सीधे-सरल-सहज, उम्र
के आखिरी पड़ाव की तरफ बढ़ते बाऊजी [संजय मिश्रा] जब एक दिन तय करते हैं कि अब वो किसी
भी ऐसी बात पर विश्वास नहीं करेंगे जिसका अनुभव उन्होंने खुद न किया हो, तो हालाँकि
इसके पीछे उनके अपने तर्क मौजूद हैं, एक बवाल सा मच जाता है उनके चारों तरफ। झगड़ालू
तो नहीं पर लगातार कोसते रहने वाली पत्नी [सीमा पाहवा] के लिए जहां ये स्वांग उनके
सठिया जाने का संकेत है, पड़ोसी-मित्र इसे मनोरंजन और बैठकी का खेल बना लेते हैं। 'होगा'
और 'है' की यह उथल-पुथल चलती रहती है, जब बाऊजी के छोटे भाई [रजत कपूर] अपने परिवार
के साथ अलग होने का निर्णय ले लेते हैं। खिन्न-छिन्न और नाराज़ बाऊजी ऐसे में एक दिन
मौन धारण कर लेते हैं। न बोलकर आत्म-मंथन, चिंतन और ज्ञानार्जन बख़ूबी होता है।
अगर कथानक सुनकर तनिक
भी लगे कि यह फ़िल्म काफी सीरियस टाइप की है तो किसी भुलावे मत रहियेगा। 'आखों देखी'
एक बेहद ही मनोरंजक फ़िल्म है जिसके किरदार बहुत ही मज़ेदार, सच्चे और असलियत के बिलकुल
करीब दिखते हैं। पुरानी दिल्ली के तंग गलियों में दरार पालते मकानों की अँधेरी सीढ़ियों
से होकर अपने हिस्से के छोटे से आँगन में खुलती यह फ़िल्म अपने बोल-चाल, हाव-भाव, तौर-तरीके
से एक अपनापन भर देती है आपके अंदर। यहाँ रिश्तों में मन-मुटाव तो है पर दूरियां बिलकुल
नहीं और इमोशंस तो कहने ही क्या! यहाँ बच्चे जब नाराज़ होकर खाना छोड़ देते हैं, बाप
लाड़ दिखाकर मना लेता है। अलग रहने वाला भाई, बड़े भाई के घर आने पर बीवी को याद दिलाना
नहीं भूलता कि भैया कप में नहीं गिलास में चाय पीना पसंद करते हैं। लगता है पुराने
ज़माने की बात है पर यही है जो हम कहीं छोड़े आये थे।
संजय मिश्रा इस फ़िल्म
के महज़ एक किरदार नहीं हैं, पूरी की पूरी फ़िल्म उन्ही से निकलती है और उन्ही में जा
मिलती है। फ़िल्म संजय मिश्रा के लिए बनी हो न बनी हो, संजय मिश्रा इस फ़िल्म के लिए
ही बने हैं। दोनों को अलग करना-अलग रखना नामुमकिन। उन्हें स्क्रीन पर 'दो नैना तिहारे
मतवारे' गाते देखना एक ऐसा अनुभव है जो आसानी से भुलाया न जाएगा। सीमा पाहवा को जो
जानते हैं उन्हें पता है किरदारों को सीमा जी कितनी ख़ूबसूरती से आत्मसात कर लेती हैं।
अफ़सोस, उन जैसी अदाकारा को हम परदे पे कम ही देख पाते हैं। रजत कपूर भी अपनी सधी हुई
एक्टिंग से छाप छोड़ने में कोई कसर नहीं रखते, पर उनकी असली धार उनके निर्देशन में है
जो कहीं भी, और जोर देकर कहूंगा कहीं भी फ़िल्म को कमज़ोर नहीं पढ़ने देती। छोटी-छोटी
पर बेहद मज़ेदार भूमिकाओं में नमित दास, मनु ऋषि चड्ढा, ब्रजेन्द्र काला निराश नहीं
करते।
आख़िरकार एक ऐसी फ़िल्म
जो सिर्फ कहने या गिनने के लिए भारतीय नहीं है, बल्कि पूरी तरह भारत के मध्यमवर्गीय
समाज में रची-बसी, फलती-फूलती, सिसकती-सुबकती, हंसती-किलकती नज़र आती है। आख़िरकार एक
ऐसी फ़िल्म जिसमें नाटकीयता नाम मात्र की भी नहीं और सच्चाई हर पात्र, हर संवाद, हर
दृश्य के जरिये चमकती-महकती रहती है। आख़िरकार एक ऐसी फ़िल्म जो सिनेमा के सही मायने
न सिर्फ खुद समझती है, आपको भली-भांति समझाने में भी कामयाबी हासिल करती है। हालाँकि
रजत कपूर की 'आँखों देखी' आम लोगों की बीच उठती-बैठती, सांस लेती, बात करती ज़रूर है,
पर एक आम फ़िल्म बिलकुल भी नहीं है, कम से कम उसके लिए जो सिनेमा को जानता हो-ज़िंदगी
को पहचानता हो।
यकीन नहीं होता, साल
के शुरुआत में ही इस तरह की एक साफ़-सुथरी, सच्ची, ईमानदार और बेहद अच्छी फ़िल्म! 'आँखों
देखी' को न देखने का मुझे तो कोई भी तर्क, कोई भी कारण समझ नहीं आता। कमोबेश ये हमारे
यहाँ की 'नेबरास्का' है, उससे अच्छी नहीं तो उससे कम भी नहीं। देखिएगा ज़रूर! [4/5]
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