Friday 17 March 2017

ट्रैप्ड: हिंदी सिनेमा का एक नया अध्याय! [4/5]

दो दुनिया है यहीं कहीं, इक अदृश्य रेखा से बंटी-कटी. जब आप इधर नहीं होते, तो उधर होते हैं; उधर नहीं तो पक्का इधर. एक दुनिया, जहां बहरे होते जा रहे हैं हम. जरूरतों के पीछे की अंधाधुंध दौड़ में, मानवीय संवेदनाओं को सुनने-समझने-देखने की ताकत खोते जा रहे हैं. भीड़ का शोर दूसरी दुनिया से आ रही उस एक अदद आवाज़ को हमारे कानों तक पहुँचने ही नहीं देता, जिस से जुड़ कर हम खुद को ही खोने से बचा सकते हैं. इस दुनिया में, कानों पे एक अलग ही किस्म का रेडियो चिपका रक्खा है हम सभी ने, फरमाईशी फ़िल्मी संगीत का छलावा जिसमें जोरों से थाप दे रहा है. यहाँ अपनी अपनी छतों पे चढ़ कर आसमान में आँखें बोने का चस्का तो सभी को है, पर मदद की गुहार में ज़मीनी सतह से उठते दूसरी दुनिया के हाथ चाह कर भी हमें दिखाई नहीं देते.

मजेदार है कि दूसरी तरफ भी हमीं हैं. इस भीड़ भरी दुनिया से अलग-थलग पड़ जाने का डर पाले, बंद कमरे के अन्दर से दरवाजे पीटने, खिड़कियों की सलाखें पकड़ के ‘बचाओ-बचाओ’ चीखने को मजबूर. जाल और जंजाल तो दोनों ही तरफ हैं, मगर इस दुनिया का संघर्ष तोड़ कर रख देता है. सामाजिक मान्यताओं के खंडन से लेकर व्यक्तिगत पराक्रम की पराकाष्ठा तक, सब कुछ अपने चरम पर. विक्रमादित्य मोटवाने की ‘ट्रैप्ड’ एक ऐसी ही सशक्त फिल्म है, जो एक बंद कमरे के सीमित दायरे में घुटती, लड़ती, जूझती और अंततः जीतती जिन्दगी के हौसले का सम्पूर्ण सम्मान और सत्कार करती है. हॉलीवुड में भले ही आपने ‘127 आवर्स’ या ‘बरी’ड’ जैसी फिल्में बहुत देखी हों, हिंदी सिनेमा में इस तरह का प्रयास अपनी तरह का एकलौता है, और बेहतरीन भी.

मुंबई जैसे महानगर में शौर्य (राजकुमार राव) जैसे नौकरी-शुदा प्रेमियों के लिए शादी की पहली शर्त, रहने का एक अच्छा ठिकाना ही होती है. नूरी (गीतांजलि थापा) अब उसके दोस्तों की जमात वाले एक कमरे के फ्लैट में तो रहने से रही. खैर, जुगाड़ काम आया और शौर्य को 35वें फ्लोर पर एक सही फ्लैट मिल गया है. भीड़-भाड़ वाला इलाका है, पर बिल्डिंग एकदम सुनसान. कानूनी मामलों में फँसी ऐसी बियाबान इमारतें मुंबई जैसे महानगरों में हैरत की बात नहीं, पर किसे अंदाज़ा था कि अगली ही सुबह जब शौर्य गलती से अपने ही फ्लैट में कैद हो जाएगा, तो उसके लिए वहाँ से निकलने में दो-चार घंटे, या एक-दो दिन नहीं, पूरे 21 दिन लग जायेंगे? मैं जानता हूँ, आप इस एक लाइन के ख़त्म होते-होते तक अपने उपायों, सवालों और सुझावों की लम्बी फेहरिस्त के साथ तैयार हो जायेंगे कि ऐसा होना किस हद तक नामुमकिन है, खास कर मुंबई जैसे शहर और आजकल के प्रबल तकनीकी दौर में? पर विक्रमादित्य मोटवाने जैसे ठान कर बैठे हों कि आपको मनवा के ही छोड़ेंगे. और उनकी इस कोशिश में उनका पूरा-पूरा साथ देते हैं राजकुमार राव. उनकी झल्लाहट हो, डर हो, खीझ हो, विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की जिद हो या फिर नाउम्मीदी में टूट कर बिखरने और फिर खुद को समेट कर उठ खड़े होने का दम; राव अविश्वसनीय तरीके से पूरी फिल्म को अपने मज़बूत कंधे पर ढोते रहते हैं. फिल्म की दमदार कहानी, अपने सामान्य से दिखने वाले डील-डौल की वजह से राव पर हमेशा हावी दिखाई देती है, जिससे दर्शकों के मन में राव के किरदार के प्रति सहानुभूति का एक भाव लगातार बना रहता है, पर धीरे-धीरे जब राव अपने ताव बदलते हैं, फिल्म उनकी अभिनय-क्षमता के आगे दबती और झुकती चली जाती है.

ट्रैप्ड’ की सबसे बड़ी खासियत है, एक ही लोकेशन पर सिमटे रहने के बावजूद आपको घुटन महसूस नहीं होने देती. आप खुद भी उस एक कमरे से बाहर निकलने की राह जोहते रहते हैं, पर ऐसा सिर्फ उस किरदार से जुड़ाव की वजह से होता है. बहरी बाहरी दुनिया का ध्यान खींचने के लिए, जब जब शौर्य कोई नयी जुगत लगाता है, आप उसके लिए तालियाँ पीटते हैं, पर जब कुछ भी काम नहीं आता, आप ही उसके साथ झल्लाते भी हैं. मोटवाने अपने लेखकों के साथ मिलकर इतनी मुस्तैदी से सारा ताना-बाना बुनते हैं कि शिकायत करने को ज्यादा कुछ रह नहीं जाता. घर को आग के हवाले कर देने से लेकर, खून से तख्तियां लिख-लिख कर बाहर फेंकने, यहाँ तक कि टीवी को खिड़की से नीचे गिराने तक की सारी जद्दो-जेहद आपको इस ‘बिना इंटरवल की फिल्म’ में शुरू से लेकर अंत तक कुर्सी से बांधे रखती है.

आखिर में; ‘ट्रैप्ड’ भारतीय सिनेमा में ‘सर्वाइवल ड्रामा’ का एक नया अध्याय बड़ी ईमानदारी और पूरी शिद्दत से लिखती है. किशोरावस्था की चुनौतियों से लड़ते ‘उड़ान’ और सिनेमाई परदे की क्लासिक प्रेम-कहानियों को श्रद्धांजलि देती ‘लुटेरा’ के बाद; विक्रमादित्य मोटवाने की ये छोटी सी फिल्म हिंदी सिनेमा के बड़े बदलाव का एक अहम् हिस्सा है. एक ऐसी फिल्म, जिस पर फ़िल्मी दर्शक के रूप में आपको भी नाज़ होगा. कुछ ऐसा जो आपने हिंदी सिनेमा में पहले कभी नहीं देखा; तो जाईये, देख आईये! [4/5]

1 comment:

  1. Gaurav Bhai, aapke review Bina 'bollymoviereviewz' adhura hai. Mai 'trapped' ki review padhne ko aatur tha, akhir me aaj mujhe ye link Mila.
    Thanks for review.

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