Friday 2 June 2017

अ डेथ इन द गंज: रोचक, रोमांचक! इंसानी फ़ितरतों का ‘गंज’! [4/5]

सन् 1979 का मैकक्लुस्कीगंज बस यूँ ही ‘अ डेथ इन द गंज’ का हिस्सा नहीं है. रांची से सटे इस छोटे से पहाड़ी इलाके का एक अपना रोचक किरदार है, जो फिल्म में वक़्त-बेवक्त खुलता रहता है. साहब लोगों का क़स्बा है ये. एंग्लो-इंडियन साहब लोग, जो जितनी दिलचस्पी से संथाली लोकगीतों पर नाच लेते हैं, उतनी ही तबियत से नए साल का जश्न मनाते हुए स्कॉट्स भाषा के गीत ‘ऑल्ड लैंग साईन’ को भी एक सुर में दोहराते हैं. जंगलों से घिरे, ठण्ड के सफ़ेद धुएं ओढ़े बड़े से एक बंगले में, ऐसे ही एक परिवार के साथ वक़्त बिताने का मौका देती है ‘अ डेथ इन द गंज’! पूरे एक हफ्ते के फ़िल्मी वक़्त में ऐसे किरदारों के साथ, जिनकी नीयत, जिनकी तबियत और जिनकी सीरत में आप अपने आप को ही कट-कट कर बंटते हुए देखते हैं. किसी के साथ ज़्यादा, किसी के साथ थोड़ा कम.

नीली अम्बेसडर में नंदू (गुलशन देवैया) अपनी बीवी बोनी (तिलोत्तमा शोम) और बच्ची तानी (आर्या शर्मा) के साथ कलकत्ता से मैकक्लुस्कीगंज अपने घर जा रहा है. साथ में, बोनी की सहेली मिमी (कल्कि कोचलिन) और मौसेरा भाई शुटू (विक्रांत मैसी) भी हैं. माँ (तनूजा) घर की बेतरतीबी को कोस रही हैं, तो बाप (ओम पुरी) रम के पैग बना-बना पेश कर रहा है. जल्द ही, महफ़िल जमने लगती है. लंगोटिए दोस्त विक्रम (रणवीर शौरी) और ब्रायन (जिम सरभ) भी आ पहुंचे हैं. एक-दो दिन में ही सबके चेहरे से धूल हटने लगती है, और अन्दर की कालिख़ गहराने लगती है. इंसानी फितरतें खुल कर सामने आने लगती हैं. किसी एक कमज़ोर पर झुण्ड में दाना-पानी लेकर चढ़ जाने का खेल किसने नहीं खेला होगा? रात को सोने से पहले भूतों का जिक्र, दोपहर में अपने-अपने कमरों में घंटे-दो घंटे के लिए पसर जाने का सुख, एक शाम सबके लिए खाना बनाने का पूरा तामझाम; और इस बीच घर पे काम करने वाली औरत का अपने मरद से पूछना, “कब जइहें ई लोग? इतना काम करे के पड़त है”!

माहौल से नरमी सूखने लगी है. बाप देर रात को उठकर कमरे तक आता है, कुछ खोज रहा है, जाने क्या? बेटा शतरंज की बाज़ी लगाए बैठा है, पूछता है, “आपको कुछ चाहिए?”  “नहीं, भाई! तुम खेलो न”. बेटा अब भी अड़ा है, “सुबह खोज लीजियेगा”, बाप झुंझला के बोल पड़ता है, “बाप मैं हूँ या तुम?” अगले दृश्य में बाप फिर कुछ खोजते हुए बड़बड़ा रहा है, “इस घर में कुछ भी रख दो, मिलता ही नहीं”. कुछ और भी दफ़न है इस घर में, हँसते चेहरों के पीछे. कुछ छुपे हुए सच, कुछ दबी हुई चाहतें, हसरतें, घुटन, कुढ़न, बहुत कुछ. डर यही है कि जब खुलेगा तो अपनी चपेट में किसको लील लेगा? आप और हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं, ठीक ठीक कह नहीं सकते.

