Friday 25 August 2017

स्निफ़: बच्चों की बचकानी फिल्म! [2/5]

बच्चों की फिल्म बचकानी हो, वो भी अमोल गुप्ते जैसे संजीदा और काबिल फिल्ममेकर की कलम से निकली और उन्हीं के निर्देशन में बनी, तो हर छोटी गलती भी जैसे गुनाह लगने लगती है. बच्चों को लेकर उनका नजरिया, उनकी ईमानदारी, उनकी समझदारी पहले 'तारे ज़मीन पर', फिर 'स्टैनली का डब्बा' और 'हवा हवाई' में खूब निखर कर सामने आई है. भारत में वैसे ही बच्चों की फिल्में कम ही बनती हैं, और जो बनती भी हैं, दिमागी तौर पर बच्चों को हमेशा कम आंकने की भूल करती आई हैं. बच्चों की पसंद-नापसंद से ज्यादा, उनसे जुड़ी सामजिक समस्याओं को उनके ही नजरिये से पेश करने में, गुप्ते छोटी फ़िल्मों को भी बेहद बड़ी और जरूरी बना देते हैं. ऐसी ही एक छोटी फिल्म 'स्निफ़' गुप्ते की लाख कोशिशों के बाद भी, मनोरंजन और अहमियत दोनों में छोटी ही रह जाती है. 

सन्नी (खुशमीत गिल) के साथ एक दिक्कत है. वो सुन सकता है, देख सकता है, पर सूंघ नहीं सकता. मसालेदार अचार के बिज़नेस में पीढ़ियाँ खपा देने वाले परिवार का चिराग सूंघ ही नहीं पाए, तो दिक्कत और बड़ी लगने लगती. वो तो भला हो स्कूल के केमिकल लैब में हुई दुर्घटना का, जिसके बाद सन्नी न सिर्फ सब कुछ सूंघ सकता है, बल्कि दो-दो किलोमीटर तक की चीजें सूंघ सकता है. जल्द ही, उसकी ये 'सुपरपावर' उसे शहर में हो रही गाड़ियों की चोरी के मामले की तह तक पहुँचने को प्रेरित करती है और अब सन्नी का जासूसी दिमाग उसकी नाक की तरह की तेज़ी से काम करने लगा है.

भारत में ऐसी फिल्मों की भरमार है, जिसमें बच्चे अपनी उम्र से आगे और ऊपर बढ़ कर भरपूर बहादुरी का परिचय देते हुए किसी न किसी गिरोह का भंडाफोड़ करके 'हीरो' बन जाते हैं. अमोल गुप्ते ने अपनी पिछली तीनों फिल्मों में इस वाहियात ढर्रे को तोड़ते हुए नए तरह की समझदारी दिखाई और हर बार सफल भी रहे. 'स्निफ़' पता नहीं क्यूँ, किस दिमागी दिवालियेपन के चलते वापस इसी ढर्रे की तरफ मुड़ जाती है. सनी ढेर सारे मोबाइल फ़ोन के साथ सीसीटीवी सेटअप तैयार कर लेता है. चोरों को पकड़ने अकेला निकल पड़ता है. परदे पर चोरों का गिरोह शराब पीते हुए दिखाया जाता है, ताकि सन्नी को उनके चंगुल से निकलने का मौका मिल सके. सन्नी की सोसाइटी में हर भाषा, हर प्रान्त से कोई न कोई रहता है. बच्चों की फिल्म में एक बंगाली इंस्पेक्टर अपने पति पर ताबड़तोड़ थप्पड़ बरसाती है, क्यूंकि उसने चोरी से मिठाई खा ली थी और अब उसका शुगर लेवल बढ़ गया है. इस एक दृश्य को बड़े तक पचा नहीं सकते, बच्चे तो क्या ही मज़े लेंगे? हालाँकि फिल्म के देखे जाने लायक दृश्यों में भी गुप्ते की वही समझदारी दिखाई देती है, पर सिर्फ झलकियों में. स्कूल के कुछ दृश्य हों, या फिर सन्नी के किरदार में खुशमीत का अभिनय; बाल कलाकारों की पूरी मण्डली बड़ों से कहीं ज्यादा धीर-गंभीर दिखाई देती है और अपने स्तर पर पूरा मनोरंजन करती है. 

