तोते वाले को घर पर रखने और गाँव की दुकान पर लड़की के मेकअप में पुतला बनकर दिन भर खड़ा रहने तक, माधव शंकर को बोलना सिखाने के लिए जान लगा देता है, और उस माधव को परदे पर जिंदा करने के लिए दीपक अभिनय में अपनी. दीपक अब तक की फिल्मों में अपने ‘वन-लाइनर्स’ के साथ आपको गुदगुदाते रहे हैं, ‘बाबा उनके लिए और उनके चाहने वालों के लिए आसान किरदार नहीं है. बहुत मुमकिन है कि इसके बाद आप दीपक को इसी रूप में देखने की चाह रखने लगें.

नंदिता पाटकर अपनी अदाकारी में हर वो तेवर इस्तेमाल करती हैं, जिसकी कमी आपको दीपक के अभिनय में दिखती है. आनंदी माधव की तरह अपने आपको बाँध के नहीं रखती. उसके ज़ज्बात ज्यादा मुखर होके उभरते हैं, शायद इसीलिए उसके साथ जुड़ना आसान लगता है. आर्यन की कास्टिंग फिल्म के लिए वरदान की तरह है. आर्यन की मासूमियत और शरारतें कहीं से भी बनावटी या अभ्यास की हुई नहीं लगतीं. कोर्ट के एक दृश्य में वो उबासियाँ ले रहा है. सिग्नल न मिलने के कारण पूरे दिन में उसने रेडियो से सिर्फ खरखराहट की आवाज़ ही सीखी है. उसी की नक़ल उतार रहा है. हाँ, स्पृहा और अभिजीत का चुनाव फिल्म के खराब पहलुओं में जरूर शामिल है. दोनों के अभिनय बेहद नपे-तुले और औसत दर्जे के नज़र आते हैं, तब जबकि दीपक और नंदिता दूसरी तरफ बिलकुल सहज हों. उनके फ्रेम में आते ही फिल्म अपनी नैसर्गिक ख़ूबसूरती से हटकर बनावटी साज़-सजावट वाली दुनिया में चली जाती है. सरकारी वकील की भूमिका में जयंत गडेकर हंसाने-गुदगुदाने में कामयाब रहते हैं. गिरि बेहतरीन है.

पहली ही फिल्म होने के बावज़ूद, ‘बाबा में राज आर गुप्ता अपनी पकड़ कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़ने देते. फिल्म में ऐसे दृश्यों की भरमार है, जहां फिल्म में वक़्त और जगह को कैद करने में छोटी-छोटी डीटेल्स का पूरा ध्यान रखा गया है. फिल्म 90 के दशक में है. घर में डालडा घी का डब्बा पड़ा है. पुलिस स्टेशन में पुराने प्रधानमंत्री वीपी सिंह का फोटो हटाकर नए प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की तस्वीर लगाई जा रही है. एक अन्य बेहद प्रशंसनीय दृश्य में रेडियो पर उन्हीं का भाषण चल रहा है, जब कुछ बच्चे रेडियो चुराकर भाग रहे हैं. शंकर अपने पिता के साथ लौट रहा है- चार्ली चैपलिन की फिल्म ‘द किड देख कर. ‘बाबा की कहानी ‘द किड के कथानक से मेल खाती है. फिल्म में गानों का इस्तेमाल में बेहद कंजूसी और जरूरत के हिसाब से ही है. हालाँकि फिल्म अपने कुछ हिस्सों में बहुत धीमी पड़ने लगती है, लम्बी लगने लगती है, कुछ में बार-बार अपने आप को दोहराती भी है. सवालों की एक खेप भी खड़ी होती है, जैसे शंकर स्कूल क्यूँ नहीं जाता? पर ज़ज्बातों के बहाव में सब पीछे छूट जाते हैं.  

आखिर में, ‘बाबा’ मराठी फिल्मों के उस प्रयोग का हिस्सा है, जहां सीधी-साधी दिल छू लेने वाली कहानी के साथ-साथ आपको क्वालिटी सिनेमा का पुट भी ख़ूब मिलता है. चाहे वो खूबसूरत सिनेमेटोग्राफी से हो, या फिर दमदार अभिनय से. वैसे तो ‘बाबा सिर्फ और सिर्फ दीपक डोबरियाल को खुले दिल से सराहे जाने के लिए भी देखी जा सकती है, पर आप देखिये क्यूंकि कुछ कहानियाँ ज़ज्बाती तौर पर आपको द्रवित करने में कभी पुरानी नहीं होतीं. [3.5/5]              

Friday 26 July 2019

जजमेंटल है क्या: कुछ नया, कुछ रोमांचक...और थोड़ी सी कसर! [3/5]

आम जिंदगी की बात करें, तो किसी को भी बात-बात पर हंसी-मज़ाक में ‘पागल करार देने और वास्तव में किसी गंभीर मनोरोग से जूझते व्यक्ति को ‘मेंटल कह कर संबोधित करने में हम किसी तरह का कोई फ़र्क या अपराध-बोध महसूस भी नहीं करते. इसका काफी दारोमदार हमारी फिल्मों के सर भी जाना चाहिए. दिमाग़ी रूप से असंतुलित व्यक्ति को ‘दुनिया तबाह करने पर तुला हुआ खलनायक साबित करने के सिवा हमारी समझ कुछ और देखना या दिखाना ही नहीं चाहती. ‘जजमेंटल है क्या इस लकीर से बंध कर नहीं रहती, और अपने दायरे बढ़ाने की हर मुमकिन कोशिश करती है.

फिल्म की मुख्य किरदार एक्यूट सायकोसिस नाम के मनोरोग से ग्रस्त है, पूरी फिल्म में उसकी मन:स्थिति सत्य और भ्रम के झूले में हिचकोले खाती रहती है. उसे दिन के उजाले में वो लोग भी दिखाई और सुनाई देते हैं, जो असल में हैं ही नहीं और सिर्फ और सिर्फ उसके दिमाग का खलल हैं. 80 और 90 के दशक की दर्जनों फिल्मों में ‘पागलखाना खलनायक द्वारा नायक को रास्ते से हटाने के लिए महज़ एक जरिया बना कर दर्शाया जाता रहा है. सलाखों के पीछे ऊल-जलूल बकते और अतरंगी हरकतें करते लोगों को देखकर आप बस हंस ही सकते थे, या फिर इस इंतज़ार में रहते थे कि कब नायक वहाँ से भगे और देश को खलनायक के घातक इरादों से बचाये.  

