Friday 12 May 2017

सरकार 3: कंपनी नई-माल वही! [1/5]

‘फैक्ट्री’ बंद हो चुकी है. ‘कम्पनी’ खुल गयी है. बाकी का सब कुछ वैसे का वैसा ही है. पुराने माल को उसी पुराने बदरंग पैकेजिंग में डाल कर वापस आपको बेचने की कोशिश की जा रही है. अपनी ही फिल्म के एक संवाद ‘मुझे जो सही लगता है, मैं करता हूँ’ को फिल्ममेकर राम गोपाल वर्मा ने अपनी जिद बना ली है. ‘सरकार 3’ जैसी सुस्त, थकाऊ और नाउम्मीदी से भरी तमाम फिल्में, एक के बाद एक लगातार अपने ज़माने के इस प्रतिभाशाली निर्देशक को उसके खात्मे तक पहुंचाने में मदद कर रही हैं. तकनीकी रूप से फिल्म-मेकिंग में जिन-जिन नये, नायाब तजुर्बों को रामगोपाल वर्मा की खोज मान कर हम अब तक सराहते आये थे, वही आज इस कदर दकियानूसी, वाहियात और बेवजह दिखाई देने लगे हैं कि दिल, दिमाग और आँखें परदे से बार-बार भटकती हुई अंधेरों में सुकून तलाशने लगती है. और ऐसा होता है, क्यूंकि रामगोपाल वर्मा के सिनेमा की भाषा अब बासी हो चली है. पानी ठहरा हुआ हो, तो सड़न पैदा होती ही है. अपने दो सफल प्रयासों (सरकार और सरकार राज) के बावजूद, ‘सरकार 3’ से उसी सड़न की बू आती है.

अपने दोनों बेटों की मौत के बाद भी, सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) का दम-ख़म अभी देखने लायक है. ठीक ‘सरकार’ की तरह, फिल्म के दूसरे-तीसरे दृश्य में ही नागरे एक बिज़नेसमैन का गरीब बस्तियों को हटाने के लिए करोड़ों का ऑफर ठुकराते हुए कहते हैं, ‘मैं नहीं करूंगा, और किसी को करने भी नहीं दूंगा’. इस बीच उनका पोता शिवाजी (अमित साध) भी लौट आया है. उधर विरोधी भी एकजुट होने लगे हैं. गोविन्द देशपांडे (मनोज बाजपेई) राजनीति के गंदे खेल का सबसे नया-नवेला चेहरा है. दुबई में बैठा वाल्या (जैकी श्रॉफ) अंडरवर्ल्ड की कमान संभाले है. साथ ही, शिवाजी की प्रेमिका अनु (यामी गौतम), जिसके पिता की हत्या सरकार ने करवा दी थी. षड्यंत्र और विश्वासघात से बुनी इस बिसात पर कोई नहीं कह सकता कि कौन सा मोहरा किस करवट बैठेगा? ‘सरकार 3’ एक बार फिर सरकार की सोच को सही साबित करने और उसकी शक्ति को बरक़रार रखने की लड़ाई है.

फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी है, फिल्म की बेतरतीब पटकथा और हद बनावटी संवाद. रामगोपाल वर्मा से बेहतर स्क्रिप्ट या कहानी की समझ रखना तो बेवकूफी है ही, इस बार फिल्म-लेखकों की टीम भी बुरी तरह निराश करती है. फिल्म का कोई भी हिस्सा आपको चौंकाने में सफल नहीं होता, बल्कि अपनी चौकन्नी समझ से आप खुद कदम-दो कदम आगे ही रहते हैं. फिल्म के संवाद बड़ी बेशर्मी से न सिर्फ अपने आप को दोहराते हैं, बल्कि सुनने में ही इतने बेस्वाद और बकवास लगते हैं कि कभी-कभी लगता है, उन्हें बोलते वक़्त अभिनेताओं की अपनी समझ कहाँ घास चरने चली गयी थी? मनोज बाजपेयी जैसे दिग्गज अभिनेता परदे पर 3 मिनट तक लगातार बोल रहे हों, और आप में तनिक भी जोश-ओ-ख़रोश पैदा न हो, तो गलती अभिनेता में नहीं, उन बेदम अल्फाजों में है जो आपने उन्हें परोसे हैं. फिल्म के शुरूआती दृश्य में ही, अमिताभ बच्चन परदे पर बूढ़े शेर की तरह दहाड़ रहे हैं, पर अफ़सोस! आपका ध्यान खींचने के लिए सिर्फ उनकी आवाज़ ही काफी नहीं है. ‘शेर की खाल पहन लेने से कोई कुत्ता शेर नहीं बन जाता’, ‘शेर कितना भी शक्तिशाली हो, जंगली कुत्ते मिलके शेर का शिकार कर ही लेते हैं’, ऐसे घटिया संवादों से भरी फिल्में मुझे वीसीआर के ज़माने में अच्छी लगती थीं.

