Friday 8 September 2017

डैडी: कहानी औसत, ट्रीटमेंट उम्दा! [3.5/5]

असीम अहलूवालिया की सिनेमाई दुनिया मुख्यधारा में रहते हुए भी बहाव से अलग, उलटी तरफ बहने का जोखिम पहले भी 'मिस लवली' जैसी फिल्म में उठा चुकी है. कहानी जहां हाशिये पर धकेल दिये गए सामाजिक वर्गों की हो, चेहरे जहां खुरदुरे हों, चेचक के निशान और खड्डों भरे या फिर गहरे लाल रंग की लिपस्टिक में बेतरतीब, बेजा पुते-पुताये, और कमरे इतने घुटन भरे कि सीलन की बास भी नाक से उतर कर अन्दर गले तक आ जाये. असीम इस कम-रौशन, सलीके से बिखरी-बिखराई दुनिया की, तसल्ली-पसंद तरीके से कही जाने वाली कहानी में जिस बारीकी से परदे के आगे बैठे दर्शक के लिए 'माहौल' बनाते हैं, उन्हें बॉलीवुड में ज़ुर्म की दुनिया पर बनने वाली फिल्मों का 'संजय लीला भंसाली' घोषित कर देना चाहिए. कुख्यात अपराधी अरुण गवली की जिंदगी पर आधारित, असीम की 'डैडी' हालाँकि एक ठोस कहानी के तौर पर सामान्य से आगे बढ़ने का हौसला नहीं जुटा पाती, पर फिल्म-मेकिंग के दूसरे जरूरी पहलुओं पर अपनी छाप छोड़ने में कतई निराश नहीं करती.

मुंबई के दगड़ी चॉल में रहने वाले तीन लफंगों की अपनी एक गैंग है. BRA गैंग, B से बाबू (आनंद इंगले), R से रामा (राजेश श्रृंगारपुरे) और A से अरुण गवली (अर्जुन रामपाल). बड़ा हाथ मारने और भाई (फ़रहान अख्तर) के टक्कर का बनने के लिए जो तेवर और ताव चाहिए, अरुण में ही सबसे कम दिखता है. फट्टू भी वही सबसे ज्यादा है, फिर भी हालात उसे भाई के ठीक सामने ला खड़ा करते हैं. सिस्टम की मार से अपराधी बनने की दुहाई देने वाला गवली धीरे-धीरे खुद ही एक पैरलल सिस्टम की तरह काम करने लगता है. जेल में काफी उम्र काट ली है, अब सफ़ेद टोपी पहन के 'गांधी' बनने चला है. शान से कहता है कि वो भाई की तरह 'भगोड़ा' नहीं है. लोग कहने लगे हैं, पर 'रॉबिनहुड' का मतलब भी उसे उसकी बेटी से पता चलता है.

अरुण गुलाब गवली की कहानी या यूँ कहें तो उसकी जिंदगी से काट-छांट कर फिल्म के लिए बुनी गयी कहानी में कुछ भी ऐसा अलग या नया नहीं है, जो इस तरह के तमाम गैंगस्टर-ड्रामा में आपने पहले देखा-सुना न हो. हाँ, घटनाओं को पिरोने और उन्हें एक-एक कर के बड़े तह और तमीज से आपके सामने रखने का असीम का अपना एक ख़ास स्टाइल है, वो इस तरह की फिल्मों के लिए नया और बेहतर जरूर है. असीम अलग-अलग किरदारों के जरिये गवली की कहानी को परदे पर सिलसिलेवार पेश करते हैं, और काफी हद तक कामयाब कोशिश करते हैं कि गवली का किरदार इंसानी लगे और सिनेमाई परदे को फाड़ कर बाहर आने की जुगत से बचता रहे. यही वजह है कि गवली का किरदार जेल में अपनी मौत की आहट भर से ही पसीने-पसीने हो उठता है; उसका एक गुर्गा उसे नयी टेक्नोलॉजी वाली पिस्तौल दिखा रहा है, पर गवली रोती हुई बेटी को झुनझुना बजा कर चुप कराने में ज्यादा मशगूल दिखता है. 

फिल्म में कैमरा अपने लिए आरामदायक जगह नहीं ढूंढता, अक्सर खिड़कियों और दरवाजों के धूल लगे शीशों से लगकर अन्दर झांकना मंजूर करता है. रौशनी बेख़ौफ़ धूप में छन कर नहीं आती, रंगीन लाल-नीले बल्बों में नहा कर चेहरों, पर्दों, और बिस्तरों पर उतनी ही पड़ती है, जितने से उसके होने का वहम बना रहे. किरदारों की स्टाइलिंग से लेकर प्रॉडक्शन-डिजाईन के छोटे से छोटे हिस्सों तक में असीम की पैनी नज़र और पूरी-पूरी दिलचस्पी साफ़ देखने को मिलती है. डिस्को-बार में 'जिंदगी मेरी डांस-डांस' गाने पर थिरकते कलाकारों के साथ, आपको '80 के दशक का बॉलीवुड जीने से एक पल को परहेज़ नहीं होता. जेल में नया कैदी आया है, खूंखार है, खतरनाक है, और मुंह से 'खलनायक' की धुन निकालता रहता है. ज़ाहिर है, 90 का दशक आ गया है. अब सैलून में संजय दत्त और जैकी श्रॉफ के पोस्टर चस्पा हैं. 

असीम अहलूवालिया का सिनेमा अगर 'डैडी' का शरीर है, तो गवली के किरदार में अर्जुन रामपाल का अभिनय साँसे फूंकने जितना ही जरूरी. प्रोस्थेटिक तकनीक से चेहरे की बनावट में ख़ास बदलाव करने तक ही नहीं, अर्जुन एक अदाकार के तौर पर भी पूरी फिल्म में अपनी ईमानदारी से तनिक पीछे नहीं हटते. उनकी खुरदुरी आवाज़, उनकी चाल-ढाल, उनका डील-डौल बड़ी सहजता से उन्हें हर वक़्त उनके किरदार के आस-पास ही रखता है. निश्चित तौर पर यह उनके अभिनय-कैरियर की चुनिन्दा देखने लायक परफॉरमेंसेस में से एक है. कास्टिंग के नजरिये से फ़रहान अख्तर को भाई (दाऊद इब्राहिम के किरदार से प्रेरित) के तौर पर पेश करना सबसे निराश करने वाला प्रयोग रहा. पुलिस इंस्पेक्टर विजयकर की भूमिका में निशिकांत कामत खूब जंचते हैं. अन्य किरदारों में ऐश्वर्या राजेश, श्रुति बापना और राजेश श्रृंगारपुरे बेहतरीन हैं. 

आखिर में; बॉलीवुड क्राइम फिल्मों का जमीनी जुड़ाव एक अरसे से लापता सा था. गैंगस्टर काफी वक़्त से दुबई में कहीं पूल-साइड पर लेट कर बिकनी में लड़कियों को देखते हुए जुर्म के फरमान सुनाने में अपनी शान समझने लगे थे. फिल्मों ने उनमें अपने स्टाइल-आइकॉन तलाशने शुरू कर दिये थे. पक्या, गोट्या, रग्घू और मुन्ना की टेढ़ी-मेढ़ी शक्लों की जगह गोरे-चिट्टे-चिकने चेहरों ने ले ली थी. असीम अहलूवालिया की 'डैडी' उस खाली जगह में बड़ी आसानी और ईमानदारी से फिट बैठ जाती है. [3.5/5]  

No comments:

Post a Comment