Thursday 29 November 2018

2.0: ढाई घंटे का ‘विज़ुअल ग्राफ़िक्स पॉर्न’! [2/5]


इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में ‘विज़नरी’ होने का सिर्फ एक ही मतलब है, आप कहानी कहते वक़्त दृश्यों को कितना बड़ा और कितना ‘महानाटकीय बना पाते हैं. टेक्नोलॉजी की मदद से एक ऐसी अजीब-ओ-गरीब दुनिया रच डालिए, जहां बड़े-बड़े सेट्स हों, कंप्यूटर जी की कृपा से सैकड़ों की भीड़ को लाखों में बदल दिया जाता हो, थका देने वाले एक्शन सीक्वेंस की भरमार हो, चाहे उनकी बनावट क्यूँ न एक जैसी ही हर बार हो, पर इन सबके साथ कहानी के मूल में मनोरंजन पेश करने की जो परिकल्पना हो, वो वही पुराने ढर्रे का बासीपन लिए हो. उसमें किसी भी तरह का बदलाव या उससे किसी भी किस्म का छेड़छाड़ बरदाश्त नहीं. शानदार विज़ुअल ग्राफ़िक्स के शो-रील जैसी शंकर की नयी साइंस-फिक्शन फ़िल्म ‘2.0 सिनेमा में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए परदे, कैमरे और अपने अपने ग्राफ़िक मशीनों के पीछे बैठे सैकड़ों लोगों की मेहनत ज़ाया करने के अलावा और किसी काम नहीं आती. भारत की सबसे महंगी फिल्म होने के तमगे के नीचे ‘अच्छी फिल्म’ होने की शर्त कहीं दब न जाए, फिल्म से जुड़े तकरीबन सभी लोग ये बात बड़ी सहूलियत से नज़रंदाज़ कर देते हैं.

चेन्नई इक नयी मुसीबत से जूझ रहा है. शहर के सभी लोगों के हाथों से मोबाइल फ़ोन उड़-उड़ कर गायब हो रहे हैं. जल्द ही, टेलिकॉम इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत भी हो रही है. डॉ. वशीकरण (सुपरस्टार रजनी) के पास अपने सुपर-रोबोट चिट्टी को वापस लाने के अलावा और कोई चारा नहीं है. हालाँकि उनके पास एक और सुपर-रोबोट है नीला (एमी जैक्सन), पर वो घरेलू इस्तेमाल के लिए है. ज्यादातर वक़्त टीवी सीरियल्स और फ़िल्में देखती रहती है. फिल्म में हीरोइन होने से ज्यादा कुछ करना, उसके प्रोग्राम में ही नहीं है. बेचारी. वैसे भी रजनीकान्त की फिल्म में जहां चार—चार रजनी (डॉ. वशीकरण, चिट्टी, चिट्टी 2.0, चिट्टी माइक्रो बॉट्स) हों, एमी हो न हो, क्या ही फर्क पड़ता है? बहरहाल, पता चलता है कि इस नयी मुसीबत के पीछे पर्यावरणविद् पक्षीराजन (अक्षय कुमार) का हाथ है, जो मोबाइल रेडिएशन की वजह से पक्षियों पर होने वाले खतरनाक असर से दुखी भी हैं, और मनुष्य प्रजाति से खासे नाराज़ भी.

