Friday 23 February 2018

सोनू के टीटू की स्वीटी: ब्रोमांस का 'पंचर'नामा! [1/5]

दोस्त चू**या हो गया है. शादी करने जा रहा है. होने वाली बीवी ने खुद कबूल किया है कि वो 'चालू' है. हालाँकि उसके 'चालू' होने की शर्त और हदें कितनी दूर तक पसरी हैं, फिल्म के निर्देशक और लेखक बताने की जेहमत तक नहीं उठाते. फिर भी वो 'चालू' है, और शायद इसलिए भी क्यूंकि बदकिस्मती से वो लव रंजन के फिल्म की नायिका है. अब दूसरे दोस्त का फ़र्ज़ तो बनता है कि वो अपने दोस्त को उस 'चालू' लड़की के चंगुल में जाने से बचाए. प्यार के पंचनामा में महारत हासिल करने के बाद, लव रंजन 'सोनू के टीटू की स्वीटी' में इस बार 'ब्रोमांस' का पंचनामा करने उतरे हैं. सूरत और सीरत में, लड़की और दोस्त के बीच की ये लड़ाई बड़े परदे पर सास-बहू के झगड़ों और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की साजिशों जितनी ही बेकार, वाहियात और बासी लगती है. कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि आम लोगों के आम मनोरंजन का स्वाद समझ लेने की इस कमअक्ल अकड़ और दकियानूसी धर-पकड़ के चलते, लव रंजन बड़ी जल्दी फ़िल्मी परदे के एकता कपूर बन चुके हैं.  

सोनू (कार्तिक आर्यन) अपने बचपन के दोस्त टीटू (सनी सिंह) को गलत लड़कियों के चक्कर में फंसने से हमेशा बचाता आया है. अब जब टीटू कुछ ज्यादा ही अच्छी लगने-दिखने-बनने वाली स्वीटी (नुसरत भरुचा) से शादी करने की ठान चुका है, सोनू को शुरू से ही कुछ गलत होने का अंदेशा लगने लगा है. दोस्त को बचाने की जुगत जल्द ही मर्द और औरत के बीच की लड़ाई में बदल जाती है, और धीरे-धीरे इस लड़ाई में भारतीय टेलीविज़न के मशहूर सास-बहू धारावाहिकों जैसे पैंतरे आजमाए जाने लगते हैं. दोनों एक-दूसरे को खूब टक्कर दे रहे हैं. सोनू ने टीटू को उसकी पुरानी गर्लफ्रेंड के साथ बाहर घूमने भेज दिया है. सोनू जीत की तरफ बढ़ रहा है. टीटू से स्वीटी को उसकी फेवरेट पेस्ट्री मंगवानी थी, सोनू ने टीटू को बताया ही नहीं. सोनू पक्का बाजी मार ले जाएगा, पर ये क्या? टीटू तो बिना कहे ही पेस्ट्री ले आया. अब स्वीटी स्लो-मोशन में चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए फ्रेम से बाहर जा रही है. 

अपनी 'पंचनामा' सीरीज से लेखक-निर्देशक लव रंजन युवाओं में वो पैठ बना चुके हैं, जहां लड़कियों को बेवकूफ़ और उनके साथ प्यार में पड़ने को 'चू**यापा' बोल कर बड़ी आसानी से हंसा जा सकता है. एक पैसे का दिमाग खर्च करने की जरूरत नहीं, और लड़कियों के प्रति अपनी घिसी-पिटी नफरत को बार-बार एक ही तरीके से परोस कर पैसे बनाने का फार्मूला भी तैयार. जाने-अनजाने लव अपनी फिल्म में इस 'टाट में पैबंद' वाले नुस्खे को ज़ाहिर भी कर देते हैं, जब करोड़ों के फ़र्नीचर से सजे-धजे बंगले के छत वाले कमरे में चारपाइयां पड़ी दिखाई देती हैं. कहने को तो इसे अपनी संस्कृति से बचे-खुचे लगाव की तरह भी देखा जा सकता है, पर मैं उसे मर्दों की दकियानूसी मानसिकता का प्रतीक मानता हूँ, जो फिल्म के मूल में बड़े गहरे तक धंस के बैठा है. यही वजह है, जो फिल्म के अंत को भी अर्थ देने से लव रंजन को रोक देती है. हर 'ब्रोमांस' का अंत 'होमोसेक्सुअलिटी' से जुड़ा नहीं हो सकता, पर जब आप खुद प्रयोग करने को आतुर हैं, तो इस झिझक को तोड़ने से परहेज कैसा? (फिल्म का अंत देख कर इस विषय पर बात करना ज्यादा जायज़ रहेगा).

