Friday 23 March 2018

हिचकी: रानी पास, फिल्म फ़ेल! [2/5]


यशराज फिल्म्स की ‘हिचकी’ में रानी मुखर्जी एक ऐसे टीचर के किरदार में परदे पर वापसी कर रही हैं, जो टूरेट्स’ सिंड्रोम (tourette’s syndrome) से जूझ रही है. उसके ही शब्दों में समझने की कोशिश करें तो जब दिमाग के कई सारे तार आपस में एक साथ नहीं जुड़ते, तो बिजली के झटकों जैसे लगते रहते हैं. रानी के किरदार की तकलीफ के प्रति संवेदनशील या असंवेदनशील होने की शर्त से परे होकर भी देखें, तो उसकी इस ख़ास हिचकी से ज्यादातर वक़्त आपके चेहरे पर मुस्कराहट ही फैलती है, और यकीन जानिये रानी का काबिल अभिनय फिल्म के ख़तम होने के बाद, आपसे उनके उस ख़ास हाव-भाव की नक़ल आपसे बरबस करा ही लेगा. हालाँकि फिल्म में कई बार दूसरे किरदारों से आप सुनते रहते हैं कि कैसे नैना माथुर (रानी मुखर्जी) ने सबको टूरेट्स’ सिंड्रोम के बारे में बता कर कुछ नया सिखाया है, पर जाने-अनजाने शायद फिल्म की सबसे बड़ी कामयाबी असल में भी यही है.

नैना अकेली नहीं है, जो किसी तरह के सिंड्रोम या डिसऑर्डर से जूझ रही है. पढ़ाने के लिए उसे मिली क्लास गरीब बस्ती के बाग़ी, बिगडैल और बदतमीज़ बच्चों की है, जिनके लिए गरीबी, अशिक्षा और मुख्यधारा का तिरस्कार ही सबसे बड़ा सिंड्रोम है, और बाकी स्कूल के लिए उनकी अपनी छोटी सोच. नैना इन सबसे अकेली लड़ रही है. कामयाब भी रहती है, पर फिल्म को जिस सिंड्रोम के हाथों नहीं बचा पाती, वो है ‘वाई आर ऍफ़ (YRF) सिंड्रोम’. ‘चक दे! इंडिया’ की सफलता के बाद यशराज फिल्म्स ने एक बार फिर उसी फार्मूले को अपनी चकाचक ‘हाई प्रोडक्शन-वैल्यू’ वाली प्रयोगशाला में दोहराने की कोशिश की है. एक काबिल लीडर, जिसे दुनिया के सामने अपनी पहचान बनानी है; एक नाकारा टीम जिसे कोई हाथ नहीं लगाना चाहता, एक मनबढ़-जिद्दी खिलाड़ी जो कभी भी खेल बिगाड़ सकता है, और एक मनचाहा अंत, जो सबको भला सा लगे. फार्मूला अचूक है, पर तभी तक जब तक सिंड्रोम अपना असर दिखाना शुरू नहीं करता.

नैना बस्तियों में अपनी क्लास के बच्चों के घर तलाश रही है. एक माँ पानी के लिए लम्बी लाइन में लगी है, पानी आते ही भगदड़ मच जाती है. नैना ने जैसे पहले ऐसा कुछ देखा ही नहीं हो. मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ में भी नहीं, डैनी बॉयल की ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ में भी नहीं. उसके अन्दर के भाव ठीक वैसे ही नकली उबाल मारते हैं, जैसे सलमान खान ‘हम साथ-साथ हैं’ के एक दृश्य में महात्मा गाँधी के सद्विचार दोहराते हुए. अगले दृश्यों में, नैना बच्चों को साइकिल पंचर बनाते देख, गैराज में काम करते देख और सब्जी के ठेले पर ‘मुझे कटहल क्या होता है, नहीं पता?’ बोलते हुए भी ऐसे ही कुछ भाव परदे पर उछालती है. मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित स्कूलों में शामिल, इस स्कूल के इस ख़ास एक क्लास के बच्चे शराब पीते हैं और जुआ खेलते हैं. खुलेआम. देश में एजुकेशन की हालत इस से भी बदतर है. फिल्म कहीं-कहीं भूल से उसकी बात भी कर ही डालती है, मगर ये ‘वाई आर ऍफ़ (YRF) सिंड्रोम’ है, जिसमें बदरंग दीवाल भी ‘प्लास्टिक कोटेड’ होती है और गरीबी भी ‘सुगर-कोटेड’.  

रानी मुखर्जी की ‘मर्दानी’ तकरीबन 4 साल पहले आई थी, इसलिए ‘हिचकी’ को उनकी वापसी के तौर पर देखे जाने की जरूरत नहीं है. हाँ, फिल्म में उनकी भारी-भरकम मौजूदगी और उनके किरदार में इस तरीके का नयापन रटे-रटाये फार्मूले पर गढ़ी गयी औसत कहानी में भी काफी हद तक जान फूँक देता है. रानी का जोश, उनके चेहरे की चमक और अदाकारी में उनकी बारीकियां जता देती है कि उन्हें परदे से दूर रखना सिनेमा और उनके खुद के लिए कितना मुश्किल और गलत निर्णय है. नीरज कबी एक ऐसे टीचर की भूमिका में, जिसे बस्ती के बच्चों की क्लास से बेहद चिढ़ और नफरत है, एकदम सटीक हैं. बच्चों के किरदारों में नए कलाकारों की खेप पूरी तरह सक्षम दिखाई देती है. अच्छा होता, अगर कहानी का सुस्त लेखन उन्हें ‘टाइपकास्ट’ करने से बचता. सचिन और सुप्रिया पिलगांवकर बस होने भर की शर्त पूरी करते नज़र आते हैं.

आखिर में; ‘हिचकी’ रानी मुखर्जी की फिल्म के तौर पर देखी जानी चाहिए. हालाँकि, फिल्म एक वक़्त के बाद उनके किरदार की हिचकी से कहीं ज्यादा क्लास और क्लास के बच्चों की हिचकियों में हिचकोले खाने लगती है. [2/5]         

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