बॉबी (कंगना रानौत) सलाखों के पीछे नहीं रहती. वो मुंबई के एक इलाके में आपकी अजीब-ओ-गरीब पड़ोसी हो सकती है. अकेले रहती है. फिल्मों में डबिंग आर्टिस्ट का काम करती है. पूरी फिल्म में दवाइयां खाती है, और जब नहीं खाती, उसे कॉकरोच दिखने लगते हैं- मतलब हालत बिगड़ रही है. बचपन में माँ-बाप के बीच रोज़ाना के झगड़े के दौरान उनकी दुर्घटनावश मौत की ज़िम्मेदार ठहरा दिए जाने के बाद, अब बॉबी के ज़ेहन में वही किरदार लुका-छिपी खेलते रहते हैं, जिनको बॉबी परदे पर अपनी आवाज़ दे रही होती है. ऐसे में, एक दिन किरायेदार बन कर आते हैं केशव (राजकुमार राव) और उसकी पत्नी रीमा (अमायरा दस्तूर). शुरू-शुरू में तो बॉबी का झुकाव केशव की तरफ होने लगता है, पर बाद में उसे लगने लगता है कि केशव अपनी बीवी को मारना चाहता है. एक दिन रीमा का क़त्ल हो भी जाता है, लेकिन बॉबी केशव को क़ातिल साबित नहीं कर पाती, उलटे अपने मनोरोग की वजह से खुद शक के घेरे में आ जाती है.

‘जजमेंटल है क्या अपने टीज़र-ट्रेलर और पोस्टर्स से एक ऐसी थ्रिलर फिल्म होने का अनुमान पैदा करती है, जहां एक क़त्ल के दो आरोपी हैं और आरोप-प्रत्यारोप में दोनों की अपनी-अपनी दलीलें, जो केस का रुख बार-बार एक-दूसरे की तरफ मोड़ती रहती हैं. फिल्म में इस तरह का रोमांच बस कुछ पलों के लिए ही बना रहता है, बाक़ी के वक़्त में फिल्म कंगना के किरदार की अतरंगी खामियों और कमियों को हास्यास्पद बना कर पेश करने में, या फिर कंगना की मनोदशा को प्रभावित करते मनगढ़ंत किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. फिल्म कुल मिलाकर जिन दो निष्कर्षों पर अपने होने की ज़मीन तय करती है- एक, ‘सीता-हरण रावण की चाल न होकर, सीता की सोची-समझी रणनीति भी तो हो सकती है’ और दूसरा- मनोरोग से ग्रस्त लोगों को समझने की ज़रूरत; दोनों फिल्म में उस दम आते हैं, जब तक दर्शक और लेखक-निर्देशक अंत का मुंह ताकते-ताकते थक चुके हैं.

बॉबी कॉकरोच के एक ख़ास तस्वीर पर जाकर बैठ जाने को क़त्ल के सबूत के तौर पर पुलिस के सामने पेश कर रही है, और दर्शक उसकी मानसिक अवस्था पर सहानुभूति दिखाने के बजाय हंस रहे हैं. लेखक-निर्देशक मौन हैं, क्यूंकि सारा ज्ञान अंत के लिए बचा के रखा है. और अंत भी इतना जाना-पहचाना कि जो बिलकुल मखमल में टाट के पैबंद की तरह खटकता हो. कनिका ढिल्लों की कहानी और स्क्रीनप्ले में एक महिला मनोरोगी को मुख्य किरदार बनाने की हिम्मत तो दिखा लेती है, पर जब उस किरदार के साथ दर्शकों का जुड़ाव बनाये रखने की बारी आती है तो थ्रिलर के नाम हथकंडे आजमाने लगती हैं. हालाँकि संवादों में धारदार हास्य और तेवर की कमी नहीं होती.      

‘जजमेंटल है क्या में नयेपन की झलक ख़ूब है, आखिर तक बांधे रखने वाला रोमांच भी है, गुदगुदाने वाला मनोरंजन भी. मगर फिल्म जहां दो ऐसे मज़बूत लोगों को, जो एक-दूसरे को अपनी-अपनी मनोस्थितियों से बार-बार चकमा देते हैं, आमने-सामने खड़ा करके और रोचक बना सकती थी, सिर्फ एक किरदार (बॉबी) के प्रचलित हाव-भाव और तीखे तेवरों पर अपना पूरा भरोसा झोंक देती है. कंगना ऐसी भूमिकाओं में आम सी हो गयी हैं, ख़ास कर जबकि असल जिंदगी में भी उनका व्यक्तित्व कुछ इसी खांचे-ढाँचे का नज़र आता है- बेबाक, मुंहफट, तेज़ तर्रार. हालाँकि बॉबी के किरदार में वो पूरी तरह फिट हैं, उनसे कोई शिकायत नहीं रहती, फिर भी बार-बार ख्याल उठता है कि आखिर इस किरदार में राधिका आप्टे क्यूँ नहीं हैं? राजकुमार राव उन दृश्यों में खासा कमाल हैं, जिनमें वो अपने किरदार का बना-बनाया भ्रम तोड़ते हुए दिखते हैं.

आखिर में; ‘जजमेंटल है क्या श्रीराम राघवन की रंगीन आपराधिक दुनिया में ही पली बढ़ी नज़र आती है. कुछ उसी तरीके का रोमांच, कुछ उसी मिट्टी के बने किरदार, पुराने हिंदी फ़िल्मी गानों का इस्तेमाल; लेकिन इन सबके बाद भी फिल्म एक स्तर के बाद न सिर्फ ऊपर उठने से इनकार कर देती है, बल्कि आखिर तक आते-आते अपनी बनी-बनायी साख को भी नीचे लुढ़कने से बचा नहीं पाती. एक अच्छी प्रयोगधर्मी फिल्म को मुख्यधारा में मिलने की कीमत चुकानी पड़ जाती है. फिर भी, फिल्म में बहुत कुछ है, जो नया है. [3/5]

Friday 12 July 2019

सुपर 30: हृतिक की मेहनत को ‘जीरो’ करता फिल्मी फ़ार्मूला [2/5]


दिहाड़ी में 3 रूपये रोज बढ़ाने की मांग करने वाली दलित लड़कियों की बलात्कार के बाद हत्या होते हम पिछले हफ्ते ही ‘आर्टिकल 15’ में देख चुके हैं. जातिगत भेदभाव के बाद, इस हफ्ते बॉलीवुड के निशाने पर है शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक रूप से पिछड़े होनहार छात्रों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी. ऊंची जात और नीची जात के बीच की खाई से कम गहरा नहीं है अमीर और गरीब के बीच का फ़र्क. दोनों फ़िल्में अपना कथानक अखबारों की सुर्खियों और असल ज़िंदगी की घटनाओं से उधार लेती हैं, पर एक बड़ा अंतर जो इन दोनों को लकीर के बिलकुल आर-पार, आमने-सामने खड़ा कर देता है, वो है फ़िल्म बनाते वक़्त कहानी और उसके कहे जाने के पीछे के मकसद के साथ बरती जाने वाली ईमानदारी. ‘आर्टिकल 15’ कहानी में कोई एक नायक खोजने या बनाने के फ़िज़ूल चक्करों में नहीं फंसती, जबकि ‘सुपर 30 एक ख़ालिस दमदार नायक होने के बावज़ूद, कहानी में नायक गढ़ने के लिए जबरदस्ती के ताने-बाने बुनने में अपनी सारी अक्ल खर्च कर देती है. ये कुछ उतना ही बड़ा जुर्म है, जैसा राजकुमार हिरानी ‘संजू बनाते वक़्त कर बैठते हैं. ‘सुपर 30 में ड्रामा है, एक्शन है, इमोशन है, गीत-संगीत भरपूर है, पर सब का सब बड़ी सफाई और सहूलियत से कहानी में ठूंसा हुआ. ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में हृतिक का किरदार अपनी गर्लफ्रेंड के चेहरे को ख़ूबसूरती के गणितीय-सूत्र से मापता फिरता है.


