फिल्म के एक अहम सीन में, जब दबंग विधायक जाँ मुहम्मद [विजयराज अपने निहायत ही जाने-पहचाने अंदाज़ में], जिन्हें नवाब बनना-दिखना-लगना-कहलाना पसंद है, और उसके गुर्गों का सामना खालू [नसीरूद्दीन शाह] और बब्बन [अरशद वारसी] से होता है...दोनों ही गुट एक दूसरे को पिस्तौल के निशाने पर रख लेते हैं! मुश्किल ये है की अब पिस्तौल पहले कौन हटाये? इसी पेशोपेश में सुबह हो जाती है! अगर आप समझ पायें कि कहानी लख़नऊ के आस-पास की है, जहाँ की तहज़ीब और तमीज़ 'पहले आप-पहले आप' में रची-बसी है तो बहुत मुश्किल नहीं है अभिषेक चौबे की लज्ज़तदार कॉमेडी थ्रिलर 'डेढ़ इश्क़िया' का लुत्फ़ उठाना!
'डेढ़ इश्क़िया' उन चंद फिल्मों में से है जिसकी ख़ूबसूरती जिस शिद्दत से कलम से निकलती है, उसी बख़ूबी पर्दे पे भी रंग लाती है! फ़िल्म आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ के मिज़ाज कातिलाना, किरदार गुस्ताख़ और तबियत शायराना है। उर्दू महज़ लफ़्ज़ों तक नहीं रुकती, हवाओं और फिज़ाओं में रूह की तरह बेपरवाह बहती है। पिछली बार ऐसा कुछ तेवर आपने तिगमांशु धुलिया की 'साहब बीवी और गैंगस्टर' में महसूस किया होगा। सुनकर या पढ़कर अगर आपको लग रहा हो, ये एक बीते दौर की पुरानी फ़िल्म है तो आप एक बार फिर गलत हैं। अभिषेक चौबे जिस तरह फ़िल्म को एक अलग अंदाज़ से अपने बिंदास ह्यूमर और बेबाक किरदारों के साथ परोसते हैं, फ़िल्म आपको ना सिर्फ बाँधे रखती है नयेपन का भी पूरा एहसास कराती है!
खालू [नसीर साब] पे अब उमर असर दिखाने लगी है पर जवान दिल के साथ वो अभी भी महमूदाबाद रियासत की बेगम पारा [बेइंतिहाई खूबसूरत माधुरी] का शायराना शौहर बनने की होड़ से खुद को पीछे नहीं रख पाता! ऐसे ही एक और नकली नवाब हैं विजयराज जो एक क़ैद शायर [मनोज पाहवा] की मदद से बेगम के दिल और रियासत दोनों पर काबिज़ होना चाहते हैं। जल्दी ही ये सारी कवायद परत-दर-परत साज़िशों और किरदारों के बदलते अक्स का नमूना बन जाती है...और फिर शुरू होता ही दौर, दिलचस्प हादसों का जिनकी भनक आपको कतई नहीं लगती! खुराफाती बब्बन [अरशद] और बेगम की हमराज़ मुनिया [हुमा कुरैशी] भी इस सारी जद्द-ओ-जेहद का हिस्सा हैं।
फिल्म की जान सिर्फ कहानी ही नहीं है, विशाल भारद्वाज के मजेदार डायलॉग- बशीर बद्र साब की शायरी- खूबसूरत सिनिमेटोग्रफी और किरदारों का शानदार अभिनय फिल्म को एक अलग मुकाम पर ले जाता है। जहाँ एक-एक फ्रेम आपको दीवार पे सजी तस्वीरों का गुमान कराती है, किरदारों के ज़बानी इज़हार चेहरे पे मुस्कुराहट बिखेर देते हैं, वहीं फिल्म का स्क्रीनप्ले बहुत ही संजीदा तरीके से आपको उस मौहाल के एकदम करीब ले जाता है। बेगम के कमरे में बजता ग्रामोफ़ोन, उस पर बेगम अख्तर की ठुमरी 'हमरी अटरिया पे आओ जी', शायराना जलसे में मशहूर शायर नवाज़ देवबंदी की मौजूदगी...यहाँ कुछ भी बेढंगा, बेवजह नहीं है! फिल्म के आखिर में, बेगम अख्तर की ग़ज़ल 'वो जो हम में तुम में करार था' और उस पे फिल्माया गया शूटआउट सीन लाजवाब है. इस तरह का तजुर्बा हमें अक्सर टोरंटीनो की फिल्मों में देखने को मिलता है।
आखिर में सिर्फ इतना ही, 'डेढ़ इश्क़िया' 'इश्क़िया' जितनी मजेदार या मज़ाकिया भले ही ना हो, सूरत और सीरत में उस से कहीं बेहतर फिल्म है। काफी वक़्त बाद, एक ऐसी हिंदुस्तानी फिल्म जिसमें उर्दू को एक वाजिब तवज़्ज़ो अता की गयी है। समझ में आती हो तो बेशक़ देखनी चाहिये, नहीं आती हो फिर भी देखिये! [४/५]
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