आखिर में; अमोल गुप्ते की 'स्निफ़' एक बेहद औसत दर्जे की फिल्म है, जो न तो किसी भी तरह बच्चों का भरपूर मनोरंजन करने में ही कामयाब साबित होती है, ना ही उनसे जुड़े किसी भावनात्मक मुद्दे को पेश कर बड़ों का ध्यान खींचने में. फिल्म में सन्नी जब तक सूंघ नहीं पाता, उसमें संभावनाओं और भावनाओं का एक पूरा समन्दर छिपा दिखाई देता है; सूंघ लेने की क्षमता आते ही, एक बार फिर अमोल गुप्ते उसे आम बच्चों में ही ला खड़ा कर देते हैं. मैं जानता हूँ जज्बाती तौर पर ऐसा कहना अमानवीय होगा, पर इससे अच्छा तो सन्नी ठीक ही न होता. फिल्म बेहतर हो जाती! [2/5]   

बाबूमोशाय बन्दूकबाज़ (A): गैंग्स ऑफ़ यूपी! [3/5]

देसी कट्टेबाज़ों की जो कच्ची-पक्की दुनिया हमने देखी-सुनी है, अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया और विशाल भारद्वाज की फिल्मों के बदौलत ही है. उत्तर प्रदेश और बिहार की उबड़-खाबड़ ज़मीन में कुकुरमुत्ते की तरह उगते, राजनीतिक सत्ता के हाथों कठपुतली की तरह नाचते और अपराध को 'शक्ति' की सीढ़ी बनाकर बात-बात पर खून की होली खेलते किरदारों में 'नायक' खोजने का दम अब तक इन्हीं चंद फ़िल्मकारों ने दिखाया था. कुशान नंदी की 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' भी परदे पर इन तमाम फ़िल्मकारों और उनकी चर्चित फ़िल्मों का जश्न एक श्रद्धांजलि की तरह पूरी शिद्दत से मनाती है. किरदारों के तेवर, उनका रूखापन, उनकी बेख़ौफ़ ज़बान, कहानी में जिस्मानी प्यार, बेहयाई, बेवफ़ाई और वार-पलटवार की अंधाधुंध रफ़्तार के बीच 'डार्क ह्यूमर' का भरपूर इस्तेमाल; 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' वो सब कर गुजरती है जिसे आप 'गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर' जैसी फिल्मों में कभी दिल खोल कर, तो कभी दबी जुबान में ही सही, सराह चुके हैं. खून का रंग बस्स उतना गाढ़ा नहीं लगता, कहानी में गहरे जज़्बातों से कहीं ज्यादा 'इरादतन' दांव-पेंच ज्यादा नज़र आते हैं और फिल्म दर्शकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश भी नहीं करती. 

बाबू (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) मौत का 'पोस्टमैन' है. कभी दीदी (दिव्या दत्ता) तो कभी दूबे (अनिल जॉर्ज) से पैसे लेकर लोगों का क़त्ल करता है. हद दर्जे का मर्द आदमी है. बेगैरत और पक्का हरामी. फुलवा (बिदिता बाग़) के साथ उसकी आसान जिंदगी में थोड़ी हलचल तब होती है, जब अपने ही एक जबरदस्त फैन बांके (जतिन गोस्वामी) के साथ उसकी होड़ लगती है कि दिये गये 3 चेहरों में से कौन कितने ज्यादा मारेगा? बाबू के लिए उसकी इज्ज़त, उसका नाम दांव पर है जबकि बांके के लिए एक मौका, अपने आप को अपने गुरु की नज़र में काबिल साबित करने का. मगर इन सब में बहुत कुछ और भी है, जो प्याज के छिलकों की तरह धीरे-धीरे उतरता रहता है. 

