Friday 30 December 2016

शीशे सी अदाकारी, पानी सा अदाकार...(The Shape-shifters and The Chameleons, of 2016)

पानी का कोई अपना रंग नहीं होता. रंगों को अपना लेने का हुनर ही उसे सबसे अलग और सबसे ख़ास बना देता है. अदाकारी में भी वही खूबी हो, तो देखने-सुनने का मज़ा ही कुछ और हो जाता है. यही वजह है, जो साधारण सी फिल्म ‘फैन’ में भी आपका रोमांच बनाये रखती है.

एक लंबे अरसे से शाहरुख़ सारी मेहनत-मशक्कत अपने स्टारडम की चकाचौंध से अपनी और कुछ अपने ही ख़ास लोगों की औसत दर्जे की फिल्मों को बॉक्स-ऑफिस पर सफल करने में जाया कर रहे थे, ‘फैन’ शाहरुख़ के उस बेजोड़ ललक, लगन और अभिनय के प्रति लगाव को हवा देती है, बॉलीवुड की बादशाहत हासिल करने में जिसने एक बड़ी भूमिका निभाई थी. शाहरुख़ बेझिझक इस मौके का पूरा फायदा उठाते हैं.

अलीगढ़’ में मनोज बाजपेयी को ही ले लीजिये. मनोज का अभिनय बोलने से ज्यादा कहने में यकीन रखता है. प्रोफेसर सिरास को वो जिस संजीदगी से और नजाकत से दर्शकों तक पहुंचाते हैं, एक वक़्त आता है जब आप दोनों को [मनोज और प्रोफेसर सिरास] अलग-अलग करके देखना भूल ही जाते हैं. मनोज कमोबेश एक ऐसी छाप छोड़ जाते हैं जो आपको बार-बार अभिनय में उनके कद की याद दिलाता रहेगा.

ऐसा ही कुछ तिलिस्म स्वरा भास्कर भी पेश करती हैं ‘निल बट्टे सन्नाटा’ में! एक पल को भी उन्हें उनके किरदार चन्दा से अलग देखना मयस्सर नहीं होता. बेटी की हताशा में बेबस, गरीबी से जूझती, सपनों को जिंदा रखने में दौड़ती-भागती एक अकेली माँ का सारा खालीपन उनकी आँखों में हमेशा तैरता रहता है, ऐसा शायद ही कभी होता है कि वो पूरी तरह टूट जाएँ स्क्रीन पर, फिर भी आपकी आँखों को भिगोने में वो हर बार कामयाब होती हैं.



उड़ता पंजाब’ में दिलजीत वाकई दिल जीत लेते हैं. एक ख़ास किस्म की सादगी तो है ही उनमें, अभिनय में भी कहीं कोई कमी नहीं दिखती. देखना होगा कि बॉलीवुड उन्हें आगे किस तरह ट्रीट करता है. हालाँकि फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी आलिया हैं. उनकी बिहारी बोली में थोड़ी घालमेल जरूरी दिखती है, पर जिस दर्द को वो बिना बोले फिल्म में जीते नज़र आती हैं, वो आलिया को आज के दौर के नामचीन अभिनेताओं की श्रेणी में ला खड़ा करने के लिए काफी है. बच्चन साब को अदाकारी में किसी सनद की जरूरत नहीं है, पर ‘पिंक’ में उनका अभिनय ख़ास कर उन मौकों पर, जब वो बोलने की जेहमत भी नहीं उठा रहे होते, बेहतरी की हर हद से ऊपर है.

अपने स्टारडम को हाशिये पर रखकर किरदार तक ही सीमित रहने का हुनर अगर बॉलीवुड में किसी को सबसे बेहतर आता है, तो वो हैं आमिर खान. बात सिर्फ वजन घटा-बढ़ा कर प्रयोग करने की नहीं है, फिल्म के तमाम जरूरी हिस्सों और दृश्यों में केंद्र-बिंदु बने रहने का लोभ-संवरण कर पाना, हर किसी के बस की बात नहीं. और ‘दंगल’ उनकी इस खासियत की ताज़ा मिसाल है. ‘वेटिंग’ में कल्कि का अभिनय साल के सबसे ‘ईमानदार’ कोशिशों में से एक कहा जा सकता है. उनके किरदार की झुंझलाहट, उसकी बेबाकी, उसका टूटना-उसका संभलना सब कुछ इतना सधा और संयमित है, कि नाटकीयता का कहीं नाम-ओ-निशान भी नहीं दिखता. ‘नीरजा’ में सोनम कपूर इसी बदलाव की तरफ बढ़ने का हौसला दिखातीं हैं. फिल्म में उनका सोनम कपूर न लगना ही काफी हद तक आपको उनके हक में कर जाता है.

