Friday 15 March 2019

फ़ोटोग्राफ : उदासी, ख़ामोशी, खालीपन...और मुंबई! (4/5)

उदासी का रिश्ता अलग ही होता है. मुंबई जैसे भीड़ भरे शहर में भी, जहां वक़्त को भी ठहरने का वक़्त नहीं, दो एकदम अनजान उदास लोग एक-दूसरे को जानने-समझने लगे हैं. दोनों की दुनिया ही पूरी तरह अलग है, मगर खालीपन का एक कमरा दोनों ही के हिस्से बराबर आया है. दोनों अपने-अपने बंद कमरों से निकलने को छटपटा रहे हैं. हालाँकि ये छटपटाहट महसूस करने के लिए आपको उनकी लील लेने वाली ख़ामोशी में गहरे उतरने का हौसला और हुनर, दोनों साथ रखना पड़ेगा. अपनी पहली फिल्म ‘द लंचबॉक्स में इंसानी ज़ज्बातों की कुछ ऐसी ही उथलपुथल रितेश बत्रा पहले भी दिखा चुके हैं. उन्हें आता है, ढर्रों पर भागते अनजान किरदारों को धकेल-धकेल कर एक दूसरे के करीब ले आना, उन्हें भाता है. ‘फ़ोटोग्राफ’ का ज़ायका भी कमोबेश वैसा ही है.

मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) टॉपर है. उसे चार्टर्ड अकाउंटेंट बनाने के लिए पूरी फैमिली नज़र गड़ाये बैठी है. ऐसी लड़कियों की तस्वीरें अक्सर पासपोर्ट साइज़ की ही बन के रह जाती हैं, कभी किसी फॉर्म पे, कभी किसी आई कार्ड पे और ज्यादा हुआ तो किसी ‘अनुपम सर की कोचिंग क्लास’ के बिलबोर्ड पे. ऐसे में, एक दिन गेटवे ऑफ़ इंडिया पर टहलते हुए मिलोनी पासपोर्ट साइज़ के फोटो से निकल कर पोस्टकार्ड साइज़ में छप जाती है. कैमरे की मेहरबानी कहिये या फोटोग्राफर की वो ‘एक पैसा मुस्कुराईये’ वाली रटी-रटाई गुज़ारिश; मिलोनी को फोटो में अपनी ही शकल अनजान लगने लगती है, पहले से थोड़ी ज्यादा खुश, पहले से थोड़ी ज्यादा ख़ूबसूरत.

रफ़ी (नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी) जैसे तमाम फोटोग्राफर आपको गेटवे ऑफ़ इंडिया पर ’पचास (रूपये) में, गेटवे के साथ ताज़ (होटल)’ बेचते नज़र आ जायेंगे, शायद ही आप उनमें से किसी एक के साथ उनके घर तक लौटते हों. रितेश हमें ले जाते हैं, उस एक तंग कमरे में जहां हर कोई अपनी-अपनी आपबीती खुल के बयाँ कर रहा है, यहाँ तक कि कमरे का पंखा भी. रफ़ी को वसीयत में बाप का क़र्ज़ और एक बेबाक बोलने वाली दादी (फारुख जफ़र) नसीब हुई हैं, जिनकी जिद रफ़ी के निकाह पर आ कर बंद घड़ी की सुई जैसे टिक गयी है. टालने के लिए रफ़ी ने शाम की खिंची तस्वीर दादी को पोस्ट कर दी है. मिलोनी अब रफ़ी की ‘नूरी बन गयी है.

