Friday 13 April 2018

अक्टूबर: एक उदास कविता और साल की सबसे अच्छी फिल्म! [5/5]

शिउली (बनिता संधू) कोमा में है. फिर से सब कुछ ठीक होने की उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही है. आईसीयू में उसके सामने खड़ा दानिश (वरुण धवन) बेपरवाह बोले जा रहा है, “कोई जल्दी नहीं. जिंदगी चलाने के लिए कुछ दिन मशीनों का सहारा ले लो. मेरी भी बाइक ख़राब हो जाती है, मैं धक्का देता हूँ न. वेंटीलेटर भी तो एक धक्का ही है. दानिश की इस उम्मीद का कोई सिरा नहीं है, वो जिस समन्दर में जिंदगी की सुनहली मछली ढूँढने उतरा है, उसकी तलहटी भी अपने आप में एक आसमान ही है. उदासी, खालीपन और अधूरेपन का आसमान. शिउली उसके साथ ही काम करती थी, मगर जान-पहचान बस नाम की. अब अगर कुछ उसे शिउली तक खींच लाया है तो सिर्फ एक सवाल, जो शिउली ने अपने साथ हुए हादसे से बिलकुल पहले पूछा था, डैन (दानिश) कहाँ है?”  

शूजित सरकार की अक्टूबर परदे पर एक ऐसी ज़ज्बाती कविता है, जिसमें बहे जाने का अपना ही एक अलग मज़ा है. एक ऐसी कविता जिसमें दो दिल तो हैं, पर जो प्रेम-कहानियों के पुराने धागों से बंधे होने या बंधने की परवाह बिलकुल नहीं करते. जिंदगी तब नहीं चल रही होती, जब आपको लगता है, चल रही है. जिंदगी चलना तब शुरू करती है, तब अचानक ही एक ठहराव आपके ठीक सामने आ जाता है. उदासी भी खूबसूरत हो सकती है, खालीपन भी आपसे घंटों बातें कर सकता है और किसी की आंखों की पुतलियों के दायें-बायें होने भर से आपका दिल भर जाये, अक्टूबर बड़ी संजीदगी, पूरे ठहराव और बहुत तबियत से ये कर दिखाती है.

दानिश दिल्ली के एक फाइव-स्टार होटल में स्टाफ के तौर पर अपना डिप्लोमा पूरा कर रहा है. बोलता बहुत है, जिद्दी है, लोगों से उलझता रहता है. जिंदगी चल रही है, मगर उसका कहीं कुछ नहीं चल रहा. आपकी मण्डली का वो दोस्त, जो बेवजह अस्पताल की रिसेप्शनिस्ट से डॉक्टरों का टाइम-टेबल पूछने लग जाये, अपनी जनरल नॉलेज के लिए. जूही चतुर्वेदी अपने अनूठे किरदारों की बारीकियों के लिए जानी जाती हैं, वो बारीकियां जो आम सिनेमा के लिहाज़ से जरूरी भले ना लगती हों, पर जिनका होना और जिनके होने को देख पाने की ललक और रोमांच एक चौकन्ने दर्शक के तौर पर हमेशा आपको आकर्षित करती है. मसलन, वो एक दृश्य जहां दानिश अस्पताल में पोछा लगते वक़्त, सबको पैर ऊपर करके बैठने की सलाह दे रहा है.

अक्टूबर जूही चतुर्वेदी के निडर लेखन, शूजित सरकार के काबिल निर्देशन और वरुण धवन के सहज, सरल और सजीव अभिनय का मिला-जुला इत्र है, जो फिल्म ख़तम होने के बाद तक आपको महकता रहेगा, महकाता रहेगा. बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ करने की दौड़ चल रही हो, और ऐसे आप सिनेमा के लिए अक्टूबर जैसा कुछ बेहद खुशबूदार, खूबसूरत और ख़ास लिख रहे हों, किसी बड़े मजे-मंजाये फिल्म-लेखक के लिए भी इतनी हिम्मत जुटाना हिंदी सिनेमा में आसान नहीं है. ऐसा होते हुए भी हमने कम ही देखा है. जूही चतुर्वेदी इस नक्षत्र का एकलौता ऐसा सितारा हैं. शूजित दिल्ली की गलियों का संकरापन पहले ही नाप चुके हैं, इस बार उनका कैनवस होटल और हॉस्पिटल तक ही सिमट कर रह गया है, फिर भी अविक मुखोपाध्याय के कमाल कैमरावर्क से वो हर फ्रेम में एक नया रंग ढूंढ ही लेते हैं.

वरुण को दानिश बनते देखना बेहद सुकून भरा है. यकीन मानिए, जुड़वा 2 की शिकायतें आपको याद भी नहीं आतीं. रंग बदलना, ढंग बदलना और अपने किरदार में तह तक उतरते चले जाना; ताज्जुब नहीं, वरुण अभिनय-प्रयोगों में अपने समकालीन अभिनेताओं से काफी आगे निकल गये हैं. बनिता प्रभावशाली हैं. फिल्म के सह-कलाकार भी उतने ही मज़बूत हैं, खास तौर पर शिउली की माँ की भूमिका में जानी-मानी एनिमेटर/फिल्ममेकर गीतांजली राव. हिंदी सिनेमा में धीर-गंभीर माओं की जगह घटती जा रही है, राव अच्छा विकल्प बन सकती हैं.

आखिर में, अक्टूबर आसान फिल्म नहीं है. मगर एक ऐसी मुकम्मल फिल्म, जो अपनी तरफ से एक नयी पहल करने, एक नया बदलाव रचने में कहीं कोई भूल नहीं करती. सिनेमा से आप बहुत कुछ उम्मीद करते हैं, अक्टूबर आपसे उम्मीद रखती है. फूलों के बगीचे में टहलना हो, तो अपने जॉगिंग वाले जूते बाहर उतार कर आईये. नंगे तलवों में ओस की ठंडक ज्यादा महसूस होती है. साल की सबसे अच्छी फिल्म! [5/5]

2 comments:

  1. वाह भाई.. आपकी ये समीक्षा भी अपने आप में एक मुकम्मल कविता है.. फिल्म को बड़ी संवेदनशीलता से परखा है..शुक्रिया.

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    1. Shukriya, Sir! Padhte rehiye, aur apni raay aur sujhaav batate rehiye!! :)

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