आर्थिक स्तर पर तंगी से जूझता आनंद कुमार (हृतिक रोशन) अप्रत्याशित तौर से मेधावी है. पैसों की कमी ने न सिर्फ कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जाने का सपना उससे छीन लिया है, उसके पिता (वीरेंद्र सक्सेना) भी नहीं रहे. शिक्षा-माफिया लल्लन सिंह (आदित्य श्रीवास्तव) को आनंद साइकिल पर पापड़ बेचता हुआ मिलता है. अब आनंद लल्लन सिंह के कोचिंग इंस्टिट्यूट का ‘प्रीमियम टीचर है. पैसों ने उसका हाल बदल दिया है, उसकी चाल बदल दी है. जिदंगी के साइकिल की चेन उतर गयी थी, मगर वापस चढ़ने में बहुत देर नहीं लगती. गुरु द्रोणाचार्य को राजाओं के बेटों को राजा बनाने से बेहतर लगने लगा है, प्रतिभा से धनी-साधनों से हीन एकलव्यों को उनकी शिक्षा का हक़ देना/दिलाना.         

बिहार के मशहूर गणितज्ञ आनंद कुमार और उनके मेधावी छात्रों पर बनी ‘सुपर 30 के साथ सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि फिल्म जिस मुद्दे के खिलाफ़ पूरे जोश से नारे लगाती है, उसी चक्रव्यूह में खुद अन्दर तक फंसी नज़र आती है. ‘राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, राजा वही बनेगा जो हक़दार होगा का परचम बुलंद करते हुए परदे पर ‘ग्रीक गॉड’ कहे जाने वाले हृतिक रोशन आनंद कुमार कम, ब्रांडेड फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन में अपनी रंगत के लिए लगातार शर्मिंदगी झेलने वाले संभावित ग्राहक ज्यादा दिखते हैं. एक दृश्य में एक अमीर छात्र पूछ लेता है, ‘सर, मैं अमीर हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती है?’. जवाब देने के लिये, सामने फिर हृतिक ही खड़े मिलते हैं, फिल्म में अपने आप के ही अस्तित्व को खारिज़ करते हुए. हालाँकि फिल्म में उनका अभिनय आप पर चढ़ते-चढ़ते चढ़ ही जाता है, पर कहीं न कहीं उसके पीछे हृतिक के अभिनय कौशल से ज्यादा उनकी जी-तोड़ मेहनत और साफ़ नीयत हावी रहती है.

आनंद कुमार हर साल 30 गरीब छात्रों को आई.आई.टी. जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों की प्रवेश-परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं. उनके रहने-खाने से लेकर पढ़ाई की दूसरी जरूरतों तक, सब मुफ़्त में मुहैय्या कराते हैं, और अपने आम से दिखने वाले व्यक्तित्व और अध्यापन में अपनी ख़ास ठेठ शैली के लिए सराहे जाते हैं. गणित के भारी-भरकम सूत्रों को असल जिंदगी के आसान उदाहरणों से जोड़ कर पढ़ाई को मनोरंजक बनाने की उनकी पहल फिल्म में दिखती तो है, पर उसका अंत कुछ इस नाटकीयता तक पहुँच जाता है, जो आपको सच्चाई से कोसों परे लगती है और आप धीरे-धीरे फिल्म से कटने लगते हैं. बच्चे हथियारबंद गुंडों का मुकाबला कर रहे हैं, गणित के सूत्रों का इस्तेमाल करके. इस मुकाम पर आकर ‘गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर और ‘चिल्लर पार्टी एक ही फ्रेम का हिस्सा हो जाते हैं. अंग्रेजी से डरकर भागने वाले बच्चे बीच चौराहे पर टूटी-फूटी अंग्रेजी में गीत गा रहे हैं, ‘बसंती! डोंट डांस’, और देखते ही देखते पूरी की पूरी भीड़ उनके साथ उन्हीं के राग में रम जाती है. फिल्म के लेखक-निर्देशक अब अपना दिमाग़ चलाने लगे हैं. उन्हें शायद आनंद कुमार की शख्सियत और उनकी कहानी में दम दिखना बंद हो चुका है.

‘सुपर 30 का सबसे तगड़ा पहलू है, गरीब बच्चे-बच्चियों के किरदार में अभिनेताओं का सटीक चयन. फिल्म में जितने भी पल आपको द्रवित कर पाते हैं (गिनती के ही सही, पर यकीनन फिल्म में ऐसे दृश्य हैं), सब के सब इन्हीं बच्चों के हिस्से. आदित्य श्रीवास्तव और वीरेंद्र सक्सेना की सहज अदाकारी ही है, जो फिल्म के बैकड्राप में बिहार को स्थापित कर पाती है वरना तो पंकज त्रिपाठी भी कुछ नया पेश करने की कोशिश में असफल ही नज़र आते हैं. दो ख़ास दृश्यों में साधना सिंह और मृणाल ठाकुर बेहतरीन हैं. एक दृश्य में साधना जी अपने आप को ‘हॉट’ कह कर शर्माती हैं, दूसरे में मृणाल ‘मर्दों में मेरी चॉइस हमेशा अच्छी रहती है कहकर मानव गोहिल को गुदगुदाती हैं.

आखिर में; ‘सुपर 30 आनंद कुमार को सुपर-नायक बनाने की कोशिशों में गरीब बच्चों को लेकर उनके ईमानदार प्रयासों और प्रयोगों को कमतर आंकने की भूल कर बैठती है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की कहानी में फ़ार्मूला ढूँढने की भूख ने एक और फिल्म को बेहतर होने से काफी पहले रोक लिया है. आनंद कुमार को जानने-सराहने के लिए उनके साथ एक घंटे का इंटरव्यू ही ज्यादा माकूल होता. [2/5]     


Friday 28 June 2019

आर्टिकल 15: नये भारत का एक काला सच! [4/5]


भारतीय समाज का 2000 साल पुराना ढांचा अब गहरा दलदल बन चुका है. जात-पात की गंदगी से भरा एक ऐसा बजबजाता दलदल, जिसे ‘सामाजिक संतुलन का नाम देकर सबने अपने-अपने नाक पर रुमाल रख ली है. सबको अपनी-अपनी जात की ‘औकात मालूम है, और जिसे नहीं मालूम उसे भी उसकी जात और औकात याद दिला दी जाएगी, इस पहल में भी कोई पीछे नहीं रहना चाहता. अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15 एक ऐसे भारत की बदरंग तस्वीर है, जहां लोग जातियों को तमगे की तरह सीने पे लटकाये फिरते हैं. एक ऐसा भारत, जहां संविधान भी उतना ही अछूत है, जितना उसके निर्माताओं में से एक बाबा भीमराव अम्बेडकर को मानने वाले लोग. बाभन, ठाकुर, कायस्थ, चमार; सब के सब एक-दूसरे के ऊपर प्याज के छिलकों की तरह चढ़े हुए हैं, और जो जितना नीचे है, उतना ही दबा हुआ, उतना ही शोषित.

