Friday, 2 May 2014

क्या दिल्ली क्या लाहौर : मंज़िल से पहले दम तोड़ती एक ईमानदार कोशिश…[2.5/5]

"पड़ोसी मुल्क भी रहें पड़ोसियों से, तो क़्या अच्छा हो!
हँसे भी तो जी भर के, रोयें भी तो गले लग के!!"

भारत-पाकिस्तान बंटवारे की त्रासदी को जाने कितनी ही हिंदी फिल्मों ने अपने-अपने नजरिये से देखने-समझने की कोशिश की है, कमोबेश सबका एक ही हासिल रहा है, "सरहदें जमीन पे खिंचीं लकीरें भर हैँ, आर-पार के बाशिंदों में फ़र्क धागे भर का भी नहीं"! जाने-माने अभिनेता विजयराज निर्देशित 'क्या दिल्ली क्या लाहौर' भी इसी खयाल को और गाढ़ा, और मज़बूत करती है। हालाँकि महीन जज्बातों और जहींन किरदारों के साथ यह फ़िल्म एक अलग तस्वीर खेंचने में क़ामयाब साबित होती है, पर कहानी का हलकापन और किरदारों का एक हद के बाद बेरंग होते जाना फ़िल्म की क़ाबलियत के दायरे को उसके मुकाम तक पहुंचने नहीं देता। 

गुलज़ार साब की, उन्हीं की रूहानी आवाज़ में एक नज़्म से शुरु होती 'क्या दिल्ली क्या लाहौर' आपको 1948 में कहीं भारत-पाकिस्तान की किसी सरहद पर ला छोड़ती है, जहाँ कहने को तो सिर्फ़ दो ही किरदार हैं.…हिन्दुस्तानी फ़ौज़ का एक खानसामा [मनु ऋषि] और पाकिस्तानी आर्मी का एक अदना सा सिपाही [विजय राज], पर बातें-आहें-शिकायतें दोनों मुल्कों में बसे हरेक इन्सान से इत्तेफाक़ रखतीं हैं। मज़े की बात ये भी है कि दोनों बंटवारे से पहले एक दूसरे के पाले से ताल्लुक रखते थे, तो जहां हिंदुस्तानी सिपाही के लहज़े में उर्दू-पंजाबी की मिलावट साफ़ सुनाई पड़ती है, पाकिस्तानी फ़ौज़ी खड़ी बोली का मुरीद पता चलता है। दोनों के हालात भी अनजान नहीं हैं एक-दूसरे से, पर जब सियासत इंसानियत पर हावी होती है, दोनों एक दूसरे पर गोलियां बरसाने से भी चूकते नहीं।

किरदारों का सीधापन, बातों में साफ़गोई और उनका खुरदुरा लहज़ा-अख्खड़ रवैया अगर 'क्या दिल्ली क्या लाहौर' को एक मज़ाकिया रंग देते हैं तो उनके हालातों से चोट खाये दिल गहरा असर भी रखते हैं। एक बानगी देखिये, " हमारी छत का चाँद लगता था खाट पे ही आ गिरेगा, यहॉँ का चाँद तो मुंह भी नहीं लगाता"! खांटी हिंदुस्तानी बोली हालांकि कहीं-कहीं ज्यादा हो जाती है और किरदार भी अपने आप को बार-बार दोहराते नज़र आते हैं, असल तकलीफ तब होती है जब कहानी जरूरत से ज्यादा खिंचने लगती है और आखिर तक आते-आते आप उन तमाम मसअलों और जज़्बातों से खुद को कटा कटा पाते हैँ, जिनका ज़िक्र और फ़िक्र फ़िल्म के पहले हिस्से में सुझाई देता है।फिल्म अक्सर सिनेमा के पर्दे पर थिएटर की क़िसी पेशकश का एहसास कराने लगती है तो मुमकिन है, सिर्फ 1 घंटे 48 मिनट की इस 'जंग की मुख़ालफ़त करने वाली' फिल्म में कई बार आप खुद उबाहट से ज़ंग लड़ते दिखें! 

विजयराज और मनु ऋषि जैसे नाम किसी तारीफ़ का मोहताज़ नहीं है! दोनों छोटी से छोटी भूमिका में भी आप को निराश नहीं करते, यहॉँ तो फिर भी पूरी की पूरी फ़िल्म उनके कंधों पर दौड़ती है। कुल मिला कर, 'क्या दिल्ली क्या लाहौर' एक ऐसी ईमानदार, नेकदिल कोशिश है जो और भी अच्छी, और भी बेहतर हो सकती थी! [2.5/5]

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