साल 2016 के इन 10 बड़े 'गिरगिटिया' अदाकारों को शुक्रिया... 

#फातिमा सना शेख़, दंगल में
#शाहरुख खान, फैन में
#स्वरा भास्कर, निल बट्टे सन्नाटा में
#दिलजीत दोसांझ, उड़ता पंजाब में
#कल्कि कोचलिन, वेटिंग में
#अमिताभ बच्चन, पिंक में
#सोनम कपूर, नीरजा में
#आमिर खान, दंगल में
#आलिया भट्ट, उड़ता पंजाब में
#मनोज बाजपेयी, अलीगढ़ में 


Thursday 29 December 2016

पार चलो…(Language no Barrier!)

भाषाई सरहद सिनेमा के आड़े कभी नहीं आती. खास कर तब, जब परदे पर परोसी जाने वाली संवेदनायें सतही न होकर, सार्वभौमिक हों. आंसुओं की कोई जात नहीं होती, हंसी का कोई मजहब नहीं होता. याद कीजिये, जब फिल्मों में भाषा का प्रयोग होता ही नहीं था, मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का दर्शकों के साथ ‘कनेक्शन’ तब भी कुछ कम तो नहीं था?

तिथि’ भले ही कर्नाटक के सुदूर में बसे एक गाँव-परिवार की कहानी कहती है, पर किरदार इतने सुगढ़ और सहज हैं कि उनसे जुड़ने में आपको कतई झिझक नहीं होती. ‘चौथी कूट’ में आतंकवाद के साए में दुबका-सहमा ८० के दशक का पंजाब अपना डर आपसे साझा करने से पहले, आपसे पंजाबी होने का सबूत नहीं मांगता. 

विसारनाई’ तो दर्द बांटने में एक कदम और आगे बढ़ जाती है. गरीब-मजदूर वर्ग के कुछ सीधे-सादे किरदारों की नंगी पीठ पर जब पुलिस के फट्टे बेहयाई से पड़ते हैं, दर्द से आप चीख उठते हैं, परदे से आँखें चुराने लगते हैं, मुट्ठियाँ गुस्से में भिंच जाती हैं. सिनेमा का असर और सिनेमा का बूता अगर महसूस करना है, तो साल 2016 की इन क्षेत्रीय भाषा फिल्मों को जरूर देखें...      

#तिथि (कन्नड़)  #चौथी कूट (पंजाबी) #सैराट (मराठी)  #विसारनाई (तमिल) #कम्माटीपादम् (मलयालम)




जिन्दगी की कठोर, निर्मम, धीर-गंभीर सच्चाईयां जो हास्य उत्पन्न करती हैं, उनका कोई सानी नहीं. करीने से सजे-सजाये, चटख रंगों में रंगे-पुते, ठंडे-हवादार कमरों में बैठकर गढ़े गए चुटकुलों की शेल्फ़-लाइफ़ कुछ घंटों, कुछ दिनों से ज्यादा की कतई नहीं होती, पर असल जिन्दगी के दांव-पेंच कुछ अलग ही मिज़ाज के होते हैं. आपकी व्यथा, आपकी पीड़ा, आपका दुःख कब किसी दूसरे के लिए हास्य का सबब बन जाता है, आपको अंदाज़ा भी नहीं रहता. 

कुल मिला के 26 साल के हैं फ़िल्मकार राम रेड्डी, पर अपनी पहली ही कन्नड़ फिल्म ‘तिथि’ में जिस सफाई से ज़िन्दगी को उधेड़-उधेड़ कर आपके सामने फैलाते हैं और फिर उतनी ही बारीकी से उसे किरदारों के इर्द-गिर्द बुनते भी हैं, उसे देखकर अगर आप बड़े हैं तो हैरत और अगर बराबर उम्र के हैं तो जलन होना लाज़मी है.






