Wednesday 15 August 2018

गोल्ड: नक्कालों से सावधान! [2/5]

स्पोर्ट्स फिल्म बनाने में मेहनत लगती है. मैच असली लगने चाहियें. खिलाड़ियों का जोश, मैदान में उनकी रफ़्तार, उनका तालमेल स्क्रीन पर सब कुछ असल की शक्ल में दिखाई देना चाहिए. उम्दा, लायक और भरोसेमंद सिनेमाई तकनीक यहाँ पर बहुत अहम् रोल अदा करती है. जबकि बायोपिक बनाने में वक़्त और मेहनत दोनों लगती है. रिसर्च यहाँ तकनीक पर हावी हो जाती है. घटनाओं और किरदारों की सच्चाई जब दांव पर हो, तो फिल्मकार के तौर पर आपकी समझ भी कठघरे में पूरे वक़्त एक पाँव पर खड़ी रहती है. हालाँकि इस कठिन हाल से साफ़-साफ़ बच कर निकलने का एक बेहद आजमाया हुआ नुस्खा भी मौजूद है बॉलीवुड में. नायक को देशभक्ति की घुट्टी पिलाकर और दर्शकों को सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान सुनाकर बड़ी आसानी से पतली गली पकड़ी जा सकती है. आपसे किसी तरह का और कोई सवाल किया ही नहीं जाएगा. रीमा कागती की गोल्ड यही करती है. एकदम यही. साधारण स्क्रिप्ट, जबरदस्ती का नायक, बनावटी ड्रामे, कहानी में उधार के उतार-चढ़ाव और घटिया दर्जे के कंप्यूटर ग्राफ़िक्स; और इन सब पर देशभक्ति का चमकीला पर्दा डालने के लिए इतिहास की एक (असल की रोमांचक) घटना और उनके इर्द-गिर्द ढेर सारे बनावटी चोचले.

दौर आज़ादी से ठीक पहले का है. बच्चे क्रिकेट नहीं खेलते, हॉकी के दीवाने हैं. देश की टीम ओलंपिक्स में 3 गोल्ड जीत चुकी है, पर सारे के सारे ब्रिटिश इंडिया के खाते में दर्ज हैं. भारत के पास मौका है ओलंपिक्स में तिरंगा लहराने का. कुछ सालों में आजादी भी मिलने वाली है, और ओलंपिक्स भी 12 साल बाद फिर से होने वाले हैं. तपन दास (अक्षय कुमार) घोर बंगाली है. बर्लिन ओलंपिक्स में सपना देखा था, अगले ओलंपिक्स में तिरंगा लहराने का. अब दो बार से ओलंपिक्स कैंसिल हो रहे हैं, तो शराब की लत पाल ली है. आने वाले ओलंपिक्स के लिए खिलाड़ियों को चुनने की जिम्मेदारी मिल भी गयी है, तो उसे कहाँ पता था कि भारत-पकिस्तान के बंटवारे में टीम का भी बंटवारा हो जाएगा. लिहाज़ा, शराब में फिर डूब जाने का मौका भी है, दस्तूर भी. जैसे तैसे नए सदस्यों के साथ टीम फिर से खड़ी होती भी है, तो जश्न के माहौल में पीने की सूरत फिर से बन जाती है. टीम अब अपने इस देवदास के बिना ही लन्दन ओलंपिक्स जा रही है. एक ऐसी टीम जिसमें कोई कोच नहीं है, 70 मिनट, सिर्फ 70 मिनट हैं तुम्हारे पास का ओजस्वी भाषण देने के लिए. तपन दास की शकल में सिर्फ एक मैनेजर ही था, जो अंग्रेजों से 200 साल का बदला लेने के लिए तत्पर है.

