Friday 17 April 2015

कोर्ट (मराठी): सिर्फ सच...और सिनेमा! सिनेमा और सच के सिवा कुछ नहीं!! [4.5/5]

अगर आप कभी असल ज़िंदगी में कोर्ट नहीं गए, तो प्रबल संभावना है कि आपके मन में कोर्ट की जो थोड़ी-बहुत परिकल्पना होगी, हिंदी फिल्मों से उधार ली हुई होगी। जहां वकील 'तू डाल-डाल, मैं पात-पात' की तर्ज़ पर गला-काट जिरह कर रहे होंगे, मुलज़िम कुशल कारीगरी से बनाये गए बड़े से कठघरे पे हाथ टिकाये बार-बार 'योर ऑनर, ये झूठ है' का जुमला फेंक रहा होगा और जज साहब भी इंसाफ का हथौड़ा 'ऑर्डर-ऑर्डर' की धुन पर बजाने में पूरी तरह मशगूल होंगे। भारत में जहां हज़ारों-लाखों मुकदमे सालों से 'तारीख़ पे तारीख़' का दर्द झेल रहे हैं, कोर्ट में इस तरह के अति-उत्साह, अप्रत्याशित जोश और अविश्वसनीय रोमांच की उम्मीद करना एक तरह से बेवकूफ़ी ही होगी। ऐसा ही कुछ चैतन्य तम्हाणे की राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म 'कोर्ट' के बारे में भी कहा जा सकता है! यथार्थ के इतने करीब एक ऐसी फिल्म जिसमें बनावटीपन 'दाल में नमक' जितना है, वो भी एकदम सही मात्रा में, कम- ज्यादा!

मराठी के जुझारू लोक-गायक, गीतकार-लेखक और विचारक नारायण कांबले [वीरा साथीदार] पर पहले भी सरकार-विरोधी, जाति-संप्रदाय विरोधी और सामाजिक उत्तेजना भड़काने के आरोप लगते रहे हैं पर इस बार उन्हें एक मजदूर को आत्महत्या के लिए उकसाने के इल्ज़ाम में पुलिस ने गिरफ़्तार किया है! दो दिन पहले अपने एक जोशीले गीत में कांबले ने 'इस तरह जीने से तो गटर में डूब कर मर जाना अच्छा' का शंख फूँका था, और आज सफाई-कर्मचारी वासुदेव पवार गटर में मरा पाया गया. बहरहाल, मामला कोर्ट में पहुँच गया है! सरकारी पक्ष की वकील नूतन [गीतांजलि कुलकर्णी] ने दो-ढाई पेज का मुकदमानामा एक सांस में खत्म कर दिया। बचाव-पक्ष के वकील विनय [विवेक गोम्बर] जमानत लेने में असफल रहे. अगली तारीख मिल गई है. नूतन मुंबई की लोकल ट्रेन में पति की डायबिटीज़ और खाने में कम तेल इस्तेमाल करने फायदे बता रही हैं. विनय डाइनिंग टेबल पर अपने माँ-बाप से शादी करने के मुद्दे पर लड़ रहा है. अगली तारीख पर दोनों फिर आमने-सामने हैं, पर एक अहम गवाह की तबियत ख़राब है! एक और तारीख से यहां किसी को कोई तकलीफ़ नहीं, फैसले की किसी को कोई जल्दी भी नहीं।

गौरतलब हो कि इन सबके बीच मृणाल देसाई का कैमरा थोड़ी दूरी बनाकर, एकदम सांस रोके चुपचाप आपको वास्तविकता का स्वाद चखा रहा है, जैसे आप सिनेमाहॉल में नहीं, वहीँ कहीं एक कुर्सी पकड़ के बैठे हों. फिल्म के एक दृश्य में बचाव पक्ष के वकील एक रेस्टोरेंट से बाहर निकल रहे हैं, कैमरा सड़क के पार से उन्हें देख रहा है, एकदम स्थिर। एक ख़ास जाति के दो लोग वकील साब के मुंह पर कालिख पोतने लगते हैं, फ्रेम में सिर्फ रेस्टोरेंट का दरबान दिख रहा है और बाकी का पूरा घटनाक्रम आप सिर्फ आवाज़ों के जरिये देख पा रहे हैं. बेहतरीन प्रयोग!

फिल्म को सच्चाई का रंग देना हो तो कलाकारों का किरदारों में ढल जाना बहुत जरूरी है। 'कोर्ट' में पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन अभिनेता है? और कौन असली किरदार? अगर आप गीतांजलि कुलकर्णी को पहचानते नहीं तो पहले दो दृश्यों में आप उन्हें कोई असल ज़िंदगी की वकील समझने की भूल यकीनन कर बैठेंगे, जिसे नाटकीय अभिनय का '--' भी नहीं आता! हालाँकि उनके मुकाबले विवेक गोम्बर थोड़े ज्यादा सचेत नज़र आते हैं, पर 'शिप ऑफ़ थीसियस' के बाद ये एक ऐसी फिल्म है जिसमें अभिनय, अभिनय नहीं लगता, संवाद रटे-रटाये नहीं लगते और फिल्म कुल मिलाकर भारतीय सिनेमा को एक नए मुकाम पे ला खड़ा करती है!

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सत्ता का पौरुष-प्रदर्शन देखना हो या सदियों पुराने तौर-तरीकों और सामाजिक मान्यताओं को आधार-स्तम्भ बनाये बैठी भारतीय न्याय व्यवस्था की जीर्ण-शीर्ण, जर्जर हालत की बानगी देखनी हो तो और किसी कोर्ट के दरवाजे खटखटाने की जरूरत नहीं, बेहिचक चैतन्य तम्हाणे की 'कोर्ट' देख लीजिये! साल की सबसे अच्छी फिल्म, अब तक की! [4.5/5]

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