80 के दशक का पंजाब दहशत और अविश्वास के माहौल में दबी-दबी सांसें ले रहा है. पुलिसिया बूट पर पॉलिश चढ़ रही है. सरकारी वर्दी गेंहू और गन्ने के खेतों में उग्रवादी खोज रही है. दोनाली बंदूकों की बटों ने बेक़सूर पीठों पर अपने नीले निशान छोड़ने सीख लिए हैं. अपने ही कौम के काले चेहरों से रात और भी भयावह लगने लगी है. कौन किसपे ऐतबार करे? कौन अपनी हद में है, और कौन शक की ज़द में? किसे पता. 

गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘चौथी कूट’ कहानी कह भर देने की जल्दबाजी नहीं दिखाती, बल्कि कहानी जीने का आपको पूरा-पूरा वक़्त और मौका देती है. आतंक यहाँ सुनसान गलियों के सन्नाटे में पलता है, डरे हुए चेहरों पे चढ़ता है और धीरे, बहुत धीरे, सहमे-सहमे क़दमों से आप तक पहुँचता है. ये एक अलग भाषा है. सिनेमा में एक अलग तरीके की भाषा, जो ठहराव से हलचल पैदा करना चाहती है, और इस बेजोड़ कोशिश में बखूबी कामयाब भी होती है.





The system sharks are after the most vulnerable fishes in the water. A fake confession will work well for both the parties but getting one from the innocents needs lot of muscle wrestling exercises. Police brutality in India is probably the most accepted illegal practice today in our system, by our system and for our system. The powerful have been using it for ages to force their control over the powerless but the torture, pain and brutality Vetri Maaran’s Tamil Film VISARANAI (INTERROGATION) shows is excruciatingly sickening, shocking and real. 

There are moments absolutely existent where I couldn’t trust my intelligence as it is being acted or is a documentation of some actual events captured. 





सैराट’ जहां एक तरफ नौजवान दिलों की धड़कन का मधुर संगीत है, इश्किया सपनों का खुला आसमान है, वहीँ सामाजिक कुरीतियों और जातिगत संघर्ष का घिनौना मैदान भी है. मंजुले की खासियत ये है कि वे उन्ही जगहों से आते हैं, जहां की वो बात करते हैं. ऐसे में, फिल्म के किरदारों और उनके बीच बनते-पनपते पलों से जुड़ाव महसूस करना आपके लिए कतई आसान हो जाता है. 

बचपन की दोस्ती, दोस्तों का प्यार और पहले-पहले इश्क का बुखार स्लो-मोशन शॉट्स में बहुत मजेदार लगने वाला है, पर सिनेमा सिर्फ इतना ही तो नहीं. मंजुले का सिनेमा सिर्फ इतना ही नहीं. सैराट’ के साथ मंजुले जिस तरह आपको चौंकाते हैं, आप दहल जाते हैं. आपके अन्दर एक ऐसा भूचाल आ जाता है, जिसकी थिरकन फिल्म देखने के बहुत बाद तक वैसी ही तरोताज़ा रहती है.








Rajiv Ravi has dismantled all conventional concepts of Malayali aesthetics by capturing the unadulterated beauty of black skin through characters like ‘Ganga’, ‘Balettan’ and others who portrayed the lives of Dalits. The director has continued to use his anarchic concepts of visualisation, which include shaky shots, blurred frames and sometimes abrupt sequences. 

The realistic and daring approach of Rajiv Ravi deserves standing ovation at times when the paper tigers in this industry still fear to come up with something different from the old mould.  
(Goutham VS, The Indian Express)

Wednesday 28 December 2016

साल के बेमिसाल...(They Came, They Saw, They Conquered)

ढर्रे को तोड़ना, उस जमीन पर रास्ते तलाशना जहाँ पहले कभी इंसानी पाँव पड़े ही नहीं, अपने ही बनाये मानकों को लांघ कर आगे निकल जाना; बॉलीवुड के लिए कभी आसान नहीं रहा. फिर भी इस पूरे साल, कईयों ने हिम्मत दिखाई और अपनी मौजूदगी का बाकायदा एहसास कराते रहे. ‘पिंक’ अगर औरतों के प्रति मर्दों की सदियों पुरानी सड़ांध भरी मानसिकता को कड़े शब्दों में ‘ना’ कहने, और ‘ना’ का मतलब ‘ना’ ही होने की जोरदार पहल करती है, तो ‘अलीगढ़’ समलैंगिकता के जुड़े ज़ज्बातों को ‘ओछी नैतिकता’ के दुनियावी दलदल से निकाल कर हमारे दिलों और घरों में बाइज्ज़त कायम करने की सफल कोशिश करती है.

