Friday 29 July 2016

ढिशूम: बेमतलब है, पर वाहियात नहीं! [2/5]

रोहित धवन की ‘ढिशूम’ बिलकुल अपने नाम की तरह ही है, बेमतलब. ढिशूम को सालों-साल पहले हिंदी फिल्मों में मार-धाड़ के दृश्यों में मुक्के और घूंसों की आवाज़ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था, वो भी डबिंग के वक़्त मुंह से बोल कर. आज अगर उन दृश्यों को आप देखें तो शायद उस वक़्त की तकनीकी कमियों पर हंस भी पड़ें, पर उस जमाने के दर्शकों पर उसके प्रभाव को नज़रअंदाज़ करना आपके बस में नहीं. खैर, सिंक-साउंड और रीयलिस्टिक सिनेमा के दौर में धीरे-धीरे इस लफ्ज़-ऐ-इज़हार में वो प्रभाव, वो असर अब रहा नहीं. ऐसी ही कुछ तबियत, रंगत और सीरत ‘ढिशूम’ फिल्म की भी है. हाँ, एक बात तारीफ के काबिल ज़रूर है...’ढिशूम’ बेमतलब और बेअसर की होने के बावजूद आपको दूसरी वाहियात फिल्मों की तरह परेशान बिलकुल नहीं करती. सच्चाई तो ये है कि ये फिल्म अपने आपको भी कभी सीरियसली नहीं लेती. नतीजा ये होता है कि पूरी फिल्म आपकी आँखों के आगे से यूँ निकल जाती है और आप उस पर रियेक्ट करने की जेहमत ही नहीं उठाते!

मिडिल-ईस्ट में कहीं किसी जगह, भारत-पाकिस्तान के फाइनल क्रिकेट मैच से ठीक पहले भारतीय टीम के धुआंधार बल्लेबाज विराज शर्मा [साकिब सलीम] को किसी ने अगवा कर लिया है. भारत ने स्पेशल टास्क फ़ोर्स के अपने सबसे काबिल ऑफिसर कबीर [जॉन अब्राहम] को अगली ही फ्लाइट से वहाँ के लिये रवाना कर दिया है. कबीर की मदद के लिए वहां है जुनैद [वरुण धवन], अपनी छिछोरी, बेवकूफ़ाना और हंसोड़ हरकतों के साथ. गुस्सैल-अकड़ू कबीर और मजाकिया जुनैद की ये जोड़ी बॉलीवुड के लिए कोई नई नहीं है. दिमाग पर ज़ोर डालिए और इस तरह की ‘एक अनाड़ी-एक खिलाड़ी’ मर्द जोड़ियों के जो भी नाम आपको याद आयेंगे, यकीन मानिए कबीर और जुनैद उन सब से ही निकलते मिलेंगे, उन सब जैसे ही दिखते मिलेंगे.

जैकलीन फर्नान्डीज़ फिल्म में शौकिया चोर की भूमिका में हैं जिसकी अपनी एक दर्द भरी कहानी है, जो करन अंशुमन की ‘बैंगिस्तान’ में उनके किरदार की कहानी से इतनी मिलती-जुलती है मानो जैकलीन सीधा उसी फिल्म के सेट से इस फिल्म में आ गिरी हों. और इन सब के बीच अक्षय खन्ना का वापस फ़िल्मी परदे पर आना! मेहमान भूमिकाएं हों, खूबसूरत लोकेशंस हों या एक्शन, रोहित धवन एक मौका नहीं छोड़ते, आपका ताबड़तोड़ मनोरंजन करने की कोशिश में. एक के बाद एक वो अपने पत्ते कुछ इतनी जल्दी में फेंकते हैं कि आपको दिमाग लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती. गैर-मुल्कों में कैसे सभी लोग इतनी अच्छी हिंदी बोलते-समझते हैं? ये गलती तो बॉलीवुड में अब गलती मानी ही नहीं जाती, पर दुश्मन के अड्डे से बच के निकलना हो, किडनैपिंग के केस में एक लीड से दूसरी लीड तक पहुंचना हो या फिल्म के सबसे बड़े विलेन को पकड़ने में एक कुत्ते की भूमिका; फिल्म के लेखक भी कहानी लिखने में दिमाग का इस्तेमाल करने से बचते रहे हैं. बड़ी बात ये है कि इसके लिए भी उन्हें काफी मोटी रकम पेश हुई होगी.

अभिनय में किसी को भी अच्छा कहना थोड़ा विवादास्पद हो सकता है, और हास्यास्पद भी. जॉन अब्राहम के डोलों की साइज़ में भले ही इज़ाफा हुआ हो, उनकी एक्टिंग में धागे भर की भी तरक्की नहीं दिखती. जैकलीन में जितनी चाभी भरिये, उतनी ही देर तक चलती हैं. हाँ, वरुण आपको अपने भोले-भाले-साफ़ दिल चेहरे से अच्छा-खासा बहलाए रखते हैं. अक्षय खन्ना अभी पूरी तरह वापस नहीं आये हैं, एक-दो फिल्में और लगेंगी. विराट कोहली के इर्द-गिर्द बुने गए किरदार में साकिब सलीम और सुषमा स्वराज जैसी दिखने-लगने-बोलने वाली केन्द्रीय मंत्री की भूमिका में मोना अम्बेगांवकर फिल्म की सबसे मज़बूत कास्टिंग हैं. अक्षय कुमार, सतीश कौशिक और नरगिस फाखरी अपनी-अपनी मेहमान भूमिकाओं में ठीक-ठाक हैं.

आखिर में, रोहित धवन की ‘ढिशूम’ उन पलों में ज्यादा कारगर साबित होती है, जहां रोहित अपने पिता डेविड धवन मार्का एंटरटेनमेंट की झलकियाँ पेश करते हैं. सतीश कौशिक, विजयराज और वरुण के किरदार डेविड धवन की ‘हार्मलेस’ कॉमेडी फिल्मों के आड़े-टेढ़े किरदारों की ही याद दिलाते हैं. अफसोस, ऐसे मजाकिया पल फिल्म में बस गिनती के ही हैं और ज्यादातर वक़्त फिल्म सिर्फ अपना ही मज़ाक बनाने में गुमसुम रहती है. देखिये, अगर आप उन चंद ख़ास ‘गिफ्टेड’ लोगों में से हैं जो अपना दिमाग हर जगह लेकर नहीं जाते! [2/5]   

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