उत्तर प्रदेश के लालगांव में नए अफसर आये हैं. अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) को चेताया जा रहा है कि वो रस्ते में पड़ने वाले एक ख़ास गाँव से पानी की बोतल न खरीदें क्योंकि वो गाँव छोटी जाति के लोगों का है. उसी शाम को उन्हीं के स्वागत-समारोह में उनके नीचे काम करने वाले जाटव (कुमुद मिश्रा) ने उनके आगे से अपने खाने की प्लेट झट से खींच ली, ताकि साहब उसकी प्लेट से कुछ खाने का पाप न कर बैठें. जाहिर है, अयान बाहरी है. उसे इस व्यवस्था का ओर-छोर नहीं पता; और जब पता चलता है, तो झल्लाहट के अलावा उसके पास और कोई चारा बचता नहीं. पास के गाँव से 3 दलित लड़कियां गायब हैं. उनमें से दो की लाश पेड़ से लटकती हुई मिली है. तीसरी लड़की का अब भी कुछ अता-पता नहीं. अपराध के पीछे ऊँची जाति के कुछ दबंगों का हाथ है. अयान को न्याय और कानून की परवाह है, जबकि उसके नीचे काम करने वाले ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) को अयान की. हाथ जोड़ कर गुहार कर रहा है कि वो इस दलदल से दूर रहे, मगर किसी को तो सफाई के लिए इस गंदगी में उतरना होगा.

बदायूं में दो बहनों से गैंगरेप और हत्या की सच्ची घटना को अपनी कहानी का आधार बनाकर और ऊना में दलित लड़कों की सरेआम पिटाई जैसे न भुलाये जाने वाले दृश्यों को परदे पर एक बार फिर जीवंत करके, अनुभव ‘आर्टिकल 15 को हकीकत के इतना करीब ले आते हैं कि जैसे इन मुरझाती ख़बरों को एक नई सशक्त आवाज़ मिल गयी हो. जहां अनुभव की पिछली फिल्म ‘मुल्क मुसलमानों को एक ख़ास नज़र से देखने के हमारे रवैये को बड़ी ईमानदारी और मजबूती से कटघरे में खड़ा करती है, ‘आर्टिकल 15 दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों को दस्तावेज बनाकर भारतीय समाज के दकियानूसी जात-पात व्यवस्था पर एक ठोस प्रहार करती है. अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी अपनी कहानी की मिट्टी, उसकी बनावट, उसका खुरदुरापन, उसके तेवर, उसकी तबियत, उसकी रंगत, सब भली-भांति जानते-पहचानते हैं. ‘आर्टिकल 15 की दुनिया दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से बहुत दूर नहीं है. परदे पर कहानी उत्तर प्रदेश की भले ही हो, उसे देखते वक़्त पूरा भारत नज़र के सामने घूम जाता है- कभी किसी अखबार की खबर बनकर तो कभी किसी समाचार चैनल में बहस का मुद्दा बनकर. प्रतीकों को माध्यम बनाकर बात कहने में फिल्म ख़ासी समझदारी दिखाती है, और पूरी बारीक़ी के साथ. लालगांव में कुछ भी सही नहीं है. ऑफिस का पंखा आवाज़ करता है. शिकायत के बाद, ठीक कराने के आश्वासन के बाद भी कुछ बदलता नहीं. सीवर का पानी बिगड़ते हालातों के साथ जैसे जुड़ा हुआ है, ज़मीन से ऊपर आ कर बहने लगा है. कहानी के मूल का विषय जातिगत भेदभाव होते हुए भी, फिल्म किसी एक विशेष जाति को निशाना नहीं बनाती; बल्कि पूरी जाति व्यवस्था को सवालों के घेरे के खड़ी करती है.

फिल्म हाशिये पर धकेल दिए गये दलितों के अधिकारों और उनके खिलाफ़ हो रहे अपराधों के बारे में बात तो करती है, मगर एक पल के लिए भी उपदेशक बनने की भूल नहीं करती. एक अपराध-फिल्म होने के तौर पर भी, ‘आर्टिकल 15 अपने कसे हुए निर्देशन, सधे हुए लेखन और बेहतरीन कैमरावर्क के साथ पूरे नंबर कमाती है. धुंध से छन कर आते दृश्य हों या रात की कालिख में डूबे हुए दृश्य; रोमांच आपको हर वक़्त उत्साहित रखता है. फिल्म के संवाद किरदारों की खाल बन जाते हैं. ब्रह्मदत्त नीची जात की डॉक्टर पर तंज कसते हुए कोटा और पब्लिक टैक्स की बात करता है. एक दृश्य में सब के सब चुनावों में अपने अपने राजनीतिक रुझानों के बारे में बात कर रहे हैं- राजनीतिक दलों के साथ उनके बनते-बिगड़ते भरोसों को लेकर एक ऐसी खांटी बातचीत, जो अक्सर चाय की दुकानों का हिस्सा होती हैं.

अभिनय में, कुमुद मिश्रा और मनोज पाहवा एक-दूसरे के पूरक माने जा सकते हैं. दोनों एक ऐसी जोड़ी के तौर पर उभर कर आते हैं, जिन्हें एक पूरी की पूरी अलग फिल्म बक्श दी जानी चाहिए. आयुष्मान उतनी ही सहजता से अपने किरदार में उतरते हैं, जितनी आसानी से उनका किरदार फिल्म में गंदे दलदल में बेख़ौफ़ उतरता चला जाता है. सबसे धीर-गंभीर और सटीक पुलिस अधिकारी की भूमिका वाली लिस्ट में ‘मनोरमा सिक्स फ़ीट अंडर वाले अभय देओल के बाद शायद आयुष्मान ही आते हैं. भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से प्रेरित किरदार में मोहम्मद जीशान अय्यूब बेहतरीन हैं. सयानी गुप्ता काबिल हैं, कामयाब हैं. ईशा तलवार भी निराश नहीं करतीं.