गालियाँ देने में मर्दों को टक्कर देने वाली लोकल पॉलिटिशियन दीदी हो, या अपनी ही बीवी को दूसरे मर्द से तेल-मालिश करवाते देखने का रसिया दूबे; 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' रंगीन किरदारों से भरी पड़ी है. लोकल थाने का इंस्पेक्टर (भगवान तिवारी) बेटी की चाह में 6-7 बेटे पैदा कर चुका है. फ़ोन पर लोगों के नंबर गालियों के नाम से रखता है. बीच शूटआउट के बीच बीवी का फ़ोन लेना नहीं भूलता, और फ़ोन रखने से पहले 'आया, तो ले आऊँगा' कहना. इस एक किरदार में ही आपको इतनी रंगीनियत मिलती है, कि परदे पर हर बार आते ही आप चौकन्ने हो जाते हैं. फिल्म का 'डार्क ह्यूमर' गज़ब है. आखिर के एक सीन में, एक महिला किरदार बियाबान में अपनी मौत का इंतज़ार कर रही है, और घर पर उसका बूढ़ा ससुर उसे खोजते हुए चिल्ला रहा है, "कहाँ मर गयी?". 

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की अदाकारी और इस तरह की भूमिकाओं में उनकी पूरी पकड़ होने के अलावा, फिल्म अपनी ज़मीन से जुड़े रहने की कोशिश में उभर कर सामने आती है. मोटरसाइकिल पर एक पुलिसवाला आ रहा है, मगर पीछे बैठा हुआ. चलाने वाला एक 12-14 साल का लड़का है. बाबू जब 'काम' पर नहीं होता है, खेतों के बीचोंबीच बने अपने घर के बाहर-भीतर लुंगी और शर्ट में घूम रहा होता है. हालाँकि फिल्म पर 'गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर' की छाप इस कदर है कि हर वक़्त आप दोनों फिल्मों के दृश्य मिला कर देखने में ही उलझे रहते हैं. चाहे वो हाथापाई, गुत्थमगुत्थी के रीयलिस्टिक फाइट-सीन हों, या 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' की तर्ज़ पर टिन के कनस्तर बजाते-गाते लोकगीत की बनावट.   

आखिर में; 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' लव, सेक्स और धोखा के तमाम प्रसंगों के बीच ठेठ मर्द किरदारों की कहानी में पैरवी भले ही करता हो, अंत तक आते-आते सशक्त और चालाक औरतें ही फिल्म पर हावी रहती हैं. इनमें से ज्यादातर किरदार और प्रसंग फिल्म की कहानी में रहस्य का विषय हैं, इसलिए यहाँ विस्तार से लिखना थोड़ी ज्यादती होगी. 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' में बहुत कुछ मनोरंजक है, बहुत कुछ 'गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर' जैसा. हाँ, बेहतर होता अगर थोड़ी गहराई भी होती, और थोड़ी बहुत अलग 'अपने' जैसी. [3/5]     

Friday 18 August 2017

बरेली की बर्फ़ी: प्रेम-त्रिकोण की पारिवारिक मिठाई! अहा, मीठी-मीठी! [3/5]

'मोहल्ले का प्यार अक्सर डॉक्टर-इंजीनियर ले जाते हैं', 'राँझना' में कुंदन को मुरारी का ये दिलचस्प ज्ञान आपको भी मुंह-जुबानी याद होगा. छोटे शहरों का ऐसा वाला प्यार, अपनी तमाम कमियों-कमजोरियों के साथ, परदे पर 'राँझना' से ज्यादा मजेदार हाल-फिलहाल में नहीं दिखा. लड़की एक दोस्त को पसंद आते ही दूसरे के लिए फ़ौरन 'भाभी' बन जाती है. लड़का हर मुमकिन कोशिश में रहता है कि कैसे लड़की के साथ-साथ उसके माँ-बाप की नज़रों में भी 'अच्छा' बनके पूरे नंबर कमाये जाएँ? और इन सब चक्करों के बीच, खतरा ये भी कि आप खुद अपनी शादी की मिठाई खाने के बजाय, उसी घर में, उसी लड़की की सगाई की तैय्यारी में, मेहमानों के लिए खुद लड्डू बाँध रहे हों. हालाँकि पिछले कुछ सालों में 'दम लगा के हईशा', 'तनु वेड्स मनु' और 'बहन होगी तेरी' जैसी तमाम सफल-असफल फिल्मों में इन मोहल्लों, इन गलियों और इन किरदारों को आपने खूब अच्छी तरह देखा-भाला है, तो अश्विनी अय्यर तिवारी की फिल्म 'बरेली की बर्फी' में नयेपन के नाम पर बहुत कुछ ज्यादा आपको रिझाने के लिये है नहीं, पर आखिर में हम सब हैं तो हिन्दुस्तानी ही, मीठा जब मिले, जहां मिले, जैसा मिले, खुशियाँ अपने आप चेहरे पर अनायास तैर जाती हैं. 'बरेली की बर्फी' ऐसी ही एक प्यार भरी मिठास दिल खोल कर बांटती है. 