स्पोर्ट्स, देशभक्ति और बायोपिक की इस मिलीजुली सिनेमाई साजिश में 3 ख़ास खामियां हैं, जो गिनती की कुछ अच्छाइयों के मुकाबले बेहद भारी-भरकम हैं. गोल्ड स्क्रिप्ट के स्तर पर एक बेहद साधारण फिल्म है, जो अपना ज्यादातर हिस्सा शिमित अमीन की (अब तक की) बेहतरीन फिल्म चक दे! इंडिया से काफी हद तक उधार लेती है. कबीर खान (शाहरुख़ खान) की ही तरह यहाँ भी तपन दास एकलौता पूरी की पूरी टीम चुनता है, खड़ा करता है. यहाँ तक कि टीम में एक-दूसरे से जलने और होड़ रखने वाले खिलाड़ियों का ट्रैक भी कुछ इतना मिलता जुलता है, मानो दोनों एक-दूसरे का ज़ेरॉक्स हों. सेंटर फॉरवर्ड की पोजीशन पर खेलने की जिद पाले बैठे दो खिलाड़ी और उन्हीं के कन्धों और फैसलों पर टिका वो आखिरी मैच का निर्णायक गोल. गोल्ड बड़ी बेशर्मी से दंगल के उस कम दमदार, पर असरदार ड्रामे की भी नक़ल कर लेती है, जहाँ मैच में उस एक नायक का होना बेहद जरूरी है, पर एक साज़िश के तहत उसे स्टेडियम तक पहुँचने से रोक लिया जाता है.

दूसरी कमज़ोर कड़ी है, फिल्म का तकनीकी पहलू. खराब कंप्यूटर ग्राफ़िक्स के अलावा, गोल्ड में न तो मैच को रोमांचक बनाने वाले दांव-पेंच ही मौजूद हैं, ना ही उस तरीके का तेज़ रफ़्तार कैमरावर्क जो आपको मैदान पर होने का एहसास करा जाए. जहां चक दे! इंडिया में दिखाए गये मैच लंबे-लम्बे शॉट्स के साथ बड़ी समझ से डिजाईन किये हुए लगते थे, गोल्ड के मैच टुकड़ों और क्लोज-अप्स में ही सीमित रह जाते हैं. खिलाड़ियों को न तो हीरो बनने का ही वक़्त मिलता है, ना ही आपको उनकी क़ाबलियत से जुड़ने का. और अब आखिरी में, फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी, अक्षय कुमार. अक्षय एक सोची समझी रणनीति के तहत देश और देशभक्ति का राग अलापती फिल्मों का हिस्सा बनते आ रहे हैं. हालाँकि एक अभिनेता के तौर पर गोल्ड में किरदार से जुड़ने की उनकी कोशिश उनकी पिछली फिल्मों से सबसे ज्यादा नज़र आती है, पर उनके होने भर से ही कहानी में वजन आने की रही-सही उम्मीद भी जाती रहती है. किरदारों को कैरीकचर बना कर छोड़ देने में उनका कोई सानी नहीं.

अक्षय का एकरस अभिनय एक तरह से एक अच्छा मौका भी है, सनी कौशल, कुनाल कपूर और अमित साध जैसे सह-अभिनेताओं के लिए. सनी कौशल फिल्म का सबसे भरोसेमंद अभिनेता बनकर उभरते हैं. देश के लिए खेलने की आग पाले बैठे किरदार में सनी जैसे परदे पर अपने मौके का इंतज़ार ही कर रहे होते हैं. यहाँ तक कि प्रेम-प्रसंग वाले हलके-फुल्के पलों में भी सनी ही भारी पड़ते हैं, अक्षय पर भी. मौनी रॉय बंगाली फिल्म के लिए ऑडिशन देने आई किसी बहुत उत्साहित नयी लड़की से ज्यादा बेहतर या लायक नहीं लगतीं. अमित साध राजघराने से आये एक अकडू युवराज के किरदार में भी बेहद मनोरंजक लगते हैं. विनीत कुमार सिंह भी कतई निराश नहीं करते. बंटवारे से पहले आज़ाद भारत के कप्तान और बंटवारे के बाद पाकिस्तान की हॉकी टीम के कप्तान के रूप में उनके हाव-भाव में जो एक हल्का सा फर्क और पैनापन विनीत शामिल कर पाते हैं, अगर आप भांप लें तो अदाकार के तौर पर विनीत के कद को ज्यादा समझ पाएंगे.

आखिर में; गोल्ड चमकदार तो है, पर हर चमकती चीज को सोना समझने की भूल कौन करता है भला? मुझे काफी वक़्त तक लगता था, स्वर्ण पदक विजेताओं के गोल्ड मैडल को दांतों से काटने की परम्परा भी शायद इसी को जांचने की एक प्रक्रिया होती होगी. गोल्ड देशभक्ति के नाम पर आपको कुछ ऐसा ऐरा-गैरा परोसने की कोशिश है. बेहतर होगा, नक्कालों से सावधान रहे! [2/5]

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