अदाकारी में, कार्तिक आर्यन अपने करिश्माई व्यक्तित्व से पूरी फिल्म में छाये रहते हैं. शुरू के एक दृश्य में आप उन्हें 'पंचनामा' वाला कार्तिक समझने की भूल जरूर कर बैठते हैं, पर धीरे-धीरे फिल्म ज्यादा उस ढर्रे पर सरकने लगती है, जबकि कार्तिक वहीँ ठहर कर अपने आप को संभाल लेते हैं. सनी और नुसरत से कोई ख़ास शिकायत नहीं रहती. हाँ, आलोकनाथ को अपने 'संस्कारी' चोले से बाहर निकल कर परदे पर फैलते देखना मजेदार लगता है. ब्रोमांस का चेहरा जिस संजीदगी से 'दिल चाहता है' में उकेरा गया था, 17 साल बाद 'सोनू के टीटू की स्वीटी' तक आते-आते भोथरा हो गया है. अच्छा होता, फिल्म एक वेब-सीरीज के तौर पर सामने आती. कम से कम 'स्किप' कर जाने का अधिकार तो अपने ही हाथ रहता! पर शायद, तब पुराने गानों को रीमिक्स करके बड़े परदे पर धमाल मचाने का सुख निर्माता-निर्देशकों से जरूर छिन जाता. [1/5] 

Friday 16 February 2018

अय्यारी: लम्बी, उबाऊ, नीरस! [2/5]

गनीमत है कि हिंदी फिल्मों के सीक्रेट सर्विस एजेंट्स अपने 'टारगेट' पर नज़र बनाये रखने की गरज से, आजकल सड़कों पर गाना गाते हुए दिखाई नहीं देते. रामानंद सागर की 'आँखें' याद हैं ना? हालाँकि भिखारियों का गेटअप अभी भी उनका पसंदीदा है. नीरज पांडे ने पिछले कुछ सालों में राष्ट्रीय सुरक्षा और देशप्रेम के सवालों से सीधे-सीधे तौर पर जुड़ी कहानियों के ज़रिये इतना तो किया ही है. इंटेलिजेंस के लोग अब लाल, पीले, हरे बल्बों से सजी दीवारों और पैनलों के आगे बैठे, रेडियो पर जोर जोर से 'ओवर एंड आउट' नहीं बोलते, बल्कि हफ़्तों तक बिना किसी हलचल एक कमरे में कैद रहते हैं, भीड़ भरी गलियों में, मौके की तलाश में 'टारगेट' के पीछे-पीछे चुपचाप चलते रहते हैं और काम निपटा कर वापस भीड़ में खो जाते हैं. 'अय्यारी' करीब करीब इतनी ही लम्बी, उबाऊ और नीरस फिल्म है. 