बाप (पंकज त्रिपाठी) सुबह-सुबह 'प्रेशर' बनाने के लिये सिगरेट खोज रहा है. माँ (सीमा पाहवा) बेटी (कृति सैनन) को जगा कर पूछ रही है, 'है क्या?, एक दे दे, अर्जेंट है'. बेटी बिट्टी मिश्रा में और भी 'ऐब' हैं, इंग्लिश फिल्में देखती है, रातों को देर से घर लौटती है. तेजतर्रार माँ के डर से, बाप यूँ तो रात को उठकर चुपके से दरवाज़ा खोल देता है, पर एक गुजारिश उसकी भी है, "बाइक पर दोनों पैर एक तरफ करके बैठा कर!". जाहिर तौर पर शादी के लिये रिश्ते हर बार सिर्फ चाय-समोसे तक ही सीमित रह जाते हैं. आखिरी लड़के ने तो पूछ लिया था, "आर यू वर्जिन?" और बिट्टी ने भी जो रख के दिया था, "क्यूँ? आप हैं?"...पर कोई तो है जो बिट्टी को करीब से जानता है, और उसकी कमियों के साथ उसे चाहता है. प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) के किताब में नायिका बबली एकदम बिट्टी जैसी ही है. बिट्टी को प्रीतम से मिलना है, पर उस अनजान लेखक को शहर में अगर कोई जानता है तो सिर्फ चिराग दूबे (आयुष्मान खुराना) जिसने असलियत में अपनी पूर्व-प्रेमिका बबली के लिये लिखी कहानी, प्रीतम के नाम से खुद अपनी ही प्रिंटिंग-प्रेस में छापी थी. अब जब बिट्टी में चिराग को बबली दिखने लगी है, तो दब्बू और डरपोक प्रीतम को बिट्टी की नज़रों से गिराने में उसे तिकड़मी बनने के अलावा कुछ और नहीं सूझता.   

प्यार में चालबाजी कब उलटी पड़ जाती है, और रंगबाजी कब उस पर हावी हो जाती है; 'बरेली की बर्फी' कहानी के इन उतार-चढ़ावों में बेहद मजेदार है. जहां फिल्म का पहला भाग आपको बरेली जैसे छोटे शहरों की आब-ओ-हवा के साथ घुलने-मिलने पर ज्यादा तवज्जो देता है, दूसरे हिस्से में राजकुमार राव अपनी बेहतरीन अदाकारी और अपने गिरगिटिया किरदार से आपको बार-बार खुल कर हंसने का मौका देते हैं. जावेद अख्तर साब की आवाज़ में सुनाई जा रही इस कहानी में ठेठ किरदार, सधी अदाकारी और आम बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल ज्यादातर मौकों पर एक साथ खड़े दिखते हैं. अपने अनुभवी और योग्य सह-कलाकारों (खास कर पंकज और सीमा जी) के साथ, अश्विनी परदे पर पूरी कामयाबी से हर दृश्य को देखने लायक बना ही देती हैं. हालाँकि मुख्य कलाकारों में कृति और आयुष्मान हर वक़्त उस माहौल में खपने की पूरी कोशिश करते नज़र आते हैं, पर जो सहजता और सरलता राजकुमार राव दिखा और निभा जाते हैं, कृति और आयुष्मान उस स्तर तक पहुँचने से रह ही जाते हैं. राव जैसे किसी ठहरी हुई फिल्म में आंधी की तरह आते हैं, और हर किसी को जिन्दा कर जाते हैं. दोपहर की गर्मी में निम्बू-पानी तो पी ही रहे थे आप, उसमें जलजीरा जैसे और घोल दिया हो किसी ने. 