हिंदी सिनेमा की भाषा बदल रही है, और इस बात की मिसाल ‘कपूर एंड संस’ से बढ़िया और क्या हो सकती है? पारिवारिक अंतर्कलह हमेशा से हिंदी सिनेमा के रंगीन परदे को लुभाता रहा है. दर्शकों की आँखों में नमी लाकर बॉक्सऑफिस पर पैसे बटोरने का फ़न पुराना और बासी हो चला है, और इस बात की भनक तब लगती है, जब हम ‘कपूर एंड संस’ से मिलना तय करते हैं. यहाँ सब कुछ वैसा ही बेतरतीब है, जैसे अपने घरों में होता है. यहाँ सब जैसे टूटे हुए बैठे हैं या टूट कर बिखरने की कगार पर हैं. मलाल, गुस्सा, शिकवे-शिकायतें और कुढ़न, सबके अन्दर जैसे एक ज्वालामुखी सो रहा है, जब उठेगा, फटेगा तो जाने क्या होगा? यहाँ आने में आपको थोड़ी झिझक जरूर होगी, पर एक बार आ गए तो जाने में भी उतनी ही मुश्किल.

साल 2016 के इन 10 बेमिसाल फिल्मों में कहीं न कहीं आपको पुराना बॉलीवुड नये चोले पहनता हुआ दिखाई देगा. हौसला-अफजाई तो बनती है...शुक्रिया!  


#एयरलिफ्ट #डियर जिंदगी #निल बट्टे सन्नाटा #नीरजा #अलीगढ़ 
#रमन राघव 2.0 #कपूर एंड संस #उड़ता पंजाब #दंगल #पिंक        





AIRLIFT is a nice, well-intended break from loud and fake jingoism in Hindi cinema. The patriotism portrayed here is never too pushy, preached or purposefully painted. No matter how millionth of times you have seen a tricolour being hoisted up from soil to sky, you’re tend to feel the ‘get-up-and-go’ force within you but Raja Menon gives it all a reason, more unadulterated and uncontaminated. 


The merit also lies in casting Akshay Kumar who deliberately decides to underplay his unapologetically self-interested image for a while and gives us a character that’s more human than just feeding off someone’s unchallenged starry ego. He’s not new to the flavor though. BABY and SPECIAL 26 have done quite well for him in the past. AIRLIFT is a greater addition to the list.




डियर ज़िन्दगी’ अपने छोटे-छोटे, हलके-फुल्के पलों में बड़े-बड़े फलसफों वाली बातें कहने का जोखिम बखूबी और बेख़ौफ़ उठाती है. डॉक्टर खान जब भी रिश्तों को लेकर ज़िन्दगी का एक नया पहलू काईरा को समझा रहे होते हैं, उनकी इस भूमिका में शाहरुख़ जैसे बड़े कलाकार का होना अपनी अहमियत साफ़ जता जाता है. ये चेहरा जाना-पहचाना है. बीसियों साल से परदे पर प्यार, दोस्ती और ज़िन्दगी की बातें करता आ रहा है, पर इस बार उसकी बातों की दलील पहले से कहीं ज्यादा गहरी है, मजबूत है, कारगर है. 

आलिया जिस तरह भरभरा कर टूटती हैं परदे पर, हिंदी सिनेमा में अपने साथ के तमाम कलाकारों को धकियाते हुए एकदम आगे निकल जाती हैं. फिल्म की खासियतों में से एक ये भी है कि शाहरुख़ जैसा दमदार स्टार होते हुए भी कैमरा और कहानी दोनों आलिया के किरदार से कभी दूर हटते दिखाई नहीं देते.