एक वक़्त था, फिल्म-निर्देशक शंकर अपनी कहानियों और किरदारों के होने की वजहों में महा-मनोरंजन खोजने की कोशिश करते थे. ‘इंडियन हो या ‘नायक, किरदारों का संघर्ष समाज के बड़े तबकों के हित के लिए होते हुए भी बेहद ज़मीनी था, और नाटकीय भी सिर्फ इतना कि अनदेखा होते हुए भी असल जिंदगी में ‘हो सकने’ की सम्भावना के थोड़ा करीब. ‘2.0 विज़ुअल इफेक्ट्स की दुनिया में मौजूद संभावनाओं को निचोड़ लेने की सनक से ज्यादा और कुछ नहीं है. कहानी में कल्पना के परे जाने पर कंप्यूटर ग्राफ़िक्स के मदद की जरूरत अक्सर सभी छोटे-बड़ों को पड़ती ही रहती है, ‘2.0’ को कंप्यूटर ग्राफ़िक्स में कुछ बड़ा कर गुजरने की चाह में, कुछ अनूठा गढ़ने की ललक में कहानी की जरूरत पड़ती है. वो भी, एक ही तरह की टेक्नोलॉजी, बार-बार. ‘रोबोट इस मामले में थोड़ी बेहतर थी. नयेपन की कसार रह रह की पूरे कर देती है. मैग्नेटिक फील्ड पैदा करके चिट्टी का गुंडों से उनके लोहे के हथियार छीन लेना और फिर उन्हीं के साथ थोड़े-बहुत बदलाव के साथ, माँ दुर्गा या काली जैसा एक ‘देवरूप ले लेना, पूरी भी नया भी था और भारतीयता का ख़ूब सारा पुट लिए हुए भी. ‘2.0 वैसा एक भी चित्र दिमाग में छोड़ जाने में असफल रह जाता है. लाखों मोबाइल्स मिला के एक दैत्याकार पक्षी का रूप धरने वाला प्रयोग बार-बार दोहराया जाता है. चिट्टी के सैकड़ों मॉडल्स का अलग-अलग रूप में जुड़ना-टूटना-बनना भी पिछली फिल्मों से एकदम नया नहीं है.

फिल्म रजनीकान्त के ऊँचे कद और उनके चाहने वालों को ख़याल में रख कर ही अपना हर कदम आगे बढ़ाती है. हालाँकि अभिनय के नाम पर उनसे कुछ भी लाज़वाब कर गुजरने की उम्मीद तो किसी को भी नहीं होगी, ख़ास कर ऐसी फिल्म में जहां सब कुछ कंप्यूटर पर रचा-रचाया हो, फिर भी रजनीकांत परदे पर अपने होने से अलग कुछ ख़ास करते नज़र नहीं आते. अक्षय कुमार के साथ थोड़ी नरमी बरती जा सकती है, क्योंकि उनके अभिनय का बहुत कुछ हिस्सा उनके भारी-भरकम गेट-अप के पीछे छुप जाता है. इतने के बावजूद भी, वो गिनती के दो-चार दृश्यों में अपने किरदार के सनकपन से सिहरन पैदा कर जाते हैं. हालाँकि दुखद है कि उनके किरदार का मकसद नेक होते हुए भी, शंकर उन्हें एक खलनायक से ज्यादा ऊपर उठने की छूट नहीं देते. ना ही, दर्शकों को उनके किरदार के साथ हमदर्दी या सहानुभूति रखने का मौका.  

आखिर में; ‘2.0’ ढाई घंटे का एक ‘विज़ुअल ग्राफ़िक्स पॉर्न’ है, जिसे आप चाह कर भी ज्यादा देर तक सराह नहीं पायेंगे. हाँ, बहुत मुमकिन है कि कुछ महीने में फिल्म के ख़ास एक्शन दृश्यों की ‘क्लिपिंग्स’ आपके फ़ोन के ‘व्हाट्स एप्प’ इनबॉक्स में धड़ाधड़ आनी शुरू हो जाएँ, और अगर ऐसा हुआ तो सोचिये, कितनी बड़ी ठिठोली होगी इस फिल्म के साथ, जो खुद मोबाइल्स के बढ़ते इस्तेमाल के खिलाफ जंग छेड़े बैठी हो. वक़्त आ गया है कि अब इंडियन फिल्म इंडस्ट्री बायोपिक के बाद साइंस-फिक्शन पर हाथ आजमाना बंद ही कर दे. ‘2.0 में फिक्शन तो बहुत है, लेकिन साइंस उतनी ही नदारद, जितनी त्रिपुरा के युवा मुख्यमंत्री बिप्लब देब के बयानों से. [2/5]               

Friday 16 November 2018

पीहू: डरावनी, पर बेहद स्वार्थी और असंवेदनशील!