सीमा पाहवा और पंकज त्रिपाठी के बीच के दृश्य बाकमाल हैं. ट्रेलर में सीमा जी का बिट्टी के भाग जाने का ख़त पढ़ने वाला दृश्य तो सभी ने देखा है, अदाकारी में जिस तरह की पैनी नज़र सीमा जी रखती हैं, और जिस तरीके के हाव-भाव बड़े करीने से अपने अभिनय में ले आती हैं, आप दंग रह जाते हैं. एक-दो दृश्यों को छोड़ दें, तो पंकज त्रिपाठी फिल्म में ज्यादातर 'फ़िलर' की तरह परोसे गए हैं. हर दृश्य में उनके होने की वजह भले ही न हो, उनके संवाद भले ही दृश्य की जटिलता में कोई इज़ाफा न करते हों, फिर भी उनके सटीक और सहज एक्शन-रिएक्शन आपका मन मोह लेते हैं. 

आखिर में; अश्विनी अय्यर तिवारी की फिल्म 'बरेली की बर्फी' बॉलीवुड के चिर-परिचित प्रेम-त्रिकोण को एक ऐसी चाशनी में भिगो कर पेश करती है, जिसमें मनोरंजन के लिए किसी भी तरह का कोई बाजारू रंग नहीं मिला है. आपके अपने चहेते दुकान की शुद्ध देसी मिठाई, जिसे आप जब भी खाते हैं, अपने अपनों के लिए भी पैक कराना नहीं भूलते. [3/5] 

Friday 11 August 2017

टॉयलेट- एक प्रेम कथा: सामाजिक सोच की सफाई के लिए राजनीतिक शौच? [2/5]

प्रधानमंत्री जी के 'स्वच्छ भारत अभियान' के दौरान उनके मातहतों के फ़ोटो अक्सर आपने अखबारों में देखे होंगे. साफ़-सुथरी सड़कों पर पहले सूखे पत्ते, कूड़ा-करकट फैलाए जाते हैं, फिर मंत्रीजी खुद झाड़ू लेकर सफाई अभियान में जुट जाते हैं. राजनीति में प्रतीकों का अपना एक स्थान है, चलता है; मगर सामाजिक सन्देश के नाम पर एक जरूरी फिल्म में इसे बरदाश्त कर पाना बिलकुल बस के बाहर की बात है. श्री नारायण सिंह की 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' सफाई करने से पहले खुद ही गंदगी फैलाती है, और गंदगी फैलाने में ही अपना ज्यादा वक़्त जाया करती है. रूढ़िवादी सामाजिक सोच को तोड़ने के लिए राजनीतिक शौच का सहारा लेते हुए 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' एक अच्छी-भली, सच्ची कहानी को मनोरंजक बनाने में खूब लीपा-पोती करती है. 

36 साल के केशव (अक्षय कुमार) की शादी एक 'दूधवाली', 'दूध की डेरी' मल्लिका से हो रही है. मल्लिका एक भैंस है, इसीलिए आपको उसके शारीरिक रूप का बखान करते वक़्त इस तरह के विशेषण मजाकिया लग रहे होंगे, पर जिस द्विअर्थी ज़बान में उस पर सस्पेंस और व्यंग्य कसा जाता है, इंद्र कुमार की सेक्स-कॉमेडी 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' की याद आनी वाजिब है. हद तो तब हो जाती है, जब एक महाशय ख्यालों में केशव को उसकी मल्लिका (भैंस) के साथ हनीमून मनाते हुए देखने लगते हैं, स्विट्ज़रलैंड की वादियों में एक-दूसरे के बदन से चिपके हुए. यकीनन, यहाँ जरूरत शौच में सफाई की नहीं, सोच में सफाई की है. बहरहाल, मांगलिक दोष से मुक्त होने के इस रिवाज़ के बाद केशव की जिंदगी में जया (भूमि पेडणेकर) आती है. ताड़ने, पीछा करने, छुप-छुप के मोबाइल से फोटो खींचने और दोस्तों के बीच जिक्र करके मज़ा लेने वाले आशिक़ों को जया खरी-खोटी सुनाने का कोई मौका नहीं छोडती, पर जैसे ही केशव से एक झिड़की मिली, उसे भी प्यार के नाम पर यही सब दोहराने में कोई झिझक-कोई शर्म नहीं होती.  

