Friday 16 March 2018

रेड: दमदार निर्देशन, ईमानदार मनोरंजन...और सौरभ शुक्ला! [3.5/5]

सर से पाँव तक ईमानदारी में डूबे पुलिस ऑफिसर के किरदार में अजय देवगन को आप पहले भी देख चुके हैं. इस तरह के किरदारों में उनका अभिनय दो एकदम अलग धुरी पर आपको लेकर जाता है. खलनायक को डराने के लिए ‘सिंघम’ में उनकी दहाड़ ही काफी है, जबकि ‘गंगाजल’ जैसी फिल्मों में उनका किरदार इस तरह के तेज़-तीखे प्रतीकों से बचते हुए अपनी जिद-अपने ढीठपने से ही खलनायकों को ज्यादा परेशान करता है. राजकुमार गुप्ता की ‘रेड’ में काफ़ी वक़्त बाद आपको इस दूसरे तरीके के अजय देवगन नज़र आते हैं, इसीलिए बखूबी भाते हैं; पर इस बार उनके सामने जिस कद्दावर अभिनेता को खलनायक के तौर पर खड़ा किया जाता है, उसकी अदाकारी का जौहर कुछ और ही रंग में ढल कर सामने आता है. फिल्म का दमदार लेखन भी जैसे नायक को छोड़ कर इस ‘रंग बदलते’ बुरे किरदार का दामन ख़ुशी-ख़ुशी थाम लेता है. ‘रेड’ में सौरभ शुक्ला अपनी अदाकारी के चरम पर हैं. शुरू से आखिर तक. हर बार. लगातार.


सत्य घटनाओं से प्रेरित, ‘रेड’ अस्सी के दशक के शुरुआती साल में देश के सबसे लम्बे चलने वाले (3 दिन) इनकम टैक्स छापेमारी की कहानी बयान करती है. 7 साल की नौकरी में 49 तबादलों का तमगा लेकर घूमने वाले आयकर अधिकारी अमय पटनायक (अजय देवगन) को ईमानदारी कुछ इस हद तक पसंद है कि दूसरे की पार्टियों में भी अपने ब्रांड की रम साथ लेकर जाते हैं. ‘वही पीता हूँ, जो खरीद सकूं’. पत्नी (इलियाना डी’क्रूज़) को ऐसी ईमानदारी से डर तो लगता है, पर अमय के लिए हौसले की खदान भी वही है. गुप्त सूत्रों के हवाले से, अमय को उत्तर प्रदेश के सबसे रसूख वाले बाहुबली सांसद रामेश्वर सिंह (सौरभ शुक्ला) के अकूत और अवैध कालाधन के बारे में पता चलता है, और वो पहुँच जाता है छापेमारी के लिए. कानून-पसंद, धीर-गंभीर और जिद्दी अमय के सामने है ताकत, सत्ता और धन के मद में चूर रामेश्वर सिंह, जिसके शुरूआती तेवर एक बार के लिए तो अमय में भी अपने गलत होने का संदेह पैदा कर देते हैं.

 

हालाँकि एक दर्शक के तौर पर आप भी बहुत पहले से जानते हैं कि ऊंट किस करवट बैठने वाला है? और शायद यही एक बात है जो ‘रेड’ को एक ‘पूरी तरह’ रोमांचक फिल्म होने से रोकती है; फिर भी रितेश शाह (‘पिंक’ फेम) का जबरदस्त लेखन और राजकुमार गुप्ता का उतना ही कसा हुआ निर्देशन फिल्म को कहीं भी भटकने नहीं देता. अमय और रामेश्वर सिंह जब भी आमने-सामने होते हैं, संवादों की झड़ी पुरानी फिल्मों के ‘डायलागबाज़ी’ वाले दृश्यों की याद जरूर दिलाते हैं, पर दोनों कलाकारों के सहज और संजीदा अभिनय फिल्म को कमोबेश वास्तविकता के करीब ही रखते हैं. बेवजह के दो गाने और रामेश्वर सिंह के परिवार के एक-दो दृश्यों को छोड़ दिया जाए, तो फिल्म धीमी होने के बावजूद मनोरंजन में कोई कसर नहीं छोडती. भ्रष्ट अधिकारी की भूमिका में अमित स्याल, मुंहफट दादी के किरदार में पुष्पा सिंह और सांकेतिक दृश्यों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का चित्रण खास तौर पर रोमांचित करता है. शुरू-शुरू में इलियाना जरूर महज़ रोमांटिक गानों में जगह भरने के लिए कहानी में शामिल की गयी लगती हैं, पर अजय देवगन के साथ कुछ भावुक क्षणों में उनका होना खलता नहीं. ऐसी भूमिकाओं में ‘शूल’ की रवीना टंडन फिर भी उनसे कहीं आगे हैं.

 

‘रेड’ एक बेहद कसी हुई फिल्म है, तकनीकी तौर पर भी और अभिनय की नज़र से भी. महज़ दो घंटे की फिल्म में, बंधी-बंधाई लोकेशन पर, बिना किसी तड़क-भड़क वाले ड्रामा के, लगातार मनोरंजक बने रहना, वो भी ऐसे कथानक के साथ जो किसी को भी आसानी से नाराज़ या अपमानित न करता हो; अपने आप में ही सफल होने के काफी आयाम छू लेता है. ये फिल्म सबूत है कि सौरभ शुक्ला कितने काबिल अदाकार हैं...और अजय देवगन कितने अच्छे हो सकते हैं, अगर गोलमाल जैसी फिल्मों के प्रभाव से दूर रह पाने का लोभ-संवरण कर पायें तो. जरूर देखिये...(3.5/5)        

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