डरावनी फिल्में देखते वक़्त, अक्सर हम सब कभी न कभी अनजान डर की आहट सुनकर, डरने से बचने के लिए आँखें मींच बैठते हैं, या चेहरा ही परदे से दूर घुमा लेते हैं. अच्छी डरावनी फिल्मों में ऐसा ज्यादातर वक़्त होना चाहिए, सिनेमा का यही चलता-फिरता पैमाना है. आप नहीं चाहते कि आपके चहेते किरदार के साथ परदे पर कुछ भी बुरा हो, बल्कि कई बार तो आप खुद सिनेमाहाल में बैठे होने की हकीक़त से अलग, अपनी सीट से उचक कर उसे आने वाले खतरे से आगाह तक करने को तैयार हो जाते हैं. ऐसी फिल्मों में और ऐसे हालात में, फिल्म के किरदार के लिए दर्शकों का भावुक होना जायज़ भी है, और सामान्य भी. विनोद कापरी की ‘पीहू इस मुकाम से कहीं एक कदम आगे बढ़ जाती है, या यूँ कहें तो सिनेमा में कुछ उत्कृष्ट, कुछ अलग, कुछ अनोखा करने की अपनी ही सनक में नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय संवेदनाओं की एक अदृश्य सीमा-रेखा लांघ जाती है.

आखिर ऐसा कितनी बार होता है कि परदे पर बड़ी से बड़ी त्रासदी झेलते वक़्त मासूम किरदारों की मानसिक स्थिति से कहीं ज्यादा फ़िक्र, आपको कैमरे के सामने उन किरदारों को निभाने वाले काबिल कलाकारों की होने लगे? ‘द मशीनिस्ट में क्रिस्चियन बेल को तो आप सिनेमा की वेदी पर तपते हुए बेशक सराह सकते हैं, ‘पीहू में महज़ 2 साल की मायरा विश्वकर्मा को उन भयावह परिस्थितियों से गुजरते भला देख भी कैसे सकते हैं? इस धागे भर की समझ ही सिनेमा के प्रति आपकी जिम्मेदारियों का पूरा कच्चा-चिट्ठा है. ‘पीहू शायद हिंदी सिनेमा की सबसे विचलित कर देने वाली फिल्म होगी, खासकर पैरेंट्स के लिए, पर इसके साथ ही एक गैर-ज़िम्मेदार, असंवेदनशील और क्रूर फिल्म भी. कम से कम मेरे और मायरा के लिए तो रहेगी ही.

2 साल की पीहू (मायरा ‘पीहू’ विश्वकर्मा) घर में अकेली नहीं है. मम्मी हैं, सोयी हैं, पर उठ नहीं रहीं. पिछली रात को ही पीहू का बर्थडे था, गुब्बारे अभी भी रह-रह कर अपने आप फट रहे हैं. पापा ज़रूरी मीटिंग के सिलसिले में कोलकाता गये हैं. मम्मी से लड़-झगड़ कर, पर पीहू को नहीं पता. पीहू सोकर उठती है, खुद ब्रश करती है, दरवाजे के पास से अखबार उठाती है, गांधी जी की फोटो देखकर ‘बापू-बापू कह चहक उठती है. फ़ोन बज रहा है, पर पीहू की पहुँच से ऊपर है. पीहू सीढ़ियों से नीचे जा रही है, और अपने से बड़ा मोढ़ा (स्टूल) उठाकर खुद ऊपर ला रही है. आपकी सांस अटक जाती है, जब जब सीढ़ियों की एक एक पायदान पर पीहू ऊपर चढ़ रही है, लेकिन डर का ये माहौल तो अभी और गहराने वाला है. खाली दिखने वाले इस घर में भूत-प्रेत तो कहीं नहीं हैं, फिर भी दानवों की कमी नहीं. इस्तरी ऑन है, और ऑटोकट का बटन खराब. पीहू ने रोटी सेंकने के लिए गैस बर्नर जला तो दिये थे, बंद करना नहीं आ रहा. जगह-जगह घर में तारों का जंजाल फैला है. बालकनी का दरवाजा खुला है. गीज़र भी ‘बीप’ कर रहा है, और इन सबके बीच पीहू फ़िनायल को दूध समझ कर अपनी बोतल में भर रही है.