मोटी दलाली की लालच में, सेना का रिटायर्ड अधिकारी गुरिंदर सिंह (कुमुद मिश्रा) चौगुनी कीमतों पर सेना को अपने खास लोगों से ही हथियार खरीदने की पेशकश करता है. मना करने पर सेना के एक गुप्त गैरकानूनी संगठन का मीडिया में भंडाफोड़ करने की उसकी धमकी के बाद अब सेना की साख दांव पर है. खुफिया जानकारी मुहैया कराने वाला गद्दार उसी संगठन से है, मेजर जय बक्शी (सिद्दार्थ मल्होत्रा). और उसे रोकने की जिम्मेदारी है, संगठन के सबसे काबिल अफसर और मुखिया कर्नल अभय सिंह (मनोज बाजपेयी) पर. गुरु-शिष्य आमने-सामने हैं. दोनों की अपनी जायज़ वजहें हैं. दोनों के अपने-अपने दांव-पेंच. हालाँकि कहानी में ना ही जय की बग़ावत का कोई ठोस इरादा पता चलता है, ना ही अभय की कथातथित 'अय्यारी' का कोई बहुत दिलचस्प नमूना देखने को मिलता है.      

सेना का मनोबल न घटे, अक्सर इस वजह से सेना में भ्रष्टाचार की सुगबुगाहट को सिरे से नकारा जाता रहा है. नीरज पांडे जब 'अय्यारी' में सैनिक हथियारों की खरीद-फरोख्त में भ्रष्टाचार के मामले के इर्द-गिर्द अपनी कहानी बुनना शुरू करते हैं, तो लगता है कि उनके जरिये परदे पर कुछ हिम्मत दिखेगी, पर जल्द ही वो भी सेना के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने की कवायद में कहानी के साथ जबरदस्त छेड़छाड़ करने लगते हैं. नतीजा, कहानी के सिरे इतने कटे-फटे और बेमतलब हो जाते हैं कि कहने को कोई मुद्दा बचता ही नहीं. तभी तो जहां सेना पर मीडिया द्वारा उनके गुप्त संगठन का खुलासा कर दिये जाने की तलवार लटक रही होती है, 'आदर्श हाउसिंग सोसाइटी' से मिलते-जुलते एक घोटाले की खबर के साथ उसे बदल देने में ही कर्नल अभय सिंह अपनी जीत मनवा लेता है. जय का रुख और रवैया भ्रष्टाचार को लेकर बहुत ही बचकाना लगता है, खास तौर पर तब जब वो भी उन्ही लोगों के साथ सौदेबाजी में जुट जाता है. यकीन मानिए, इसमें उसकी कोई सोची-समझी रणनीति भी नहीं है, जो फिल्म के आखिर में जाकर आपको चौंका दे. 

नीरज को एक बात की दाद तो मिलनी ही चाहिए. अपने लम्बे-लम्बे दृश्यों में जिस ठहराव के साथ वो आपको लिप्त कर लेते हैं, परदे पर सस्पेंस थ्रिलर का पूरा पूरा माहौल बन जाता है. दिक्कत तब पेश आती है, जब इन लम्बे-लम्बे दृश्यों का अंत और उद्देश्य फिल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ा योगदान नहीं दे पाता. 'अय्यारी' कुछ बेहद जाने-पहचाने चेहरों (कुमुद मिश्रा, निवेदिता भट्टाचार्या, जूही बब्बर, राजेश तैलंग और आदिल हुसैन) और गिनती के बेहतरीन अभिनय (मनोज बाजपेयी, नसीर साब) से ही थोड़ी बहुत उम्मीद बचा पाती है. मनोज जहाँ अपनी ईमानदारी से पूरी फिल्म में छाए रखते हैं, नसीर साब मेहमान भूमिका में भी कमाल कर जाते हैं. सिद्धार्थ अभिनय में बहुत संयमित हैं, पर नीरज उन्हें फिल्म में 'स्टाइल' का पुट लाने के लिए ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. रकूल प्रीत बस फिल्म में होने के लिए ही हैं. 

