Friday 11 November 2016

रॉक ऑन 2: बैंड बज गया! [2/5]

अभिषेक कपूर की ‘रॉक ऑन’ कुछ आठ साल पहले आई थी. यारी, दोस्ती, मस्ती और म्यूजिक के बीच रिश्तों में उतार-चढ़ाव और हाथ-धो कर सपनों के पीछे पड़ जाने की जिद लिए कुछ मनमौजी दोस्तों की कहानी, जहां कभी खुदगर्ज़ी और खुद्दारी दूरियाँ बढ़ा देती थी तो म्यूजिक के लिए उनका साझा ज़ज्बा नाराज दोस्तों के हाथ खींच कर गले भी मिला देती थी. शुजात सौदागर की ‘रॉक ऑन 2’ ने आने में थोड़ी देर ज़रूर लगायी है, पर ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ के साथ इन्साफ बिलकुल नहीं करती. ‘रॉक ऑन’ अगर पुराने लव लैटर की तरह है, जिसके गुलाबी पन्ने अभी भी उनको छूने वाली नरम मुलायम उँगलियों का एहसास कराते हैं, जिसकी सियाही अब भी बंद लिफाफे से ही एक जानी-पहचानी खुशबू बिखेरती रहती है, तो ‘रॉक ऑन 2’ उसी पुराने लव लैटर की एक ज़ेरॉक्स कॉपी भर है. देखने में कमोबेश वैसा ही, पर रंग बासी और खुशबू बेअसर.

सालों बीत गए हैं. इतने कि आपको फ्लैशबैक में बार-बार ले जाया जा सके. केडी (पूरब कोहली) क्लाइंट्स के इशारों पर म्यूजिक बनाते-बनाते थक गया है. जो (अर्जुन रामपाल) एक रेस्टो-बार चलाता है और साथ ही, म्यूजिक रियलिटी शोज़ में टीआरपी दिलाने वाले बेहूदा कलाकारों को जज करता है. आदी (फरहान अख्तर) अब मेघालय के किसी गाँव में लोगों की सेवा में लगा रहता है. ‘मैजिक’ का कहीं कोई अता-पता नहीं. मैजिक की जगह अब ‘ट्रैजिक’ ने ले ली है. कहने को तो सारे दोस्त (बीवियों को गिनते हुए) आपस में मिलते-जुलते हैं, पर अन्दर ही अन्दर म्यूजिक छूट जाने का ग़म पाले बैठे हैं. तीनों के लिए उम्मीद की थोड़ी बहुत रौशनी लेकर आते हैं उदय (शशांक अरोरा, तितली वाले) और जिया (श्रद्धा कपूर), पर अभी बहुत कुछ कहानी फ्लैशबैक के काले दरवाजे के पीछे आपका इंतज़ार कर रही है.

रॉक ऑन 2’ एक बेहद उदास फिल्म लगती है, अपने किरदारों की उदासियों, मुश्किलों और परेशानियों की वजह से नहीं, बल्कि अपने थकाऊ गीतों, कहानी और परफॉरमेंस में उस ‘जादू’ के न होने से, जो ‘रॉक ऑन’ में हम पहले ही जी चुके हैं. ‘रॉक संगीत’ को पूरी तरह अपनाने वाले ‘मेरी लांड्री का एक बिल’ जैसे गानों की ताजगी को अब ज़िन्दगी के भारी-भरकम फलसफों वाली लाइनों ने कब्ज़े में ले लिया है. सहज, स्वाभाविक और कुदरती अभिनय को छोड़कर अब ड्रामेबाजी पर ज्यादा भरोसा दिखाया जाने लगा है. आठ साल पहले, दोस्ती के जिन मजेदार और निजी पलों को आप परदे पर महसूस करने में कामयाब रहे थे, अब वैसे पल फिल्म में न के बराबर हैं. उनकी जगह नए किरदारों की पेशोपेश अब आपको ज्यादा तंग करती है. फिल्म में संवाद, खासकर उन हिस्सों में जहां बार-बार केडी दर्शकों को कहानी सुनाने-समझाने की जिम्मेदारी ले लेता है, बेहद नाटकीय और फीके लगते हैं.

कहते हैं, संगीत सब दर्द भुला देता है. फिल्म में ऐसा सिर्फ एक या दो ही बार होता है. श्रद्धा की आवाज़ में गाये गीत और फिल्म के अंतिम क्षणों में म्यूजिक कॉन्सर्ट का पूरा हिस्सा (ऊषा उत्थुप  वाला गीत) ऐसे ही कुछ गिने-चुने पल हैं, जब फिल्म का संगीत आपको पूरी तरह बांधे रखने में कामयाब रहता है. अभिनय की दृष्टि से लगभग सभी मुख्य कलाकार एकदम से निराश तो नहीं करते, पर अपने आपको बेहिचक दोहरा रहते हैं. पूरब और अर्जुन अच्छे हैं. फरहान औसत हैं. श्रद्धा अपनी दूसरी फिल्मों से काफी बेहतर हैं. फिल्म में श्रद्धा के भाई और कुमुद मिश्रा के बेटे की भूमिका में प्रियांशु पैन्यूली काफी उम्मीद जगाते हैं.

आखिर में, ‘रॉक ऑन 2’ एक ऐसा सीक्वल है, जिसके न होने की वजहें बहुत सारी हो सकती थीं, और होने के बहाने बहुत कम. इसे देखना या झेलना किसी ऐसे कॉन्सर्ट से कम नहीं, जिसमें आपके पसंदीदा कलाकार तो हैं, पर उन्हें गाते हुए सुनने से ज्यादा आप उन्हें उदास चेहरे लिए घूमते देख रहे हैं. [2/5]             

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