सिनेमा के नज़रिए से विनोद कापरी की हिम्मत और काबलियत पर कहीं से कोई ऊँगली नहीं उठाई जा सकती. पेशे से पत्रकार रहे कापरी को अखबार की सनसनीखेज सुर्ख़ियों में फिल्म की कहानी ढूँढने का हुनर बखूबी आता है. 90 मिनट से थोड़ी ज्यादा की पूरी फिल्म का दारोमदार 2 साल की बच्ची के किरदार पर डाल देने का माद्दा कम ही फ़िल्मकारों को फायदे का सौदा लगेगी. कापरी पूरी चतुराई से पीहू के इर्द-गिर्द उन सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों या इस्तेमाल की दूसरी घरेलू चीजों को ‘भयानक खतरे’ की तरह पेश करते हैं, जिनके साथ ‘बच्चों की पहुँच से दूर रखें’ जैसी हिदायत इतनी आम है कि अक्सर हम पढ़ने की ज़हमत भी नहीं उठाते. यही नहीं, मायरा विश्वकर्मा के रूप में उन्हें एक ऐसा बेपरवाह कलाकार नसीब हुआ है, जिसे एक पल को भी कमरे में कैमरे की मौजूदगी से न परहेज़ है, न चिढ़, ना ही कोई झिझक. फिल्म के हर फ़्रेम में मायरा स्वक्छंद हैं, आज़ाद तितली की तरह. न उसके ऊपर लिखे-लिखाये संवादों का कोई बोझ ही नज़र आता है, ना ही अभिनेता के तौर पर ‘अब क्या करूं’ की उलझन. मायरा बहती चली जाती है, और आप उसे रोकना भी नहीं चाहते.

...फिर आप कहेंगे, दिक्कत क्या है? सिनेमा में अक्सर बाल-कलाकारों के मासूम ज़ेहन को आंकने में फ़िल्मकार अपनी संवेदनशीलता खो बैठते हैं. परदे के लिए ‘परफॉर्म कराते वक़्त हम स्वार्थी होकर सोचते भी नहीं कि वो खुद किस ज़ज्बाती झंझावात से, और कितनी मुश्किल से लड़ रहे होंगे? बीते दौर के कितने ही बाल-कलाकारों ने अपनी दिमाग़ी लड़ाई बड़े होने तक लम्बी लड़ी है. सारिका उनमें से एक हैं. ‘पीहू सच्ची घटनाओं पर आधारित है. 2 साल की किसी बच्ची के साथ असलियत में इस तरह का जो भी हादसा हुआ होगा, दिल चीर देने वाली घटना है. यकीन मानिए, हम और आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि उसकी मानसिक हालत उस वक़्त क्या रही होगी, या उस वक़्त का सदमा अब उसे किस तरह झेलना पड़ रहा होगा? ‘पीहू एक कहानी है, जिसका कहा जाना जरूरी भी हो सकता है, आपको उस खतरे से आगाह करने के लिए, जो आपको खतरा लगता ही नहीं; पर इस प्रयास में, पूरी देखरेख और जागरूकता के बावज़ूद, मायरा को सिनेमा के नाम पर झोंक देने का जोखिम कतई प्रशंसनीय नहीं हो सकता. हालाँकि टेलीविज़न के रियलिटी शोज़ में हम ऐसा होते हुए हर हफ्ते देखते आये हैं, सिनेमा में इस तरह की सीनाजोरी पहली बार है.