सपनों के कोई दायरे नहीं हुआ करते. छोटी आँखों में भी बड़े सपने पलते देखे हैं हमने. फेसबुक की दीवारों और अखबारों की परतों के बीच आपको दिल छू लेने वाली ऐसी कई कहानियाँ मिल जायेंगी, जिनमें सपनों की उड़ान ने उम्मीदों का आसमान छोटा कर दिया हो. हालिया मिसालों में वाराणसी के आईएएस (IAS) ऑफिसर गोविन्द जायसवाल का हवाला दिया सकता है, जिनके पिता कभी रिक्शा चलाते थे. 

अश्विनी अय्यर तिवारी की मार्मिक, मजेदार और प्रशंसनीय फिल्म ‘निल बट्टे सन्नाटा’ भी ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी कहानी के जरिये आपको जिंदगी के उस हिस्से में ले जाती है, जहां गरीबी सपनों की अमीरी पर हावी होने की कोशिश तो भरपूर करती है पर अंत में जीत हौसलों से लथपथ सपने की ही होती है. 






Real-life heroes are way better than the ones we see, create or admire on big screen. They might not look perfectly decked-up all the time, make a grand entry and an even greater exit from the frame in the most overrated slow-motion shots. They might not be so exceptionally skilled to kill every bad man in their way; on the other hand, they might get killed at the end. 

And trust me if they do so, it’s never pre-designed to sympathetically benefit their own image amongst their fans. Real-life heroes also necessarily don’t have to be always a ‘Hero’ to inspire; they can also come in as a bold, fearless, strong-headed and proud 23-year old girl from the next door! Ram Madhvani’s inspirational biopic NEERJA successfully brings us closer to one such hero, most of us wouldn’t have known of if the efforts were not made.



दो-चार-दस गिनती की फिल्में को छोड़ दें तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने समलैंगिकों और समलैंगिकता को जिस बेरुखी, जिस छिछले तरीके से परदे पर अपने मतलब (...और भौंडे मनोरंजन) के लिए इस्तेमाल किया है, उसे साफ़ और पाक करने के लिए कोई एक फिल्म काफी साबित नहीं हो सकती, ये एक शर्मनाक सच है...पर इसी के साथ एक सच और भी है, कोशिशों ने हौसलों का दामन अभी छोड़ा नहीं है. 

हंसल मेहता की बेहद सुलझी हुई, संजीदगी और सादगी से भरी हुई ईमानदार फिल्म ‘अलीगढ़’ ऐसी ही एक बेहतरीन कोशिश है, जो समलैंगिकता को सनसनीखेज बनाकर परोसने की बेहयाई नहीं करती बल्कि उसे ‘निजता के अधिकार’ के साथ मिलाकर एक ऐसा मुहीम छेड़ देती है जिससे बचना-मुंह मोड़ना और अनदेखा कर देना किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए आसान नहीं रह जाता!







अपनी नई फिल्म ‘रमन राघव 2.0’ को अनुराग उनकी सबसे ख़तरनाक लव-स्टोरी का दर्जा देते हैं.अनुराग कश्यप और लव-स्टोरी?? इसका सटीक जवाब तो आपको फिल्म के आख़िरी पलों में ही मिलता है, पर अच्छी बात ये है कि ‘बॉम्बे वेलवेट’ की नाकामयाबी ने उन्हें वापस उनके अपने जाने-पहचाने दायरे में ला खड़ा किया है. हालांकि भारतीय सिनेमा में ये दायरा भी उन्हीं की बदौलत इस मुकाम तक पहुंचा है. यहाँ उनका कोई दूसरा सानी नहीं. इस बार भी उनसे कहीं कोई चूक नहीं होती. 

रमन राघव 2.0’ अब तक की उनकी सबसे ‘डार्क’ फिल्म बिना किसी झिझक कही जा सकती है. रक्त का रस और गाढ़ा हो चला है. खौफ़ का चेहरा पल-पल मुखौटे बदल रहा है. अँधेरे का साम्राज्य और गहराने लगा है.





It seems Bollywood has learnt its way to deal Indian families in films the way it should be. Chaotic, dramatic, relatable and real! With Shakun Batra’s KAPOOR & SONS (SINCE 1921), even Dharma Productions have come a long way. Forget Karan Johar’s all elite, genteel and heavenly prosperous families melting & merging patently into the equally overwhelming interiors inspired by latest interior design magazines! The characters here, in Shakun’s world, don’t really chew their words before spitting them out. On the contrary, they are loose out in the open to grind each other’s peace unabashedly. 