आखिर में, ‘आर्टिकल 15 एक बेहद जरूरी फिल्म है. अयान एक दृश्य में बोल पड़ता है, ‘बहुत mess है, unmess करना पड़ेगा.’ उसकी महिला-मित्र उसे ठीक करते हुए कहती है,unmess जैसा कोई शब्द होता भी है?”. अयान का जवाब ही फिल्म के होने की वजह बन जाता है. ‘नहीं, पर नए शब्द तलाशने होंगे, नए तरीके खोजने होंगे.’’ फिल्म के एक दृश्य में एक सफाईकर्मी सीवर के काले गंदे कीचड़ से निकल कर स्लो-मोशन में बाहर आता है. बड़ी-बड़ी फिल्मों में आपने नायकों को महिमामंडित करने वाले तमाम दृश्यों पर तालियाँ-सीटियाँ बजाई होंगी, इस एक दृश्य से बेहतर और रोमांचक मैंने हाल-फिलहाल कुछ नहीं देखा. नए भारत का एक सच ये भी है, थोड़ा काला-थोड़ा भयावह, पर सच तो सच है! [4/5]                                

Thursday 6 June 2019

भारत: भाई की ‘ईदी’ और सिनेमा के ‘घाव’ (2/5)

परदे पर नायक की इमेज़ को भुनाना या दोहराना हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए कोई नयी बात नहीं. दिलीप कुमार ‘ट्रेजेडी किंग, मीना कुमारी ‘ट्रेजेडी क्वीन या अमिताभ बच्चन ‘एंग्री यंग मैन’ यूं ही नहीं बन जाते. सलमान खान इस मामले में इन सब से कई कदम आगे निकल चुके हैं. रोमांटिक हीरो (हम आपके हैं कौन, हम दिल दे चुके सनम) से मनोरंजक एक्शन स्टार (वांटेड, दबंग) के बाद, अपने सफ़र के अगले पड़ाव में सलमान अब अपनी बेपरवाह ‘दिल में आता हूँ, समझ में नहीं वाले तेवर से निकलने की छटपटाहट ख़ूब दिखा रहे हैं. उनकी फिल्मों का नायक अब वो शख्स नहीं रहा, सलमान के चाहने वाले जिसे असल जिंदगी के सलमान से जोड़ कर देख लेते थे. आज के परदे का सलमान अपने आपको एक ऐसे नए चोगे में पेश करना चाहता है, जिसकी स्वीकार्यता महज़ टिक-टॉक वाली पीढ़ी तक सीमित न हो, बल्कि बड़े स्तर पर हो, देश स्तर पर हो. अली अब्बास ज़फर की ‘भारत एक ऐसी ही करोड़ों रुपयों वाली विज्ञापन फिल्म है, जिसके केंद्र में सलमान को ‘देश का नमक-टाटा नमक’ की तरह बेचने की कोशिश लगातार चलती रहती है; वरना ‘जन गण मन सुनाकर नौकरी हथियाने वाले नाकारा और नाक़ाबिल लोगों की टीम के लिए सिनेमाहॉल में कोई भी समझदार दर्शक 52 सेकंड्स के लिए भी क्यूँ खड़ा होगा?

‘भारत कोरियाई फिल्म ‘ओड टू माय फ़ादर’ पर आधिकारिक रूप से आधारित है. भारत-पाकिस्तान के बंटवारे में 10 साल का भारत (सलमान खान) अपने पिता (जैकी श्रॉफ) और छोटी बहन से बिछड़ कर पुरानी दिल्ली आ गया है, और अब अपने पिता को दिए वादे के साथ बाकी परिवार को एकजुट रखने में मेहनत-मशक्कत कर रहा है, इस उम्मीद में कि एक दिन उसके पिता लौटेंगे. 70 साल की उम्र में राशन की दुकान चलाने से पहले, भारत ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस में मौत का कुआं जैसे करतब भी दिखा चुका है, अरब देशों में तेल के खदानों में काम भी कर चुका है, और समंदर में माल ढोने वाले जहाज़ों पर रहते हुए सोमालियाई समुद्री लुटेरों का सामना भी. फिल्म पहले ही जता चुकी है कि 70 साल के बूढ़े आदमी की जिंदगी में काफी कुछ वाकये ऐसे हुए हैं, जिन पर भरोसा करना आसान नहीं होगा. विडम्बना ये है कि फिल्म मनोरंजन के लिए खुद इन तमाम घटनाओं को इतनी लापरवाही और हलके ढंग से पेश करती है कि हंसी तो छोड़िये, आप परेशान होकर अपना सर धुनने बैठ जाते हैं. ख़तरनाक सोमालियाई लुटेरे अमिताभ बच्चन के फैन निकलते हैं, सलमान और उसके दोस्तों को एक-दो हिंदी गानों पर नचा कर छोड़ देते हैं. तेल के खदान में फंसा हुआ भारत जैसे स्क्रीनप्ले के वो चार पन्ने ही खा जाता है, जिसमें उसे खदान से बाहर निकलने की मेहनत करनी पड़ती. बजाय इसके भारत बने सलमान सिर्फ अपनी शर्ट उतारता है, और अगले दृश्य में खदान से बाहर. सलमान थोड़ी कोशिश करते, तो ‘काला पत्थर की स्क्रिप्ट के कुछ पन्ने सलीम खान साब के कमरे से चुराए तो जा ही सकते थे.

बहरहाल, फिल्म भारत को किरदार और देश के तौर पर अलग-अलग देखते हुए भी दोनों के सफ़र को एक-दूसरे से जोड़े रखने की नाकामयाब तरकीब भी लड़ाती है. भारत की जिंदगी के खास ख़ास पलों को जोड़ने में देश के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक हालातों पर की गयी टिप्पणी जैसे एक भूली-भटकी एक्सरसाइज लगती है- कभी याद आ गयी तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं. नेहरु जी की मृत्यु से लेकर, साठ के दशक में बेरोजगारी और फिर नब्बे के दशक की अर्थव्यवस्था में डॉ. मनमोहन सिंह के योगदान का उल्लेख इसी कड़ी का हिस्सा हैं.

‘भारत में मनोरंजन का अच्छा-खासा दारोमदार फिल्म के सह-कलाकारों के काबिल कन्धों पर रख छोड़ा गया है. कलाकारों की क़ाबलियत जहां इस बात का मज़बूत पक्ष है, स्क्रिप्ट में जिस तरह की सस्ती कॉमेडी उनके हिस्से मढ़ दी गयी है, उतनी ही शर्मनाक और वाहियात. पूरी फिल्म में आसिफ शेख़ और सुनील ग्रोवर दो ही ऐसे अभिनेता हैं, जो अपने किरदार से एक पल के लिए भी अलग नहीं होते. आसिफ शेख के हिस्से जहां नब्बे के दौर के उनके अपने ही मजाकिया हाव-भाव हाथ लगे हैं, और वो उनमें काफी हद तक कामयाब भी रहते हैं; सुनील अपनी मौज़ूदगी तकरीबन हर दृश्य में ज़ाहिर तो करते हैं, मगर ‘चड्डी वाले दोयम दर्जे के मजाकिया दृश्यों से वो भी बच नहीं पाते. यहाँ तक कि एक दृश्य में उन्हें औरत बनने का सुख भी हासिल कराया जाता है. सतीश कौशिक एक फिल्म के साथ परदे पर एक बेहरतीन अभिनेता के तौर पर लौटते ज़रूर हैं, मगर उन्हें भी ‘तुतलाने और तेज़ बोलने वाले किरदार तक ही बाँध कर रख दिया जाता है, मानो उनका वो हिस्सा सीधे-सीधे किसी डेविड धवन फिल्म से उठा लिया गया हो.