शादी की अगली ही सुबह जब जया को पड़ोस की औरतें 'लोटा पार्टी' ज्वाइन करने का निमंत्रण देतीं हैं, तब कहीं जा के फिल्म वापस पटरी पर आनी शुरू होती है. केशव के घर में टॉयलेट नहीं है. कहाँ तो इस एक बड़ी समस्या को गंभीरता से समझने की जरूरत थी, मगर यहाँ भी श्रीनारायण सिह अति-साधारण दर्जे के 'अक्षय कुमार' मार्का हास्य का कंधा तलाशने लगते हैं. वास्तविक घटना के विपरीत, असली मुद्दे से हटकर जया-केशव तरह-तरह के जुगाड़ों में लगे रहते हैं. कभी पास के रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का शौचालय इस्तेमाल करने की ट्रिक, तो कभी फिल्म-शूटिंग से मोबाइल-टॉयलेट चुराने का प्लान. और अंत में कहीं जाकर, जब अखबारों-न्यूज़ चैनलों के सहारे बात सरकार के कानों तक पहुँचती भी है, तो सब मामला इतनी आसानी से सुलझ जाता है, जैसे कोई बड़ी बात थी ही नहीं. 

पिछले महीने 'इंदु सरकार' और अब 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा'; फिल्मों में किसी एक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार साफ़ नज़र आ रहा है. फिल्म में बड़ी सफाई से बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश में जो ताज़ा 'टॉयलेट-घोटाला' है, वो चार साल पुराना है. नोटबंदी जैसे कड़े फैसले अगर प्रधानमंत्री ले सकते हैं, तो तत्कालीन उत्तर प्रदेश-मुख्यमंत्री क्यूँ पीछे रहें? अक्षय का किरदार भी प्रेस के सामने सरकार के बीच-बचाव की मुद्रा में तैनात नज़र आता है. इतने सब के बाद भी, फिल्म दो-तीन ख़ास मौकों पर 'घर-घर शौचालय' के मुद्दे पर अपना रवैया साफ़-साफ़ और कड़े शब्दों में रखने में कामयाब रहती है. अक्षय और भूमि के लम्बे भाषण भी ऐसे ही कामयाब मौकों का हिस्सा हैं. 

किसी 15-20 मिनट की शार्ट फिल्म में बेहतर कही जा सकने वाली कहानी और उससे जुड़ी सामाजिक-समस्या के तमाम पहलुओं को सामने रखने के लिये, 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' पौने तीन घंटे का समय ले लेती है. 'भारत कुमार' बनने की राह पर निकल पड़े अक्षय बड़ी चालाकी से फिल्मों का चयन तो कर रहे हैं, मगर लगता है कि ड्रामेबाजी से उभरने का कोई रास्ता अभी तक उन्हें सूझा नहीं है. भूमि को इस तरह की भूमिका में पहले भी देख चुके हैं हम. उनमें पूरी क़ाबलियत है आज के ज़माने की दीप्ति नवल बनने की, एक ऐसा अपना सा चेहरा जो घर के आस-पास ही रहता हो. सुधीर पाण्डेय साब को परदे पर बार-बार देखने की चाह एक बार फिर बनी रहती है. अपने वन-लाइनर और कॉमिक-टाइमिंग से दिव्येंदु गुदगुदाने में कामयाब साबित होते हैं. 