‘फ़ोटोग्राफ’ में मुंबई शहर फिल्म का एक अलग से किरदार बन कर सामने आता है, चाहे वो इंसानी शक्ल में घर की नौकरानी (गीतांजलि कुलकर्णी) हो, जिसे चौपाटी पर लिपस्टिक लगाए, बैग लटकाए घूमते देख आप मुश्किल से पहचान पायेंगे या फिर इमारती तौर पर रफ़ी का वो कमरा, जहां चार-चार लोग एक साथ करवट बदल रहे हैं. ‘फ़ोटोग्राफ’ के मिलोनी और रफ़ी ‘द लंचबॉक्स’ के इला और साजन फ़र्नान्डिस से परे नहीं हैं. दोनों की जिंदगियों के टुकड़े मिले-जुले तो हैं, पर जिनके एक होने की उम्मीदें कम ही हैं. मिलोनी बचपन के ‘कैम्पा कोला से बंधी हुई है, तो रफ़ी महीने के आखिर में ‘कुल्फी खाने की आदत के साथ अपने अब्बू की यादों से जुड़ा हुआ. बेहतर है कि दोनों को करीब लाने में बत्रा ज़ज्बातों को कोई नाम देने की जल्दबाजी नहीं दिखाते.

उदासी, बेबसी और नाउम्मीदी भले ही हवा में सीलन की तरह पसरी हो, पर बत्रा उस माहौल में भी हंसी के पल ढूंढ ही लेते हैं. एक ऐसी हंसी जो देर तक कचोटती भी है. मौत जैसे गंभीर मामलों वाले दृश्यों में खास तौर पर. रफ़ी के कमरे में किसी ने कभी ख़ुदकुशी कर ली थी, और उसका एहसास कमरे में रहने वाले को तब हुआ था, जब लाश के बोझ से पंखे ने घूमना बंद कर दिया था और कमरे में गर्मी बढ़ गयी थी. पंखा आज भी घिघिया रहा है. रफ़ी ने अपने माँ-बाप को बचपन में ही खो दिया था, दादी से नूरी बनकर मिलते वक़्त, मिलोनी अपने परिवार को भी मस्जिद की दीवार के तले दबा कर मार देती है. उनके दर्द में साझा होने की गरज़ से.

अदाकारी में, नवाज़ जहाँ अपनी जानी-पहचानी दुनिया में पूरे दमखम के साथ लौटते नज़र आते हैं, सान्या अपने अब तक के निभाए सबसे मुश्किल किरदार में पाँव धरती हैं. मिलोनी बेहद कम बोलती है. उसकी ख़ामोशी उससे कहीं ज्यादा बातें करती है. उसकी ज्यादातर जिंदगी उसके परिवार की चुनी हुई है. रफ़ी के साथ बिताये वक़्त ही उसके अपने हैं. ऐसे किरदार में सान्या पूरी शिद्दत से रच-बस जाती हैं. फारुख जफ़र अपनी बेबाक बकबक से गुदगुदाती रहती हैं. उनके उलाहने, उनकी कहानियाँ, अपने पोते रफ़ी को लेकर उनकी शिकायतें सब इतनी ईमानदार हैं कि आपको उनके अदाकारा होने का भरम भी नहीं होता. गीतांजलि कुलकर्णी भी कुछ इतनी ही जबरदस्त हैं. एक नौकरानी के किरदार में, जहाँ कहने-सुनने से ज्यादा फ्रेम में आने-जाने भर का ही स्कोप रह जाता हो, वहाँ भी और गिनती के उन दो-तीन दृश्यों में भी, गीतांजलि अकेली ही मुझे फिल्म दोबारा देखने को उत्साहित करती हैं. उनके हाव-भाव मुझे घंटों बाद भी याद हैं.

आखिर में, ‘फ़ोटोग्राफ एक ऐसी फिल्म है जो आसान नहीं है. घंटों बाद भुलानी भी, और अपने दो घंटे के कम वक़्त में बिना विचलित हुए देखनी भी. फिल्म जहाँ कुछ दृश्यों में अपने आपको दोहराने की गुनाहगार समझी जा सकती है, वहीँ अपनी धीमी रफ़्तार की वजह से लम्बी होने का एहसास भी करा जाती है. बावजूद इसके, आखिर कितनी बार आप इंसानी ज़ज्बातों का कोई ऐसा ताना-बाना देख पाते हैं, जहाँ रिश्तों में ईमानदारी इस हद तक हो कि उसे नाम देने की जरूरत ही न पड़े! [4/5]

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