कैटरीना कैफ़ बहुत मेहनत करते हुए नज़र आती हैं- ‘भारतीय’ लगने और सुनाई देने की कोशिश करते हुए. साड़ियों और सादे सलवार सूट में हिंदी साफ़-साफ़ बोलने में इस बार उनके नंबर कम ही कटते हैं, और ऐसा तब और जरूरी हो जाता है, जबकि उनके किरदार का नाम ‘कुमुद’ हो, ना कि ‘जोया’, ‘लैला या ‘जैज़’. फिर भी दो मौकों पर उनका ‘स्टोर को ‘स्तोर बोलना खलता है. कहानी और मनोरंजन के बाद, फिल्म अगर सबसे ज्यादा नाइंसाफ़ी किसी से करती है तो वो हैं, सलमान के माँ की भूमिका में सोनाली कुलकर्णी. असल जिंदगी में सोनाली सलमान से 10 साल छोटी हैं, और परदे पर और ज्यादा छोटी दिखती हैं. हालाँकि फिल्म शुरुआत में ही एलान करती है कि पिता हीरो होते हैं, और माएं सुपर हीरो, मगर फिल्म में सोनाली का किरदार महज़ एक प्रॉप से ज्यादा कुछ नहीं. इस माँ को सुपर हीरो बनने का न तो मौका हासिल होता है, न ही न बन पाने की सहानुभूति. बेटा सलमान है आख़िर! और सलमान के लिए? पूरी फिल्म में अभिनय के नाम पर हैं, उनकी पुरानी फिल्मों से मिलते-जुलते गेटअप्स, बूढ़ा दिखाने वाला मेकअप और आंसू बहाने वाले दो दृश्य! अली अब्बास ज़फर की ही फिल्म ‘सुलतान में सलमान ने वजन बढ़े हुए पहलवान के किरदार को आईने के सामने नंगा खड़ा कर देने की जो हिम्मत दिखाई थी, 70 साल के बूढ़े के किरदार यहाँ ऐसी कोई साहसिक कोशिश करने में आलस दिखा जाते हैं.

आखिर में; ‘भारत एक अति-साधारण कोशिश है साधारण से दिखने वाले एक बूढ़े की असाधारण कहानी को परदे पर उकेरने की. ओरिजिनल कोरियाई फिल्म में इस्तेमाल मानवीय संवेदनाओं और गहरे ज़ज्बातों को ताक पर रख कर, मनोरंजन के लिए सस्ते हथकंडों का प्रयोग लेखन-निर्देशन का खोखलापन खुले-आम ज़ाहिर करता है. बंटवारे की त्रासदी पर फिल्म देखनी हो, तो देखिये ‘पिंजर, खदानों में फंसे मजदूरों की जिजीविषा देखनी हो, तो देखिये ‘काला पत्थर, समुद्री लुटेरों से जूझते नायक की कहानी देखनी हो, तो देखिये ‘कैप्टेन फिलिप्स’. हाँ, अगर ‘भाई’ को ईदी देने की रस्म-अदायगी ज़रूरी है आपके लिए, तो एक राहत-कोष बना लीजिये. कम से कम हर साल सिनेमा को घाव तो नहीं सहने पड़ेंगे. [2/5] 

Sunday 24 March 2019

मर्द को दर्द नहीं होता: अतरंगी किरदार, रंगीली दुनिया, मजेदार मनोरंजन! (4/5)


फ़िल्मकार के तौर पर, सिनेमा आपको एक ख़ास सहूलियत देता है, अपनी अलग ही एक दुनिया रचने की. ऐसी दुनिया, जिसे या तो अब तक आप जीते आये हैं, या जिसे जीने के ख्वाब आपकी आँखों में चमक ला देते हैं. अब ये खालिस आप पर निर्भर करता है कि समाज के पैरोकार बनकर आप लोगों को सच्चाई की काली कोठरी में, उन्हें उनके अपने ही दर्द-ओ-ग़म से रूबरू कराना चाहते हैं, या मनोरंजन की परवाह करते हुए, एक ऐसी ज़मीन तैयार करते हैं, जहां सब कुछ रंगीन है, मनभावन है, और अतरंगी भी. ‘मर्द को दर्द नहीं होता इस लिहाज़ थोड़ी और अनूठी है, क्योंकि लेखक-निर्देशक वासन बाला की इस अतरंगी दुनिया के तमाम साज़ो-सामान, तकरीबन सारी की सारी सजावट और किरदार हिंदी सिनेमा के उस दौर का जश्न मनाते हैं, जब मनोरंजन को लॉजिक नाम वाली लाठी के सहारे की ज़रुरत नहीं पड़ती थी.  

नायक सूर्या (अभिमन्यु दासानी) को अज़ीब-ओ-ग़रीब बीमारी है. उसे दर्द महसूस नहीं होता. किसी भी तरह का. हालाँकि बचपन में ही चेन-स्नैचिंग के एक हादसे में अपनी माँ को खोने के बाद उसने दुनिया से चेन-चोरों का नामोनिशान मिटाने की कसम ज़रूर खा रखी है, पर सिर्फ अपनी जिंदगी को एक मकसद देने की गरज़ से. माँ के जाने का दुःख-दर्द भी उसके सपाट चेहरे पर गिरते ही फिसल जाते हैं. पिता (जिमित त्रिवेदी) दूसरी शादी कर रहे हैं, पर सूर्या को पता ही नहीं कि शायद उसे गुस्सा होना चाहिए. सूर्या को अगर कोई खतरा है, तो वो है डिहाइड्रेशन. वीएचएस पर ब्रूस ली की फिल्में दिखा-दिखा कर उसके नाना (महेश मांजरेकर) ने उसे एक पैर वाले कराटे मैन मणि (गुलशन देवैय्या) जैसा लड़ाका बना दिया है, और अब उसी कराटे मैन को उसी के सनकी जुड़वे भाई जिम्मी (गुलशन देवैय्या) से बचाने की लड़ाई में सूर्या को सुप्री (राधिका मदान) मिल गयी है, उसके बचपन का बिछड़ा हुआ प्यार.

