Friday 22 July 2016

मदारी: इरफ़ान का ‘तमाशा’! [2.5/5]

किसी एक सतर्क, सजग आम आदमी का सतह से उठना और कानून की हद से बाहर जा के पहाड़ जैसे अजेय दिखने वाले सिस्टम से सीधे-सीधे भिड़ जाना; बॉलीवुड के लिए ये फार्मूला हमेशा से एक ऐसा ऊंट रहा है, जो बड़े आराम से दोनों करवट बैठ लेता है. चाहे वो बॉक्स ऑफिस पर भीड़ इकट्ठी करनी हो या फिल्म समीक्षकों से थोक में सितारे बटोरने हों. वजह बहुत साफ़ है, कहीं न कहीं सब बहुत त्रस्त हैं. दिन भर दफ़्तर की हांक के बाद घर की घुटी-घुटी सांस और ऊपर से महंगाई, भ्रष्टाचार और मूलभूत अधिकारों के हनन जैसे मसलों से हताश आम आदमी को ऐसी फिल्मों के नायक में ही अपना चेहरा ढूंढ लेने की मजबूरी भी है.

पहले भी और मौजूदा हाल में भी आपको बहुत सारे ऐसे नाम खोजने से मिल जायेंगे, जो लाख मुश्किलों के बाद भी सरकार और सिस्टम दोनों की नाकामियों को कठघरे में खड़ा करने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, पर जो सुख, जो रोमांच, जो तृप्ति फ़िल्मी परदे पर एक अदना से आम आदमी के सामने सिस्टम को घुटने टेकते देखने में आता है, वो ‘अन-रियल’ ही है. ‘मदारी’ अपनी ज्यादातर अच्छाइयों और इरफ़ान खान जैसे दिग्गज अभिनेता के अच्छे अभिनय के बावजूद, कहीं न कहीं एक ऐसा ही ‘अभूतपूर्व’ अनुभव बनते-बनते रह जाती है.

गृहमंत्री [तुषार दलवी] का बेटा किडनैप हो गया है. अगवा करने वाले [इरफ़ान] ने अपना भी बेटा सिस्टम की नाकामी के चलते खो दिया था. हिसाब बराबर करने का वक़्त आ गया है. बेटा लाओ-बेटा पाओ! पर कौन है ये आदमी? ढूँढें तो कहाँ? वो खुद कहता है, “कपड़े-लत्ते, शकल-सूरत से 120 करोड़ लोगों जैसा दिखता हूँ, कैसे पहचानोगे?”. सीरत और सूरत में कुछ-कुछ नीरज पाण्डेय की ‘अ वेडनेसडे’ जैसे सेटअप में नचिकेत वर्मा [जिम्मी शेरगिल] ने स्पेशल टास्क फ़ोर्स के साथ अपनी पूरी जान लड़ा दी है. चूजे पर बाज़ का शिकंजा कसता चला जा रहा है. अब कोई जांच समिति नहीं, कोई सुनवाई नहीं, सीधे दोषियों को सज़ा. इसी बीच अगवा हुए बच्चे को लगता है, उसके साथ कुछ कुछ ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ जैसा हो रहा है. (जिसमें किडनैपर और विक्टिम के बीच एक तरह का इमोशनल सम्बन्ध बनने लगता है).

निशिकांत कामत की ‘मदारी’ आपको सीधी, सपाट और सहज रास्ते पर नहीं ले जाती. यहाँ कहानी में हिचकोले बहुत हैं, जो बार-बार फिल्म की लय और आपके सफ़र की उम्मीदों को तोड़ते रहते हैं. फिल्म में पिता-पुत्र के निजी पलों वाले इमोशनल दृश्यों का इसमें ख़ासा योगदान दिखता है. हालाँकि फिल्म जब उठती है तो अपने पूरे उफान पे होती है (अक्सर इरफ़ान की मौजूदगी में), पर जब सरकने की ठान लेती है तो उतनी ही निर्जीव और बेस्वाद! सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मीडिया का आम जन-मानस पर क्षणिक, बदलता और बढता असर इस फिल्म में बखूबी पेश किया गया है.

फिल्म को थ्रिलर का जामा पहनाने के लिए कामत नायक के इरादों और वजहों को बड़ी फ़िल्मी तरीके से छुपाते और उजागर करते रहते हैं. इसी कड़ी में वो फिल्म को दोहरा अंत देने का खेल भी आजमाते नज़र आते हैं, जहां एक अंत पर पहुँच कर आपको बताया जाता है कि पिच्चर तो अभी बाकी है. ‘इमोशनल’ और ‘थ्रिलर’ होने के बीच झूलने वाली ‘मदारी’ अंत तक किसी एक तय मुकाम पर पहुँचने का सुख हासिल नहीं कर पाती.

इरफ़ान ‘मदारी’ हैं और ‘मदारी’ इरफ़ान; इस बात से किसी को इनकार नहीं होगा पर फिल्म के ज्यादातर दृश्य मानो इरफ़ान की काबिलियत को ही भुनाने का और मांजने का एक जरिया भर बनाने की कोशिश लगते हैं. इतने पर भी, अस्पताल में उनका फूट-फूट कर रोने वाला दृश्य हो या फिर अपने बेटे को खो देने के दर्द में खोया हुआ पिता, इरफ़ान आपको उन्हें याद रखने के लिए काफी कुछ दे जाते हैं.

आखिर में, ‘मदारी’ सत्ता-कानून व्यवस्था और सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर हर उस तरीके से बोलने की नीयत दिखाती है, जो आजकल के परिवेश में एकदम फिट बैठते हैं. पर न तो खुद किसी साफ़ नतीजे पर पहुँचती है, न ही आपको पहुँचने के लिए उकसाती है. कुल मिलाकर, ये वो तमाशा है जहां आप खेल की दांव-पेंच पर कम, बाजीगर की उछल-कूद पर ज्यादा तालियाँ बजाते हैं. [2.5/5]          

No comments:

Post a Comment