Sunday 22 September 2013

'द गुड रोड': अच्छी है, पर बहुत धीमी, उबाऊ और साल की सबसे अच्छी तो बिलकुल नहीं! [3/5]

सारे रस्ते आपको कहीं न कहीं पहुंचा ही देते हैं। कुछ बड़ी आसानी से जहां भी आप जाना चाहते हैं, कुछ काफी घुमा-फिरा कर। ऐसे ही एक रस्ते पर कुछ अलग-अलग किरदार मिलते हैं-बिछड़ते हैं-भटकते हैं, और अंत में थोड़े बहुत भटकाव-घुमाव-फिराव के बाद अपनी मंजिल तक पहुँच भी जाते हैं। इसी रास्ते, इसी सफ़र की कहानी है ...लेखक-निर्देशक ज्ञान कोरिया की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त गुजराती फिल्म 'द गुड रोड'.

फिल्म बड़े ही खूबसूरत ढंग से आपको गुजरात की एक हाईवे पे छोड़ जाती है ...जहां छुट्टियां बिताने आया एक ७-साल का बच्चा बिछड़ जाता है अपने माँ-बाप से…जहां शहर से भागी हुई एक ९ साल की बच्ची अभी भी रास्ता ढूंढ रही है अपने अपनों तक पहुँचने का ...और इसी हाईवे पर एक ट्रक ड्राईवर गैरकानूनी कामों में उलझी अपनी जिंदगी का आखिरी सफ़र तय रहा है।

फिल्म की कहानी में रोमांच और रहस्य का पुट जिस बखूबी से डाला गया है, काबिले तारीफ़ है। हर पल "आगे क्या होने वाला है' इस उधेड़बुन में आप हमेशा अपने आपको उलझा हुआ पायेंगे। पर फिल्म कहीं-कहीं बहुत ही वास्तविकता के करीब है, जो शायद आपको विचलित भी कर सकता है। मसलन, जब ७-साल का बच्चा ट्रक ड्राईवर के साथ अपने माँ-बाप से मिलने की कोशिश में ट्रक को ही अपना घर बना लेता है, ट्रक का खलासी बच्चे के साथ बड़े गंदे तरीके से गाली-गलौज के साथ पेश आता है। एक दूसरे दृश्य में, कुछ नाबालिग लडकियां देह-व्यापार के लिए गाँव वालों के सामने जिस तरह रात के अँधेरे में परोसी जाती हैं, आप सच में अपने अन्दर कुछ टूटता हुआ पाते हैं।

फिल्म की गति काफी धीमी है और यकीन मानिए यह एक बहुत बड़ी कमी है। सिर्फ १ घंटे ३० मिनट की फिल्म अगर आपको उबाऊ और लम्बी लगे तो अच्छी बात नहीं। हालांकि अमिताभ सिंह ने कच्छ के रण और गुजरात हाईवे के आस-पास के असली लोकेशन्स को एक खूबसूरत पेंटिंग की तरह परदे पर उतारा और यही वजह है कि आप फिल्म से मुंह मोड़ नहीं पाते जबकि फिल्म की गति आपको ऐसा करने के लिए बार बार उकसाती है। फिल्म का एक और पक्ष है जो आपको बार-बार परेशान करता है, फिल्म का स्क्रीनप्ले कहानी को आगे बढाता तो है पर अपनी सुविधा के हिसाब से बड़ी आसानी से, जैसे बच्चा कार की पीछे वाली सीट से उतर जाता है और माँ-बाप को भनक तक नहीं लगती, कुछ पात्र तो सिर्फ इसलिए भटकते हैं क्यूंकि उन्हें भटकना है, किरदार अचानक ही भले लगने लगते हैं और अचानक ही सब कुछ ठीक भी हो जाता है।

अभिनय की दृष्टि से अजय गेही, सोनाली कुलकर्णी पहचाने कलाकार हैं, समर्थ लगते हैं। बाल कलाकार प्रभावित करते हैं। पर बहुत सारे कलाकार भले ही मंजे हुए न हों, किरदार में पूरी तरह समाये हुए नज़र आते हैं...आप उन्हें देखते हैं, कैमरे के साथ उनकी असहजता महसूस भी कर लेते हैं पर फिर भी वो आपको सच्चे लगते हैं।

अंत में, 'द गुड रोड' एक अच्छी फिल्म है, गुजराती सिनेमा के लिए मील का पत्थर...पर इसे साल की सबसे अच्छी फिल्म कहना मुझे थोडा ज्यादा लगता है। कलात्मक सिनेमा देखने वालों को शायद ज्यादा अच्छी लगे, पर ऐसे वक़्त में जब 'शिप ऑफ़ थिसिअस' जैसी भारी फिल्म भी दर्शकों के दिल में सहजता से उतरने की कला सिखा रही हो, जब 'द लंचबॉक्स' जैसी सीधी-सादी लव-स्टोरी भी आपको भावनात्मक रूप से झकझोर जाती हो…इस तरह की फिल्म-मेकिंग पुराने समानांतर सिनेमा की याद दिलाती है मगर दुर्भाग्यवश वहाँ तक पहुँच नहीं पाती! नतीजा? न इधर-न उधर! देखिये और खुद फैसला कीजिये [३/५] 

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