Friday 15 September 2017

लखनऊ सेन्ट्रल: फर्ज़ी जेल, फ़िल्मी बैंड! [2/5]

फ़रहान अख्तर फिल्म में हों, और आपको मज़ा दो-चार दृश्यों में ही दिखने वाले रवि किशन से मिलता हो, तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि रंजीत तिवारी की 'लखनऊ सेंट्रल' कितनी अच्छी या बुरी हो सकती है? यशराज फ़िल्म्स की हालिया रिलीज़ हुई फिल्म 'कैदी बैंड' से हद मिलती-जुलती कहानी पर बनी 'लखनऊ सेंट्रल' अपने मुख्य कलाकार की कमज़ोर अदाकारी और परदे पर नाकामयाब किरदार को कुछ काबिल सह-कलाकारों के बेहतरीन अभिनय से ढकने, छुपाने की कोशिश तो भरपूर करती है, पर कितनी देर? 

उत्तर प्रदेश के गंवई गायक किशन गिरहोत्रा की भूमिका में फ़रहान की स्टाइलिंग इतनी बनावटी और चिकनी-चुपड़ी है, जैसे तेल में चुपड़े उनके बाल, जैसे उनके गले में पूरे तमीज से तह किया हुआ मफलर. निश्चित तौर पर उनकी कास्टिंग फिल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष है, हालाँकि फर्जीवाड़ा यहीं तक नहीं रुका है. मुंबई फिल्मसिटी में बने लखनऊ के सेंट्रल जेल का सेट पहाड़ों से घिरा है, और न तो कैमरा इसे परदे पर दिखाने से कोई परहेज़ करता है, न ही निर्देशक रंजीत तिवारी को इस मामूली सी गलती से फिल्म की साख पर लगने वाली बड़ी चोट का अंदाज़ा होता है. गनीमत है, फिल्म में राजेश शर्मा, इनामुलहक, मानव विज और दीपक डोबरियाल जैसे कुछ छोटे ही सही, पर मज़बूत कंधे तो हैं.

किशन (फ़रहान अख्तर) का सपना है मशहूर गायक बनने का, पर एक दिन एक झड़प के बाद उसे आईएएस अफसर की हत्या के झूठे इलज़ाम में उम्रकैद सुना दी जाती है. उसके मुरझाते सपने को थोड़ी हवा तब लगती है, जब युवा मुख्यमंत्री (रवि किशन) के आदेश पर जेल में 15 अगस्त जलसे के लिए कैदियों का बैंड बनाने की मुहिम शुरू होती है. खुद का बैंड जहां एक तरफ उसके सपनों को उड़ान दे सकता है, उसे नाम, मुकाम और पहचान दे सकता है, दूसरी तरफ बैंड की आड़ में जेल से भाग कर आज़ादी का स्वाद चखने का मौका भरपूर है. हालाँकि जेलर (रोनित रॉय) के रहते ऐसा सोचना भी खतरे की घंटी है. 

'कैदी बैंड' जहां इसी कहानी को बेहतर, पर चमकदार प्रोडक्शन डिज़ाईन के जरिये परदे पर बयाँ करती है, 'लखनऊ सेंट्रल' अपने लुक में थोड़ा तो खुरदुरापन, कालिख़ और मटमैलापन लाकर विश्वसनीयता के पैमाने पर ज्यादा अंक बटोर जाती है. हालाँकि रंजीत तिवारी की इस तरह की हॉलीवुड फिल्मों में दिलचस्पी साफ़ दिख जाती है, जब भी वो जेल में इस्तेमाल होने वाले तरीकों, चालाकियों और रणनीति की बात करते हैं. जहां फ़रहान और डायना पेंटी अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद अभिनय के सुर लगाने में कमज़ोर दिखते हैं, वहीँ उनके साथी कलाकारों की भूमिकाओं में राजेश शर्मा, इनामुलहक, मानव विज और दीपक डोबरियाल बेहतरीन हैं. रवि किशन बेहद सटीक हैं. इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस और ट्रैफिक पुलिस की वर्दी का रंग एक होने पर उनका कटाक्ष फिल्म में कई बार दोहराया जाता है, पर हर बार उतना ही मजेदार लगता है. 

आखिर में, 'लखनऊ सेंट्रल' अपने कुछ गिनती के हिस्सों के रोमांच और कुछ सह-कलाकारों के अभिनय के आगे या पीछे और कुछ नहीं है. बचकानी 'कैदी बैंड' से हाथ लगी निराशा ने इस फिल्म से उम्मीदें काफी बढ़ा दी थीं, पर अफ़सोस! फिल्म के खाते में 'उतनी भी बुरी नहीं है' से ज्यादा तारीफ़ नसीब नहीं होती. असली जेलों के असली बैंडों की तुलना में ये फ़िल्मी बैंड 'बैन'ड' कर दिये जाएँ तो ही अच्छा!! [2/5] 

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