आखिर में, ‘पीहू एक डरावनी फिल्म है. माँ-बाप के लिए ख़ास तौर पर, जो अपने मासूमों की देखरेख में अक्सर जाने-अनजाने लापरवाह हो बैठते हैं. साथ ही, एक बेशर्म, भयावह फिल्म भी जो सिनेमा से ऊपर उठकर, नैतिक और संवेदनशील होने की समझदारी दिखाने से आँखें मूँद लेती है. उम्मीद करता हूँ, मायरा जल्द ही ‘पीहू की गिरफ़्त से बाहर निकल आये...सही-सलामत.

पुनश्च: इस बार रेटिंग नहीं. कम आंक कर मायरा की लाज़वाब अदाकारी, और ज्यादा आंक कर फिल्म की असंवेदनशीलता को नकार नहीं सकता.   

Thursday 8 November 2018

ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान: सिनेमा के ठगों से बचिए! [1.5/5]


1968 में एक फिल्म बनी थी, ‘राजा और रंक’. राजा-महाराजाओं की कहानी थी. नायक (संजीव कुमार) कालकोठरी में बंद है. उसे छुड़ाने की गरज़ से आई नायिका (कुमकुम) ‘मेरा नाम है चमेली गीत गाते-गाते पहरेदारों और सिपाहियों को शराब पिला-पिला कर धुत्त कर देती है. नायक गिरफ़्त से बच निकलता है. ठीक 50 साल बाद, ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान में नायक आमिर खान भी ऐसी ही कुछ जुगत लगा रहे हैं, अमिताभ बच्चन के किरदार को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने में. बस्स, शराब की जगह इस बार नशीले लड्डुओं ने ले ली है. ‘मेरा नाम है चमेली गीत मैं आज भी बड़े, छोटे हर परदे पर देख सकता हूँ. उस गाने के साथ मेरा बचपन और बीते दौर की महक दोनों खिंचे चले आते हैं. ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान के साथ इस तरह की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. न कानों को प्रिय लगने वाला संगीत, ना ही पुराने दौर से जुड़े होने का भरम. इसलिए इसे देखते वक़्त, अक्सर मुझे मनोज कुमार की ‘क्रांति के गानों की तलब लगने लगती है. आख़िरकार, जब सब कुछ पुराना सा, नकली और बासी ही है, तो बीते हुए कल में झांककर पहले से मौजूद मनोरंजन खोज लेने में हर्ज़ ही क्या है? हाँ, लेकिन तब फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा स्टूडियो (यशराज फिल्म्स) होने का अहम् ज़रूर दांव पर लग जाएगा.

1795 के आसपास का वक़्त है. ज़रूर भारत उस वक़्त ‘सोने की चिड़िया’ ही रहा होगा. कम से कम, फिल्म के भारी-भरकम सेट्स देख के तो यही लगता है. खैर, खुदाबक्श जहाज़ी (अमिताभ बच्चन) आज़ाद का नाम धरकर अंग्रेज़ों से लोहा ले रहा है. साथ है ज़फीरा (फ़ातिमा सना शेख़), जो पिता की हत्या के बाद अंग्रेजों से रियासत वापस लेने की लड़ाई लड़ रही है. अंग्रेज़ अफसर क्लाइव (लॉयड ओवेन) का मोहरा है, फिरंगी मल्लाह (आमिर खान). अव्वल दर्ज़े का धोखेबाज़, जो गिरगिट से भी तेज़ अपना रंग बदलता है और पैसों के लिए कभी भी अपना पाला बदल सकता है. एक फिरंगी मल्लाह के किरदार को थोड़ी रियायत दे दें; तो फिल्म का कोई भी दृश्य या किरदार ऐसा नहीं है, जो आपको पूरी तरह प्रभावित करता हो या चौंकाने में कामयाब होता हो. कहना गलत नहीं होगा कि फिल्म के लेखक-निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य फ़ॉर्मूले में बंधी एक बेहद औसत दर्जे की कहानी चुनते हैं, जिसका हर मोड़ आपका जाना-पहचाना है. ऊपर से, समझदारी से ज्यादा सहूलियत के साथ एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाने का आलसीपन. आज़ादी की लड़ाई से कहीं ज्यादा, फिल्म ज़फीरा के बदले की कहानी बन के रह जाती है.

