Saturday 28 June 2014

नया पता: भोजपुरी सिनेमा का नया पता! सरल, सहज और संवेदनशील [3.5/5]

कुछ साल पहले नितिन चंद्रा की 'देसवा' देखने का अवसर मिला था।  फिल्म से बहुत सी शिकायतें थीं, कई बार फिल्म खुद उन रास्तों पर भटकती नज़र आती थी, जिनसे बचकर नए रास्ते तलाशने की उम्मीद नितिन ने जगाई थी। शुक्र है, और साधुवाद पवन के. श्रीवास्तव को, जिनकी भोजपुरी-मैथिली फिल्म 'नया पता' ऐसी कोई भी गलती दोहराने की भूल नहीं करती और भोजपुरी सिनेमा को नयी प्रगतिशील दिशा देने की ओर एक मजबूत-एक अडिग कदम बढ़ाती है।

'राम स्वारथ दुबे, ग्रा.पो.- तेज़पुरवा, थाना-मरोढ़ा, जि.-छपरा', रोजगार की तलाश में २५ साल पहले दिल्ली जा बसने वाले राम स्वारथ दुबे का यह नया पता वास्तव में उनका अपना ही गाँव है, जहां एक बार फिर वो अपनी पहचान तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। पलायन की त्रासदी और पैसे कमाने के उहापोह में रिश्तों के प्रति उदासीन रहने का दुःख लिए घूम रहे दुबे जी की पीड़ा तब और बढ़ जाती है, जब उनके गाँव की ही एक लड़की उन्हें 'दिल्ली वाले बाबा' कहकर बुलाती है। सच है, कुछ जड़ें अपनी ज़मीन कभी नहीं छोड़तीं और कुछ पौधे ज़मीन बदलने पर फलते-फूलते भी नहीं। हालात और बिगड़ते नज़र आते हैं जब दुबे जी का बेटा भी अच्छे मौके की बांह पकड़े गाँव का दामन छोड़ देता है।

'नया पता' राम स्वारथ दुबे के जरिये गाँवों के रेहन-सहन और सीधी-साधी-धीमी रफ़्तार ज़िंदगी को बखूबी सामने रखती है। रियल लोकेशंस पर, कुछ बहुत ही जरूरी कलाकारों और ढेर सारे रियल कैरेक्टर्स के साथ शूट हुई इस फिल्म की यही एक बड़ी खासियत है, इसका बनावटीपन से बिलकुल दूर होना! हालांकि इस वजह से कही-कहीं पर नाटकीयता की कमी महसूस होती है जो अक्सर सिनेमा के बड़े परदे पर आपको बांधे रखने के लिए जरूरी होता है। बड़े गुलाम अली खान साब की 'याद पिया की आये' का नवीन प्रस्तुतीकरण और कबीर के निर्गुण और भिखारी ठाकुर के गीतों से सजे गाने जो सिर्फ बैकग्राउंड का हिस्सा हैं और 'लिप सिंक' की प्रक्रिया से खुद को दूर रखते हैं, फिल्म को एक नयी ऊंचाई पर ले जाते हैं। साकेत सौरभ अपनी लाइटिंग तकनीक से दृश्यों में जान फूँक देते हैं। किरदार जब कुछ नहीं भी कहते, फिल्म के दृश्य बहुत कुछ कह जाते हैं। फिल्म अगर कहीं ढीली पड़ती है तो सिर्फ नए कलाकारों की झिझक और उनमें साफ़ दिखते अनुभव की कमी की वजह से, फिर भी मुख्य भूमिका में अभिषेक शर्मा और सह भूमिकाओं में चंद्रा निशा अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं।

'नया पता' के साथ पवन के. श्रीवास्तव भोजपुरी सिनेमा में एक सरल, सहज और संवेदनशील सम्भावना की झलक प्रस्तुत करते हैं। फिल्म के एक दृश्य में अकेलेपन से ग्रस्त, अपनी पहचान खो देने का डर लिए दुबे जी गाँव के एक आइसक्रीम फैक्ट्री में बर्फ की सिल्ली पता करने पहुँचते हैं, इस चिंता से की उनकी मृत्यु पश्चात उनके बेटे को आने में ३६ घंटे से अधिक लग सकता है। भोजपुरी सिनेमा छोड़िये, हिंदी फिल्मों में भी मैंने इतना संवेदनशील-इतना मार्मिक वृतांत हाल में कम ही देखा है। बहू पहली बार घर से बाहर जा रही है तो सिन्धोरा [सिन्दूर रखने के लिये बॉक्स] के साथ उसकी विदाई की रस्म, उदास तन्हा रातों में नाखून से दीवार पर चूने की परत कुरेदना, दिल्ली के छोटे से कमरे में प्रेशर कुकर में पकती दाल और फिर चम्मच से सीटी उठाना, आज की फिल्मों में कहाँ दिखता है? तो अच्छा लगता है।

अंत में, 'नया पता' भोजपुरी सिनेमा का नया पता है। तमाम रवि किशनों, मनोज तिवारियों और निरहुआ जैसे ठट्ठेबाज़ों से अलग, भिखारी ठाकुर के 'बिदेसिया' की दुनिया! देखिएगा ज़रूर!! [3.5/5]  

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