फिल्म का तकनीकी पहलू भी उतना आजमाया हुआ है. फिल्म के सेट पर मौजूद किसी भी चीज़ का वहाँ पाया जाना सिर्फ एक ही जरूरत पूरी करता है, कैमरे की फ्रेमिंग को लेकर रामगोपाल वर्मा का पागलपन. टेबल पर पड़ा चश्मा हो, हाथ में कॉफ़ी का मग, चाय का कप, फर्श पर पत्थर का बना कुत्ता, कोने में खड़ा ‘लॉफिंग बुद्धा’; कभी न कभी सबको कैमरे के सामने आना ही है, वो भी पूरे क्लोज-अप में. वर्मा जाने किस ग़लतफहमी का शिकार फिल्ममेकर हैं, जो आज भी जोशीले फिल्म-स्टूडेंट की तरह आईने में एक हल्का शॉट डिजाईन करते हैं, और खुद को के. आसिफ मान कर बैठ जाते हैं. मानो अपने हिस्से का ‘शीशमहल’ उन्होंने पा लिया. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर शोर-शराबे से भरा तो है ही, भड़काऊ भी है. जब भी आप सुनते हैं, आपको चीखने का मन करता है.

फिल्म की दो ही अच्छी बातें है. एक तो अमिताभ बच्चन, जो 12 साल बाद भी सुभाष नागरे के किरदार में उसी शिद्दत से फिट हो जाते हैं, जैसे पहली वाली ‘सरकार’ में. दूसरा मनोज बाजपेयी की अदाकारी, खास कर उस दृश्य में जहाँ वो राजनीति की तुलना समंदर की लहरों के साथ करते हैं. उनके किरदार का पागलपन उस दृश्य में सम्मोहित कर देता है. वरना तो पूरी फिल्म में हर अभिनेता खराब अभिनय की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलना चाहता है. हाँ, जाने क्यूँ जैकी श्रॉफ का किरदार हर वक़्त एक कम-अक्ल मॉडल के साथ दिखाया जाता है? यकीन नहीं होता, इसी रामगोपाल वर्मा ने ‘कंपनी’ में हमें मलिक (अजय देवगन) जैसा ज़मीनी गैंगस्टर भी दिया था.

आखिर में, ‘ गॉडफ़ादर’ से ‘सरकार सीरीज’ की तुलना करने वाले रामगोपाल वर्मा खुद कांति शाह से ज्यादा काबिल नज़र नहीं आते, खास कर हिंदी सिनेमा में उनके हालिया योगदान को देखते हुए. दोनों में ‘बैक टू बैक’ फिल्में बनाने का ज़ज्बा तो कूट-कूट कर भरा है, पर दोनों को ही अपने आप को खुश रखने से फुर्सत नहीं. सिनेमा जाता है गर्त में, तो जाये, मेरी बला से! तकलीफ ये है, कि चाहकर भी 25 सालों से हिंदी फिल्में बनाने वाले रामगोपाल वर्मा हिंदी में मेरे ये जज़्बात पढ़ नहीं पायेंगे. तो सवाल ये है कि अब उन्हें ‘सरकार 4’ बनाने से रोकेगा कौन? [1/5]             

No comments:

Post a Comment