Backed up by good writing and even better direction skills, KAPOOR & SONS (SINCE 1921) marks the arrival of a totally fascinating and utterly dysfunctional ‘on-screen’ family you would love to see more of it. 



गुलज़ार साब की ‘माचिस’ जैसी कुछेक को अलग रख कर देखें तो पंजाब को हिंदी फिल्मों ने हमेशा मीठी चाशनी में ही लपेट कर परोसा है. दिन में बैसाखी के मेले और रात में लोहड़ी का जश्न, इससे आगे बढ़ने की हिम्मत पंजाबी सिनेमा ने तो कभी-कभी दिखाई भी है पर बॉलीवुड कमोबेश बचता ही रहा है. अब तक. ‘उड़ता पंजाब’ के आने तक. 

पंजाब की जो सपनीली तस्वीर आपने ‘यशराज फिल्म्स’ के चश्मे से देखी थी, अभिषेक चौबे की ‘उड़ता पंजाब’ पहले फ्रेम से ही उस तस्वीर पे चिपके ‘एनआरआई कम्पेटिबल’ चमक को खरोंचने में लग जाती है. सीने पर आतंकवाद का बोझ और पीठ पर ’84 के ज़ख्म उठाये पंजाब को अब हेरोइन, स्मैक और कोकीन की परतों ने ढक लिया है. खुरदुरी, किरकिराती, पपड़ी जमी परतों ने! 







अपने अधूरे सपनों का बोझ अपने बच्चों के नरम-नाज़ुक कन्धों पे डाल देना; हमारे माँ-बाप के लिए कोई नया नहीं है, और ज्यादातर मामलों और मायनों में वाज़िब भी नहीं. सख्ती कब ज्यादती बन जाती है, कोई नहीं बता सकता. धागे भर का ही फर्क है दोनों में. लकीर के इस पार का पिता अक्सर उस पार खड़ा ‘हानिकारक खलनायक’ दिखने लगता है, पर तभी तक, जब तक बच्चों को अपने पिता के सपनों में अपना भविष्य देख पाने की नज़र और समझ पैदा नहीं हो जाती. 

नितेश तिवारी की ‘दंगल’ बड़ी समझदारी से इस टकराव का सामना करती है और इस पेशोपेश से जुड़े हर ज़ज्बात को परदे पर पूरी ईमानदारी से पेश करती है. एक ऐसी फिल्म जो खुद को ही सवालों के घेरे में खड़ा करने से न डरती है, न ही पीछे हटती है. इससे पहले कि आप के ज़ेहन में कुलबुलाहट हो, कोई न कोई किरदार आपके सवालों को अपने अल्फाज़ दे देता है.




हमारे यहाँ लड़कियों को ‘करैक्टर-सर्टिफिकेट’ देने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता. सब अपनी-अपनी सोच के साथ राय बना लेने में माहिर हैं, और वक़्त पड़ने पर अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करने से भी चूकते नहीं. मर्दों की यौन-कुंठा इस कदर प्रबल हो चली है कि उन्हें लड़कियों/औरतों के छोटे-छोटे हाव-भाव भी ‘सेक्सुअल हिंट’ की तरह नज़र आने लगते हैं. ब्रा-स्ट्रैप दिख जाना, बात करते-करते हाथ लगा देना, कमर का टैटू और पेट पे ‘पिएर्सिंग’; कुछ भी और सब कुछ बस एक ‘हिंट’ है. ‘ना’ का यहाँ कोई मतलब नहीं है. 

‘पिंक’ बड़ी बेबाकी से और पूरी ईमानदारी से महिलाओं के प्रति मर्दों के इस घिनौने रवैये को कटघरे में खड़ी करती है. हालांकि फिल्म की कहानी दिल्ली और दिल्ली के आस-पास ही डरी-सहमी घूमती रहती है, पर ये सिर्फ देश के उसी एक ख़ास हिस्से की कहानी भी नहीं है. इस फिल्म की खासियत ही शायद यही है कि इसकी हद और ज़द में सब बेरोक-टोक चले आते हैं.