विजय कृष्ण आचार्य बड़े कैनवस की फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं. यकीनी तौर पर, फिल्म के सेट्स और कैमरा शॉट्स हर बार बड़े से और बड़े होते जाते हैं, और कहानी हर बार इस भव्यता के नीचे कहीं दब कर दम तोड़ देती है. ताज्जुब तब होता है, जब आमिर जैसे समझदार भी जान-बूझ कर बड़ी आसानी से इस साज़िश का हिस्सा और शिकार बन जाते हैं. फिल्म का 10 से 15 फ़ीसदी हिस्सा सिर्फ बैकग्राउंड म्यूजिक के सहारे (वो भी वेस्टर्न स्टाइल का संगीत) किरदारों को बड़ा करके दिखाने में खर्च हो जाता है. स्लो-मोशन कैमरा हो या लो-एंगल शॉट्स; फिल्म कहानी में ड्रामा भले ही न पेश कर पाती हो, दृश्यों में ठूंस-ठूंस कर ड्रामा भरती जरूर नज़र आती है. यशराज फिल्म्स में एक वक़्त तक (यश चोपड़ा साब के ज़माने में) कहानी के लिए एक तयशुदा डिपार्टमेंट होता था. उनके जाने के साथ ही शायद अब ये चलन भी जाता रहा, वरना ‘शान की तरह शाकाल के अड्डे पर खुलेआम नाचते हुए भी भेष बदले होने का भरम पालने वाला दौर आज के परदे पर क्यूँ कर शामिल होता?

अभिनय में सबसे निराश करते हैं अमिताभ बच्चन. भारी-भरकम गेट-अप के बीच अक्सर या तो उन्हें बोलने की छूट नहीं मिलती, या फिर हमसे उनको सुनना छूट जाता है. परदे पर शानदार लगने-दिखने के अलावा उनके किरदार में कोई धार नज़र नहीं आती, वरना एक वक्त था और वो फिल्में जब उनकी संवाद अदायगी ही काफी थी रोमांचित करने को. फ़ातिमा के हिस्से कुछ अच्छे एक्शन दृश्य ज़रूर आये हैं, पर अभिनय में उनकी काबलियत अभी भी ‘दंगल के भरोसे ही है. कटरीना कैफ महज़ गिनती के कुछ दृश्यों और दो अदद गानों तक सीमित हैं. फिल्म में निर्देशन की कमजोरी इस बात से भी आंकी जा सकती है कि मोहम्मद जीशान अय्यूब जैसे सह-कलाकार भी हंसोड़ ज्यादा लगते हैं, अभिनेता कम. बच-बचा कर, आमिर ही हैं जो थोड़ी बहुत राहत देते हैं. उनकी आँखों में धूर्तता और चाल-चलन में छल पूरी तरह समाया हुआ दिखता है, और एकरस होते हुए भी कई बार मजेदार लगता है. फिर भी ये कहना कि फिल्म आमिर के लिए ही देखी जा सकती है, ज्यादती हो जायेगी.

आखिर में; ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान उन बेरहम ठगों के बारे में कम है, जो आज़ादी से पहले के भारत में पाए जाते थे, बल्कि उन बेशरम ठगों के बारे में ज्यादा है, जो आज के दौर में सिनेमा और मनोरंजन के नाम पर दर्शकों की समझ और पसंद को, कुछ भी ऊल-जलूल, थकाऊ और वाहियात परोस कर ठग रहे हैं. आमिर खान और अमिताभ बच्चन जैसे बड़े-बड़े नामों को आगे करके भीड़ खींचने वाले इन दिमाग़ी दिवालियों से जितनी दूर रहेंगे, आपकी और हिंदी सिनेमा की सेहत के लिए बेहतर होगा! [1.5/5]