Friday, 22 August 2014

कटियाबाज़: ड्रामा, एक्शन, इमोशन…सब असली है! [3.5/5]

कहानियाँ जो ज़िंदगी की सच्चाई से निकली हों, काल्पनिक कथाओं से कहीं बेहतर, कहीं रोचक होती हैं. रत्ती भर का बनावटीपन नहीं और कहीं भी पकड़ छूटने या बनाये रखने का दबाव नहीं. बस छोड़ दीजिये अपने आप को और बहते रहिये एक ऐसे बहाव में, जिस से आप अछूते नहीं हैं. जिसकी रवानगी कहीं कहीं आपके ज़ेहन में कैद है, ज़िंदा है. हालांकि 'कटियाबाज़' कानपुर से ताल्लुक रखती एक डाक्यूमेंटरी ड्रामा है, पर ऐसा नहीं है कि आप बड़े शहरों में रहते हों और इस तरह के हालात से बिलकुल ही परिचित हों.

कानपुर, जो कभी 'भारत का मैनचेस्टर' कहा जाता था, आज बिजली कटौती की भयंकर समस्या से जूझ रहा है. गर्मियों में 45 डिग्री तक पारा पहुँचने वाले इस शहर में 16-18 घंटे तक की बिजली कटौती होती है और व्यवस्था की इस नाकामी से लोगों को जो थोड़ी बहुत राहत मिलती है, उसका सर्वेसर्वा है, कटियाबाज़ी का उस्ताद लोहा सिंह! कटियाबाज़ यानि गैर कानूनी तरीके से बिजली की चोरी के लिए तार जोड़ने का हुनर जानने वाला! लोहा सिंह को मौत छू भी नहीं सकती (उसका मानना है कि तार जोड़ते वक़्त वह अपनी साँसे रोक लेता है और इसीलिए मौत उसे पहले से ही मरा जान कर छोड़ जाती है), लोहा सिंह को व्यवस्था से भी कोई डर नहीं! लोहा सिंह एक ठिगना सा आम आदमी ही क्यों हो, आप को उसमें बॉलीवुड के तक़रीबन-तकरीबन सारे एंटी-हीरोज़ की झलक देखने को मिल जायेगी। तो अगर लोहा सिंह फिल्म का एंटी-हीरो है, हीरो कौन है? कानपुर बिजली सप्लाई कंपनी की नयी मैनेजिंग डायरेक्टर रितु माहेश्वरी बिजली चोरी रोकने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती। कानपुर जैसे शहर में, और कानपुर ही क्यों? ऐसे हर शहर में जहां लोग जरूरत की सारी सुविधाएं मुफ्त में लेने को मरे जाते हों, ये नामुकिन सा ही लगता है.

फ़हाद मुस्तफ़ा और दीप्ति कक्कड़ की 'कटियाबाज़' उन चंद डॉक्यूमेंटरी फिल्मों में से है, जिनमें मनोरंजन और ड्रामा की भरपूर गुंजाइश है. सच्ची घटनाओं को एक सुगढ़ नाटकीय तरीके से पेश करने की उम्दा कोशिश! प्रसिद्द म्यूज़िक बैंड 'इण्डियन ओसीन' का गंवई अंदाज़ और उस पर वरुण ग्रोवर के ठेठ गीत एकदम सटीक बैठते हैं, फिल्म के कथानक और उसके मूड के हिसाब से. फिल्म में ऐसे मजेदार दृश्यों की भरमार है जो आपको शायद ही किसी बॉलीवुड फिल्म में देखने को मिलें, मसलन बिजली चोरी रोकने के लिए बनाया गया स्क्वाड जो कटिया के तारों को बाकायदा सबूत की तरह सँभालते दिखते हैं. पर 'कटियाबाज़' को एक बेहतर फिल्म बनाती है उसकी संवेदनशीलता, एक तगड़ी पकड़ उन इमोशंस पर जो शायद हम देखना भी नहीं चाहते! एक दबंग नेता के चलते जब रितु माहेश्वरी का तबादला हो जाता है और लोग उनके विदाई समारोह में उनकी प्रशंसा के गीत गा रहे होते हैं, गुलदस्तों के ढेर के बीच बैठी एक नेक नीयत आईएएस अफसर के अंदर का खालीपन आपको अंदर तक कचोट जाता है. ऐसा ही कुछ फिल्म के अंत में देखने को मिलता है, जब शराब के देसी ठेके पर लोहा सिंह को उसकी कटियाबाज़ी के काम के लिए दुत्कार मिलती है. फिल्म के ये दोनों किरदार कभी आपस में मिलते नहीं, पर एक-दूसरे से जाने-अनजाने काफी कुछ बांटते हैं.

'कटियाबाज़' 85 मिनट की सिर्फ एक फिल्म नहीं है, 'कटियाबाज़' हम सबकी ज़िंदगी का एक हिस्सा है जहां ड्रामा, एक्शन, इमोशन सब असल का है. अगर आपको लगता है डॉक्यूमेंटरी सिर्फ कुछ चुनिंदा, बहुत ही संजीदा किस्म के लोगों के लिए ही बनती और बनायीं जाती हैं, आप 'कटियाबाज़' ज़रूर देखें। ये आपकी अपनी फिल्म है और आप ही के लिए बनाई गयी है! [3.5/5] 

No comments:

Post a Comment