आखिर में; 'अय्यारी' अपने विषय-वस्तु की वजह से रोचक तो लगती है, मगर नीरज पांडे की दूसरी फिल्मों (स्पेशल 26, बेबी) की तरह तनिक भी रोमांचक नहीं है. अभिनय में मनोज बाजपेयी की आसानी देखनी हो, तो भी उनकी अच्छी फिल्मों की लिस्ट बहुत बड़ी है. यहाँ तो मनोज सिर्फ आपको उकताहट से बचाने के लिए मौजूद रहते हैं. कहानी में धार न होने के बावजूद, अगर 'जय हिन्द', 'गद्दार' और 'देश', जैसे शब्द कहीं न कहीं आपमें बेमतलब की ऊर्जा भर देते हैं, तभी देखने जाईये. [2/5] 

Thursday 8 February 2018

पैडमैन: सामाजिक झिझक 'सोखने' वाली एक सुपर-हीरो फिल्म! [3.5/5]

तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनान्थम भारत के उन चंद 'सुपरहीरोज' में से हैं, जिन्होंने सस्ते सेनेटरी पैड बनाने और उन्हें गाँव-गाँव में महिलाओं तक पहुंचाने के अपने लगातार प्रयासों के जरिये, टेड-टॉक्स जैसे वर्चुअल प्लेटफार्म से लेकर यूनाइटेड नेशन्स जैसे विश्वस्तरीय मंच पर अपनी एक अलग पहचान बनाई है. उनकी सादगी, उनके बोलने के अंदाज़, उनके खुशमिजाज़ व्यक्तित्व और समाज में बदलाव लाने की उनकी ललक, उनकी जिद, उनके संघर्षों को, आर. बाल्की की फिल्म 'पैडमैन' एक फ़िल्मी जामा पहनाकर ही सही, परदे पर बड़ी कामयाबी से सामने रखती है. ये अरुणाचलम मुरुगनान्थम की ईमानदार कहानी और उनकी मजेदार शख्सियत ही है, जो थोड़ी-बहुत कमियों के बावजूद, फिल्म और फिल्म के साथ-साथ परदे पर मुरुगनान्थम का किरदार निभा रहे अक्षय कुमार को बहुत सारी इज्ज़त उधार में दे देती है. और जिसके वो हक़दार हैं भी, आखिर हिंदी फिल्मों में कितनी बार आपने एक मुख्यधारा के बड़े नायक को कुछ मतलब की बात करते सुना है, जो उसके सिनेमाई अवतार से अलग हो, जो सामाजिक ढ़ांचे में 'अशुद्ध, अपवित्र और अछूत' माना जाता रहा हो. 

'पैडमैन' महिलाओं की जिंदगी में हर महीने आने वाले उन 5 दिनों के बारे में बात करती है, जिसे अक्सर हम घरों में देख कर भी अनदेखा कर देते हैं. महीने भर की शॉपिंग-लिस्ट तैयार करते हुए कितनी बार आपने सेनेटरी पैड्स का जिक्र किया होगा? वो काली थैली या अखबार में लपेटे हुए पैकेट्स कैसे सबकी नज़रों से नज़र चुराते हुए किसी आलमारी में ऐसे दुबक जाते हैं, जैसे सामने खुल जाएँ तो क्या क़यामत आ जाये? मध्यप्रदेश का लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) अपनी पत्नी गायत्री (राधिका आप्टे) को गन्दा कपड़ा इस्तेमाल करते देखता है, तो चौंक जाता है, "मैं तो अपनी साइकिल न साफ़ करूं इससे", और पत्नी 'ये हम औरतें की दिक्कत है, आप इसमें मत पड़िये' बोल के 5 दिन के लिए बालकनी में बिस्तर लगा लेती है. गली में क्रिकेट खेल रहे लौंडे भी खूब जानते हैं, "गायत्री भाभी का (5 दिन का) टेस्ट मैच चल रहा है". 

