Friday 15 September 2017

सिमरन: ए-ग्रेड कंगना, बी-ग्रेड क्राइम-कॉमेडी! [2/5]

आज़ाद ख़याल लड़कियां, जिन्हें अपनी ख़ामियों पर मातम मनाना तनिक रास नहीं आता, बल्कि उन्हीं कमजोरियों, उन्हीं गलतियों को बड़े ताव से लाल गाढ़े रंग की लिपस्टिक के साथ चेहरे पर तमगों की तरह जड़ लेती हैं; बॉलीवुड में कम ही पायी जाती हैं. कंगना फिल्म-दर-फिल्म परदे पर ऐसे कुछ बेहद ख़ास बेबाक और तेज़-तर्रार किरदारों को जिंदा करती आई हैं. 'क्वीन' की रानी जहां एक पल अपने बॉयफ्रेंड से शादी न तोड़ने के लिये मिन्नतें करती नज़र आती है, अगले ही पल अकेले हनीमून पर जाने का माद्दा भी खूब दिखाती है. तनु अपने पति से पीछा छुड़ाने के लिए उसे पागलखाने तक छोड़ आती है, और फिर वो उसकी कभी ख़त्म न होने वाली उलझन जो बार-बार उसे और दर्शकों को शादी के मंडप पहुँचने तक उलझाए रखती है. 'सिमरन' में भी कंगना का किरदार इतना ही ख़ामियों से भरा हुआ, उलझा और ढीठ है, पर अफ़सोस फिल्म का बेढंगापन, इस किरदार और इस किरदार के तौर पर कंगना के अभिनय को पूरी तरह सही साबित नहीं कर पाता. 'सिमरन' आपका मनोरंजन किसी बी-ग्रेड क्राइम-कॉमेडी से ज्यादा नहीं कर पाती, अगर कंगना फिल्म में नहीं होती.

तलाक़शुदा प्रफुल्ल पटेल (कंगना रनौत) अटलांटा, अमेरिका के एक होटल में 'हाउसकीपिंग' का काम करती है. पैसे जोड़ रही है ताकि अपना खुद का घर खरीद सके. बाप घर पर बिजली का बिल लेकर इंतज़ार कर रहा है, कि बेटी आये तो बिल भरे. प्रफुल्ल भी जहां एक तरफ एक-एक डॉलर खर्च करने में मरी जाती है, अचानक एक घटनाक्रम में, जुए में पहले-पहल दो हज़ार डॉलर जीतने और फिर एक ही झटके में अपनी सारी बचत गंवाने के बाद, अब 50 हज़ार डॉलर का क़र्ज़ लेकर घूम रही है. बुरे लोग उसके पीछे हैं, और क़र्ज़ उतारने के लिए प्रफुल्ल अब अमेरिका के छोटे-छोटे बैंक लूट रही है. 

'सिमरन' भारतीय मूल की एक लड़की संदीप कौर की असली कहानी पर आधारित है, जो अमेरिका में 'बॉम्बशेल बैंडिट' के नाम से कुख्यात थी, और अब भी जेल में सज़ा काट रही है. परदे पर ये पूरी कहानी दर्शकों के मज़े के लिए कॉमेडी के तौर पर पेश की जाती है. हालाँकि प्रफुल्ल का किरदार वक़्त-बेवक्त आपके साथ भावनात्मक लगाव पैदा करने की बेहद कोशिश करता है, पर फिल्म की सीधी-सपाट कहानी और खराब स्क्रीनप्ले ऐसा कम ही होने दे पाता है. प्रफुल्ल नहीं चाहती कि उसकी जिंदगी में किसी का भी दखल हो, उसके माँ-बाप का भी नहीं, पर वो बार-बार अपने इर्द-गिर्द दूसरों के बारे में राय बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ती. मुसीबतें उसके सर महज़ किसी हादसे की तरह नहीं पड़तीं, बल्कि साफ़-साफ़ उसकी अपनी बेवकूफ़ियों और गलतियों का नतीजा लगती हैं. जुए में हारने के बाद 'तुम सब स्साले चोर हो' की दहाड़े सुनकर आपको 'क्वीन' की 'मेरा तो इतना लाइफ खराब हो गया' भले याद आ जाता हो, पर आपका दिल प्रफुल्ल के लिए तनिक भी पसीजता नहीं. 

फिल्म जिन हिस्सों में प्रफुल्ल के अपने पिता के साथ संबंधों पर रौशनी डालती है, देखने लायक हैं. पैसे की जरूरत है तो पिता पर लाड बरसा रही है, वरना दोनों एक-दूसरे को जम के कोसते रहते हैं. समीर (सोहम शाह) का सुलझा, समझदार और संजीदा किरदार फिल्म को जैसे हर बार एक संतुलन देकर जाता है, वरना तो प्रफुल्ल की 'आजादियों' का तमाशा देखते-देखते आप जल्द ही ऊब जाते. अच्छे संवादों की कमी नहीं है फिल्म में, फिर भी हंसाने की कोशिश में फिल्म हर बार नाकाम साबित होती है. प्रफुल्ल का बैंक लूटने और लुटते वक़्त लोगों की प्रतिक्रिया हर बार एक सी ही होती है. इतनी वाहियात बैंक-डकैती हिंदी फिल्म में भी बहुत कम देखने को मिलती है. अंत तक आते-आते फिल्म किरदार से भटककर फ़िल्मी होने के सारे धर्म एक साथ निभा जाती है. 

आखिर में, हंसल मेहता की 'सिमरन' एक अच्छी फिल्म हो सकती थी, अगर संदीप कौर की बायोपिक के तौर पर, 'अलीगढ़' की तरह समझदारी और ईमानदारी से बनाई गयी होती; न कि महज़ मनोरंजन और बॉक्स-ऑफिस हिट की फ़िराक में कंगना रनौत के अभिनय को सजाने-संवारने और भरपूर इस्तेमाल करने की चालाकी से. फिल्म अपने एक अलग रास्ते पर लुढ़कती रहती है, और कंगना का अभिनय कहानी, किरदार और घटनाओं से अलग अपने एक अलग रास्ते पर. काश आप इनमें से किसी एक रास्ते पर चलना ही मंजूर कर पाते, मगर ये सुविधा आपको उपलब्ध नहीं है, तो झटके खाते रहिये! [2/5]

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