जिस तरह कहानी लिखने और उसके फिल्मांकन में वासन फिल्मों से जुड़े ढेर सारे सन्दर्भों का हवाला पेश करते हैं, कोई घोर-सिनेमाप्रेमी ही कर सकता है. सूर्या की पैदाइश के वक़्त माँ सिनेमाहॉल में बैठी ‘आज का गुंडाराज देख रही है. माँ की मौत का बदला लेना ही बेटे का मकसद बन जाता है, और ‘पाप को जला कर राख कर दूंगा उसका मूलमंत्र. सूर्या का वीडियो कैसेट्स पर फिल्में देखना, ब्रूस ली की तर्ज़ पर उसका ट्रैकसूट, बात-बात में फिल्मों का ज़िक्र; सब कुछ आपको उस दौर की याद दिलाता रहता है, जब हम में से ज्यादातर उम्र के उस पड़ाव पर थे, जहां सिनेमा को अच्छे-बुरे की नज़र से तौलने के बजाय, मनोरंजन की चाशनी पर ध्यान ज्यादा रहता था.

किरदारों को मजेदार बनाने में बाला कोई कसर नहीं छोड़ते. आम तौर पर नायक-खलनायक के बीच नायिका अक्सर अपने होने के बहाने ढूंढती नज़र आती है, पर ‘मर्द को दर्द नहीं होता में सुप्री जिंदगी से समझौते करके जीने वाली लड़की भी अगर है, तो उसकी मजबूरियों का ठीकरा उसके लाचार माँ-बाप के सर फूटता है, ना कि उसकी अपनी कमजोरियों के. नायक के साथ रात बिताने की खुमारी में केमिस्ट के सामने ही गर्भ-निरोधक गोली गटकती है, और इशारे से ‘अब ठीक है भी बता देती है. एक तरफ नायक को जहां दर्द का एहसास ही नहीं होता, खलनायक जैसे हर बात-हर ज़ज्बात का जश्न मनाने की जिम्मेदारी खुद उठा लेता है. जिम्मी की सनक रह रह के आपको गुदगुदाती है. दिन में तीन से ज्यादा बार सिगरेट मांगने पर अपने ही गुंडे को थप्पड़ मारने की हिदायत हो, क्लाइमेक्स में नायक और गुंडों के बीच कराटे टूर्नामेंट कराने की शर्त, या फिर अपने ही भाई को हर वक़्त मारने-पीटने-धमकाने कि आदत; जिम्मी आपको डराता कम है, हंसाता ज्यादा. और फिर, वो एक बूढ़ा स्टोर मैनेजर, जो बिना फॉर्म भरे बंदूकें देने से साफ़ इंकार कर देता है, जबकि लड़ाई में उसके अपने लोग ही हार रहे हों.

‘मर्द को दर्द नहीं होता बड़ी ख़ूबसूरती से गीत-संगीत को दृश्यों में पिरोना जानती है. किशोर कुमार का ‘नखरेवाली रेडियो पर बज रहा है, जब नायिका पहली बार स्क्रीन पर गुंडों को पटखनी देते हुए दिखाई देती है. फ्लैशबैक में साउथ इंडियन जुड़वाँ भाइयों, जिम्मी और कराटे मैन मणि की कहानी कहते हुए गायक सुरेश त्रिवेणी एसपी बालासुब्रमणियम की आवाज़ धर लेते हैं. कुछ ऐसी ही ख़ूबसूरती फिल्म के एक्शन दृश्यों में झलकती है. कराटे फाइटिंग हिंदी फिल्मों में तो कम ही इस्तेमाल हुई है, मगर ‘मर्द को दर्द नहीं होता का ज्यादातर एक्शन आपको ब्रूस ली की फिल्मों की याद ज़रूर दिला देगा. इन दृश्यों में परदे पर नायक को दर्द का एहसास भले ही न हो, आपको मनोरंजन का एहसास हर पल होता रहता है.

अभिमन्यू के स्टार-किड का चोगा न पहनने का फैसला फिल्म और अभिमन्यू दोनों के लिए सही साबित होता है. आप उनसे उम्मीद कम रखते हैं, और वो आपकी उम्मीद से थोड़ा ज्यादा ही देकर जाते हैं. फिल्म का बहुत सारा हिस्सा उनकी आवाज़ में अपनी कहानी बयान करता है, उस लिहाज़ से अभिमन्यू थोड़ा निराश करते हैं. उनकी आवाज़ थोड़ी बचकाना लगती है. राधिका कमाल हैं. परदे पर बिजली की ही तरह कौंधती फिरती हैं. माँ के साथ अपनी कमजोरियों, अपनी बेचारगी, अपने हालातों का जिक्र करते हुए दृश्य में बेहतरीन हैं, और सरल-सहज भी. महेश मांजरेकर बखूबी अपने किरदार को मजेदार बनाए रखते हैं. इन सबके होते हुए भी, गुलशन देवैय्या बड़े अंतर से बाज़ी मार ले जाते हैं. जहां एक तरफ, एक पैर वाले मणि के किरदार में उनकी शारीरिक मेहनत, लगन और जोश आपको अभिनेता के तौर पर उनकी क़ाबलियत कम आंकने में गलत साबित करते हैं, वही जिम्मी के मजेदार सनकीपन को उभारने में भी गुलशन उतनी ही शिद्दत से पेश आते हैं. बेशक, ये साल की सबसे मजेदार परफॉरमेंस है.

अंत में; ‘मर्द को दर्द नहीं होता विशुद्ध रूप से एक बेहद मनोरंजक फिल्म है, जो बॉलीवुड के ‘फ़ॉर्मूला एंटरटेनमेंट वाले खाने को ‘टिक मार्क करते हुए भी बहुत कुछ अलग, बहुत कुछ नया और बहुत कुछ मजेदार कर गुजरती है. फिल्म अपने आप में एक खास तरीके के सिनेमा का जश्न भी है. देखने जाईये, तो एक सिनेमाप्रेमी के तौर पर आंकिये अपने आपको कि आखिर फिल्म में और दूसरी फिल्मों के कितने सन्दर्भों को आप पहचानने में कामयाब रहे? [4/5]  

Friday 15 March 2019

फ़ोटोग्राफ : उदासी, ख़ामोशी, खालीपन...और मुंबई! (4/5)

उदासी का रिश्ता अलग ही होता है. मुंबई जैसे भीड़ भरे शहर में भी, जहां वक़्त को भी ठहरने का वक़्त नहीं, दो एकदम अनजान उदास लोग एक-दूसरे को जानने-समझने लगे हैं. दोनों की दुनिया ही पूरी तरह अलग है, मगर खालीपन का एक कमरा दोनों ही के हिस्से बराबर आया है. दोनों अपने-अपने बंद कमरों से निकलने को छटपटा रहे हैं. हालाँकि ये छटपटाहट महसूस करने के लिए आपको उनकी लील लेने वाली ख़ामोशी में गहरे उतरने का हौसला और हुनर, दोनों साथ रखना पड़ेगा. अपनी पहली फिल्म ‘द लंचबॉक्स में इंसानी ज़ज्बातों की कुछ ऐसी ही उथलपुथल रितेश बत्रा पहले भी दिखा चुके हैं. उन्हें आता है, ढर्रों पर भागते अनजान किरदारों को धकेल-धकेल कर एक दूसरे के करीब ले आना, उन्हें भाता है. ‘फ़ोटोग्राफ’ का ज़ायका भी कमोबेश वैसा ही है.

मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) टॉपर है. उसे चार्टर्ड अकाउंटेंट बनाने के लिए पूरी फैमिली नज़र गड़ाये बैठी है. ऐसी लड़कियों की तस्वीरें अक्सर पासपोर्ट साइज़ की ही बन के रह जाती हैं, कभी किसी फॉर्म पे, कभी किसी आई कार्ड पे और ज्यादा हुआ तो किसी ‘अनुपम सर की कोचिंग क्लास’ के बिलबोर्ड पे. ऐसे में, एक दिन गेटवे ऑफ़ इंडिया पर टहलते हुए मिलोनी पासपोर्ट साइज़ के फोटो से निकल कर पोस्टकार्ड साइज़ में छप जाती है. कैमरे की मेहरबानी कहिये या फोटोग्राफर की वो ‘एक पैसा मुस्कुराईये’ वाली रटी-रटाई गुज़ारिश; मिलोनी को फोटो में अपनी ही शकल अनजान लगने लगती है, पहले से थोड़ी ज्यादा खुश, पहले से थोड़ी ज्यादा ख़ूबसूरत.

रफ़ी (नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी) जैसे तमाम फोटोग्राफर आपको गेटवे ऑफ़ इंडिया पर ’पचास (रूपये) में, गेटवे के साथ ताज़ (होटल)’ बेचते नज़र आ जायेंगे, शायद ही आप उनमें से किसी एक के साथ उनके घर तक लौटते हों. रितेश हमें ले जाते हैं, उस एक तंग कमरे में जहां हर कोई अपनी-अपनी आपबीती खुल के बयाँ कर रहा है, यहाँ तक कि कमरे का पंखा भी. रफ़ी को वसीयत में बाप का क़र्ज़ और एक बेबाक बोलने वाली दादी (फारुख जफ़र) नसीब हुई हैं, जिनकी जिद रफ़ी के निकाह पर आ कर बंद घड़ी की सुई जैसे टिक गयी है. टालने के लिए रफ़ी ने शाम की खिंची तस्वीर दादी को पोस्ट कर दी है. मिलोनी अब रफ़ी की ‘नूरी बन गयी है.

‘फ़ोटोग्राफ’ में मुंबई शहर फिल्म का एक अलग से किरदार बन कर सामने आता है, चाहे वो इंसानी शक्ल में घर की नौकरानी (गीतांजलि कुलकर्णी) हो, जिसे चौपाटी पर लिपस्टिक लगाए, बैग लटकाए घूमते देख आप मुश्किल से पहचान पायेंगे या फिर इमारती तौर पर रफ़ी का वो कमरा, जहां चार-चार लोग एक साथ करवट बदल रहे हैं. ‘फ़ोटोग्राफ’ के मिलोनी और रफ़ी ‘द लंचबॉक्स’ के इला और साजन फ़र्नान्डिस से परे नहीं हैं. दोनों की जिंदगियों के टुकड़े मिले-जुले तो हैं, पर जिनके एक होने की उम्मीदें कम ही हैं. मिलोनी बचपन के ‘कैम्पा कोला से बंधी हुई है, तो रफ़ी महीने के आखिर में ‘कुल्फी खाने की आदत के साथ अपने अब्बू की यादों से जुड़ा हुआ. बेहतर है कि दोनों को करीब लाने में बत्रा ज़ज्बातों को कोई नाम देने की जल्दबाजी नहीं दिखाते.

उदासी, बेबसी और नाउम्मीदी भले ही हवा में सीलन की तरह पसरी हो, पर बत्रा उस माहौल में भी हंसी के पल ढूंढ ही लेते हैं. एक ऐसी हंसी जो देर तक कचोटती भी है. मौत जैसे गंभीर मामलों वाले दृश्यों में खास तौर पर. रफ़ी के कमरे में किसी ने कभी ख़ुदकुशी कर ली थी, और उसका एहसास कमरे में रहने वाले को तब हुआ था, जब लाश के बोझ से पंखे ने घूमना बंद कर दिया था और कमरे में गर्मी बढ़ गयी थी. पंखा आज भी घिघिया रहा है. रफ़ी ने अपने माँ-बाप को बचपन में ही खो दिया था, दादी से नूरी बनकर मिलते वक़्त, मिलोनी अपने परिवार को भी मस्जिद की दीवार के तले दबा कर मार देती है. उनके दर्द में साझा होने की गरज़ से.

अदाकारी में, नवाज़ जहाँ अपनी जानी-पहचानी दुनिया में पूरे दमखम के साथ लौटते नज़र आते हैं, सान्या अपने अब तक के निभाए सबसे मुश्किल किरदार में पाँव धरती हैं. मिलोनी बेहद कम बोलती है. उसकी ख़ामोशी उससे कहीं ज्यादा बातें करती है. उसकी ज्यादातर जिंदगी उसके परिवार की चुनी हुई है. रफ़ी के साथ बिताये वक़्त ही उसके अपने हैं. ऐसे किरदार में सान्या पूरी शिद्दत से रच-बस जाती हैं. फारुख जफ़र अपनी बेबाक बकबक से गुदगुदाती रहती हैं. उनके उलाहने, उनकी कहानियाँ, अपने पोते रफ़ी को लेकर उनकी शिकायतें सब इतनी ईमानदार हैं कि आपको उनके अदाकारा होने का भरम भी नहीं होता. गीतांजलि कुलकर्णी भी कुछ इतनी ही जबरदस्त हैं. एक नौकरानी के किरदार में, जहाँ कहने-सुनने से ज्यादा फ्रेम में आने-जाने भर का ही स्कोप रह जाता हो, वहाँ भी और गिनती के उन दो-तीन दृश्यों में भी, गीतांजलि अकेली ही मुझे फिल्म दोबारा देखने को उत्साहित करती हैं. उनके हाव-भाव मुझे घंटों बाद भी याद हैं.

आखिर में, ‘फ़ोटोग्राफ एक ऐसी फिल्म है जो आसान नहीं है. घंटों बाद भुलानी भी, और अपने दो घंटे के कम वक़्त में बिना विचलित हुए देखनी भी. फिल्म जहाँ कुछ दृश्यों में अपने आपको दोहराने की गुनाहगार समझी जा सकती है, वहीँ अपनी धीमी रफ़्तार की वजह से लम्बी होने का एहसास भी करा जाती है. बावजूद इसके, आखिर कितनी बार आप इंसानी ज़ज्बातों का कोई ऐसा ताना-बाना देख पाते हैं, जहाँ रिश्तों में ईमानदारी इस हद तक हो कि उसे नाम देने की जरूरत ही न पड़े! [4/5]