ये भारत के उस हिस्से की बात है, जहां पहली बार 'महीना' शुरू होने पर लड़की से औरत बनने का उत्सव मनाया जाता है. रस्में होती हैं, पूजा होती है, भोज होता है, पर सोना लड़की को बरामदे में ही पड़ता है. लक्ष्मी की समझ से परे है कि थोड़ी सी रुई और जरा से कपड़े से बनी इस हलकी सी चीज का दाम 55 रूपये जितना महंगा कैसे हो सकता है? और इसी गुत्थी को सुलझा कर सस्ते सेनेटरी पैड्स बनाने की जुगत में लक्ष्मी बार-बार नाकामयाबी, डांट-फटकार, सामाजिक बहिष्कार और पारिवारिक उथल-पुथल से जूझता रहता है. तब तक, जब तक परी (सोनम कपूर) के रूप में उसे उसकी पहली ग्राहक और एक मददगार साथी नहीं मिल जाता है. 

'पैडमैन' अपने पहले हिस्से में जरूर कई बार खुद को दोहराने में फँसी रहती है. लक्ष्मी का सेनेटरी पैड को लेकर उत्साह और उसे मुकम्मल तरीके से बना पाने की जिद खिंची-खिंची सी लगने लगती है. हालाँकि इस हिस्से में अक्षय से कहीं ज्यादा आपकी नज़रें राधिका आप्टे पर टिकी रहती हैं, जो एक बहुत ही घरेलू, सामान्य सी दिखने वाली और सामजिक बन्धनों के आगे बड़ी आसानी से हार मान कर बैठ जाने वाली औरत और पत्नी के किरदार में जान फूँक देती हैं. उनके लहजे, उनकी झिझक, उनके आवेश, सब में एक तरह की ईमानदारी दिखती है, जिससे आपको जुड़े रहने में कभी कोई तकलीफ महसूस नहीं होती. अक्षय जरूर शुरू शुरू में आपको 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' के जाल में फंसते हुए दिखाई देते हैं, पर फिल्म के दूसरे भाग में वो भी बड़ी ऊर्जा से अपने आप को संभाल लेते हैं. एक्सिबिशन में अपनी मिनी-मशीन को समझाने वाले दृश्य और यूनाइटेड नेशन्स के मंच पर अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी की स्पीच के साथ, अक्षय अपनी पिछली कुछ फिल्मों की तुलना में बेहतर अभिनय करते दिखाई देते हैं. ये शायद इस वजह से भी हो, कि 'पैडमैन' कहीं भी उनके 'देशभक्त' होने और परदे पे दिखने-दिखाने के पूर्वनियोजित एजेंडे पर चलने से बचती है. 

'पैडमैन' अपने विषय की वजह से पहले फ्रेम से ही एक जरूरी फिल्म का एहसास दिलाने लगती है. बाल्की 'माहवारी' के मुद्दे पर पहुँचने में तनिक देर नहीं लगाते, न ही कभी झिझकते हैं. फिल्म अपने कुछ हिस्सों में डॉक्यूमेंटरी जैसी दिखाई देने लगती है, तो वहीँ सोनम के किरदार के साथ लक्ष्मी का अधूरा प्रेम-प्रसंग जैसे हिंदी फिल्म होने की सिर्फ कोई शर्त पूरी करने के लिए रखा गया हो, लगता है. दो-एक गानों, अमिताभ बच्चन के एक लम्बे भाषण और फिल्म के मुख्य किरदार का नाम बदल कर अरुणाचलम मुरुगनान्थम से उनकी उपलब्धियों, उनके व्यक्तित्व का एक छोटा हिस्सा चुरा लेने के एक बड़े अपराध को नज़रंदाज़ कर दिया जाये, तो 'पैडमैन' एक मनोरंजक फिल्म होने के साथ साथ एक बेहद जरूरी फिल्म भी है. परिवार के साथ बैठ के देखेंगे, तो सेनेटरी पैड को लेकर आपस की झिझक तोड़ेगी भी, सोखेगी भी. [3.5/5]