‘अ डेथ इन द गंज’ कोंकना सेन शर्मा के पिता मुकुल शर्मा की कहानी पर आधारित है, जिसे परदे पर पसारते वक़्त, कोंकना महान फ़िल्मकार सत्यजित रे की ‘अरण्येर दिन रात्रि’ से ख़ासा प्रभावित और प्रेरित दिखाई देती हैं, पर शुरू-शुरू के झिझक के बाद आपके लिए जानना मुश्किल नहीं रह जाता कि यह समानता सिर्फ कहानी कहने की कला, बनावट और सजावट तक ही सीमित है, उसके बाद कोंकना जब अपनी छाप छोड़ती हैं, तो उनकी दखलंदाजी पूरी तरह उनकी अपनी होती है. चाहे वो 1979 के वक़्त को दीवाल पर घड़ी की तरह टांकने की हो, या फिर किरदारों के पसंद-नापसंद को माहौल से जोड़े रखने की. कोंकना जिस तरह दृश्यों की परिकल्पना तैयार करती हैं, सिनेमा की एक नयी, बुलंद आवाज़ बन कर उभरती हैं. नए साल के जश्न के बीच, बंगले के एक अँधेरे हिस्से में नौकर दम्पति सूखे चावल निगल रहा है. उन्हीं के साथ साहब लोगों का कुत्ता भी.

अभिनय की नज़र से फिल्म का हर कलाकार अपने चरम पर बैठा आपको अपनी तरफ खींचता है. रणवीर शौरी अगर अपनी अकड़ और तेवर से करिश्माई लगते हैं, तो गुलशन की ईमानदारी उनके झुंझलाहट वाले दृश्यों में साफ़ नज़र आती है. तिलोत्तमा बेहतरीन हैं. तनूजा जी को वापस परदे पर देखना अच्छा लगता है. एक दृश्य में कोंकना उन्हें खर्राटे लेते हुए दिखाती हैं. ये एक दृश्य दोनों के बारे में बहुत कुछ कह जाता है. कल्कि अपनी बेबाकी में अव्वल हैं, पर फिल्म में सबसे ख़ास, सबसे आगे अगर कोई मशाल लिए खड़ा दिखता है, तो वो हैं विक्रांत मैसी! विक्रांत चेहरे पर अलग-अलग भाव एक के बाद एक यूँ और इतनी सफाई से बदलते हैं, जैसे कोई टेलीविज़न पर चैनल बदल रहा हो. दर्शकों से जुड़ाव कायम करने में विक्रांत कुछ इस हद तक सफल रहते हैं कि जब वो परदे पर नहीं भी होते, या कहीं पीछे चुपचाप खड़े भी, तो भी उनके लिए आपकी फ़िक्र जैसे की तैसे ही रहती है. कोई शक ही नहीं, ये साल की सबसे ख़ास और चुनिन्दा परफॉरमेंसेस में से एक है. एक ऐसी परत-दर-परत अदाकारी, जिसे पूरी तरह जानने-समझने के लिए बार-बार देखा और सराहा जाना चाहिए.

आखिर में, ‘अ डेथ इन द गंज’ उन चंद रोमांचक बॉलीवुड फिल्मों में से है, जो आपके अन्दर सिहरन पैदा करने के लिए कोई झूठा खेल नहीं रचतीं, बल्कि आपको उस माहौल में हाथ पकड़ कर खींच ले जाती हैं, जहां आप हर वक़्त अपने दिल-ओ-दिमाग़ के साथ ‘जो हुआ, वो कैसे हुआ’, ‘जो हुआ, वो किसके साथ हुआ’ और ‘जो हुआ, वो कब होगा’ की लड़ाई लड़ते रहते हैं. ‘अ डेथ इन द गंज’ इस साल की ‘मसान’ है, उतनी ही ईमानदार, उतनी ही संजीदा, उतनी ही रोचक! [4/5]     

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