Friday 1 September 2017

शुभ मंगल सावधान: शर्तिया मनोरंजन! एक बार मिल तो लें!! [3.5/5]

'सेक्स-एजुकेशन' हम सबके 'कमरे का हाथी' है. देख के भी नज़रंदाज़ करने की परम्परा जाने कब से चली आ रही है? टीवी पर अचानक से दिख जाने वाला सेक्स-सीन हो, या कॉन्डोम का सरकारी विज्ञापन; बच्चों के सवाल आने से पहले ही बड़ों के हाथ रिमोट खोजने लग जाते हैं. और अगर कहीं भूले-भटके कोई बात करने की हिम्मत जुटा भी ले, तो ज्ञान की नदियों के समंदर हर तरफ से यूं हिलोरें मारने लगते हैं कि जैसे सब के सब डॉ. महेंद्र वत्स (मशहूर सेक्स-पर्ट) के ही बैचमेट हों. जो जितना कम जानता है, उतना ही ज्यादा यकीन से चटखारे ले लेकर अपने तजुर्बों की किताब सामने रख देता है. रेलवे लाइन से लगी शहर की हर दीवार किसी न किसी ऐसे 'गुप्त' क्लिनिक का पता जरूर आपको रटा मारती है. पुरानी सी खटारा वैन की छत पे कसा भोंपू चीख-चीख कर अच्छे-खासे मर्द में भी 'मर्दानगी की कमी' का एहसास करा देता है. बंगाली बाबाओं के नुस्खों से लेकर सड़क किनारे बिकती रंगीन शीशियों में बंद जड़ी-बूटियों की तलाश में; 'सेक्स एजुकेशन' का यह 'हाथी' अक्सर 'चूहे' की शकल लिए मायूस घूमता रहता है. हंसी तो आनी ही है. 

आर प्रसन्ना की 'शुभ मंगल सावधान' में हालाँकि कोई हाथी तो नहीं है, पर एक भालू जरूर है. सरे-बाज़ार मुदित (आयुष्मान खुराना) पर चढ़ गया था, और अब उतरने का नाम ही नहीं ले रहा. मुदित के गीले बिस्किट चाय में टूट-टूट कर गिर रहे हैं, और उसका अलीबाबा गुफा तक पहुँच ही नहीं पा रहा. दिक्कत तो है, सुगंधा (भूमि पेडणेकर) से उसकी शादी बस्स कुछ दिनों में होने ही वाली है. मुदित की परेशानी में सुगंधा हर पल उसके साथ है. बिना सबटाइटल्स वाली अंग्रेजी फिल्मों से सीख कर वो मुदित को 'कम ऑन, माय डैनी बॉय!' भी सुना रही है, हालाँकि ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर दर्द ज्यादा है. तमाशा तब शुरू होता है, जब दोनों के परिवारों में ये किस्सा आम हो जाता है. बाप को गुमान है कि उसके बेटे का 'कुछ भी' छोटा नहीं हो सकता. माँ ने बड़े होने तक बेटे का अंडरवियर रगड़-रगड़ के साफ़ किया है, तो बेटे में 'खोट' होने की सूरत ही नहीं बचती. 

सगाई से लेकर शादी तक चलने वाली इस कहानी में 'डिसफंक्शनल' सिर्फ मुदित और सुगंधा की सेक्स-लाइफ ही नहीं है, बल्कि समाज, शादी और रीति-रिवाज़ भी इसके जबरदस्त शिकार हैं. मजेदार ये है कि सब कुछ हंसी-हंसी में आपके सामने आता है और वैसे ही चले भी जाता है. जहां आपकी फिल्म का विषय ही इतना वयस्क हो, इतना संवेदनशील हो, वहाँ (अच्छे) हास्य का सहारा लेकर अपनी बात कहना और उसे कहते वक़्त जरा भी अश्लील या भौंडा न होने पाना अपने आप में एक बड़ी कामयाबी की तरह देखी जानी चाहिए. इशारों-इशारों, मिसालों और कहानियों के ज़रिये यौन-संबंधों से जुड़ी समस्याओं पर बात करने की कोशिश करते वक़्त फिल्म के किरदारों की झिझक जिस तरह का कुदरती हास्य पैदा करती है, उसका ज़ायका हम पहले भी 'विक्की डोनर' में चख चुके हैं. 'शुभ मंगल सावधान' ठीक उसी जायके की फिल्म है. 

फिल्म में किरदारों का रूखापन, उनके खरे-खरे लहजे और उनके तीखे संवाद की तिकड़ी मनोरंजन में पूरा दखल रखती है. ताऊजी (ब्रजेंद्र काला) बात-बात पर बाबूजी के श्राद्ध पर खर्च हुए पैसों का एहसान गिनाना नहीं छोड़ते. ससुर को 'बहू दुपट्टा लेकर नहीं गयी' ज्यादा परेशान करता है. माँ (सीमा पाहवा) बेटी को शादी से जुड़े सब राज बताना भी चाहती है, मगर खुल के कैसे कहे? इन सभी किरदारों के अभिनय में आपको कोई भी कलाकार तनिक भी शिकायत का मौका नहीं देता. मुख्य भूमिकाओं में आयुष्मान अपनी पिछली कुछ 'एकरस' फिल्मों से जरूर आगे आये हैं. भूमि हालाँकि मिडिल-क्लास, घरेलू लड़की के इस दायरे में कैद जरूर होती जा रही हैं, पर जब तक कहानियों में धार रहेगी, उन्हें देखना कतई खलेगा नहीं. 

आखिर में; 'शुभ मंगल सावधान' एक पारिवारिक फिल्म है, जो मनोरंजन के सहारे ही सही एक ऐसे झिझक भरे माहौल में आपको उन समस्याओं पर हँसने को उकसाती है, जिसके बारे में बात करना भी आपके लिए 'सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक' बन्धनों की जकड़ में आता है. आज अगर नज़रें मिला कर, 'सेक्स' के मुद्दे पर खुल कर अपनों के साथ हंस पाये, तो क्या पता कल संजीदा होकर एक-दूसरे से बात करना भी सीख ही जाएँ? [3.5/5]       

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