आखिर में; 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' किसी सरकारी पैम्फलेट की तरह रंग-बिरंगा भी है, जरूरी मुद्दे भी हैं, मतलब की बातें भी हैं और एक लुभावना चेहरा भी जिसे 'देश' से जोड़ कर देखने की आपको आदत है, पर इस सरकारी प्रचारपत्र को 'टॉयलेट-पेपर' तक  समझने की भूल मत कीजियेगा. अनुपम खेर फिल्म में सबसे समझदार और 'मॉडर्न' बुजुर्ग बने हैं, सनी लिओने के गाने टीवी पर इतरा-इतरा के देखते हैं. अख़बारों के बारे में उनकी एक राय है, "जो रद्दी है, उसे रद्दी में ही जाना चाहिए". 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' भी उन अख़बारों से कुछ ज्यादा अलग नहीं. [2/5]     

Friday 4 August 2017

गुड़गांव: कंक्रीट के जंगल, और दो-पाये जानवर! [3.5/5]

शहर के शहर अगर कंक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं, तो उसमें रहने वालों का भी जानवर बनते चले जाना कोई हैरत की बात नहीं. दिल्ली-एनसीआर के ज्यादातर इलाकों में दिन-ब-दिन बढ़ता क्राइम सिर्फ उन्हीं इलाकों, या वहाँ के सनक भरे लोगों के ही मत्थे आसानी से मढ़ा जा सकता है, और ऐसा कर के आप अपना दामन पाक-साफ़ रखने में कामयाब भी हो सकते हैं, पर जिस कठोर सच्चाई के साथ शंकर रमन अपनी फिल्म 'गुड़गांव' में कोयले से भी काली इंसानी फ़ितरत और ताकत की भूख का मिला-जुला तांडव रचते हैं; 'गुड़गांव' महज़ गुड़गांव की कहानी ना रहकर, किसी भी सभ्य समाज की सड़ी-गली, खोखली और बदबूदार नींव खोदने में शामिल हो जाती है. 

भू-माफ़िया केहरी सिंह (पंकज त्रिपाठी) का नाम गुड़गांव की हज़ारों एकड़ जमीनों पर खुदा है. पैसे की मद में डूबे बेटों से उसे कोई उम्मीद नहीं. हाँ, विदेश से पढ़कर लौटी बेटी प्रीत (रागिनी खन्ना) के लिए 25 हज़ार करोड़ का ड्रीम-प्रोजेक्ट पहले से ही तैयार है. शीशे की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से घिरे घर में, दिन-रात शराब का ग्लास हाथों में पकड़े केहरी सिंह अपने फरमान बिना चीखे-चिल्लाये, बिना कुछ तोड़े-फोड़े, शब्दों को दारु के चखने की तरह चबाते हुए सुनाता है, और किसी की मजाल क्या जो चूं-चां भी कर दे. केहरी सिंह के साये में, बड़े बेटे निक्की (अक्षय ओबेरॉय) को सांस लेने के लिए हवा भी कम पड़ने लगी है. सट्टे में 3 करोड़ हारने के बाद, पैसों के इंतज़ाम के लिये अब एक ही रास्ता बचा है, अपनी ही बहन प्रीत का अपहरण. अपनी गोद ली हुई बहन प्रीत का अपहरण. 

शंकर रमन अपने समझदार कैमरावर्क से पहले भी 'फ्रोज़ेन', 'पिपली लाइव' और 'हारुड़' जैसी फिल्मों में प्रभावित करते रहे हैं. वैसे तो चकाचौंध कर देने वाली रौशनी में नहाये गुड़गांव को हमने कई बार परदे पर देखा है, पर रमन 'गुड़गांव' में निहायत सख्त, बर्फ जैसे ठन्डे और लहू जितने गर्म ताव वाले अमीर ताकतवरों की खाल उतारने के लिए एक गहरे अँधेरे का जाल बुनते हैं. किरदार गाड़ियों की हेडलाइट्स से रोशन होते हैं, एस्केलेटर की छत पर साये की तरह चढ़ते-बढ़ते नज़र आते हैं, कूड़े-कचरों के पहाड़ पर विचरते हैं, और उनके चेहरों की रंगत हाईवे की एक के बाद एक गुजरती रोड-लाइट्स के बीच बदलती दिखाई देती है. 

फिल्म 'सत्य घटनाओं पर आधारित' जैसे एलान के साथ शुरू होती है, और इसे मुकम्मल दर्ज़ा देने के लिए रमन ढेर सारी ख़बरों का सहारा लेते हैं, जिन्हें आपने पढ़ के भुला दी होंगी. चाहे वो टोल बूथ पे छुट्टे पैसे मांगने पर गोली मार देने की घटना हो, या पैसों के लिए अपने ही परिवार से किसी का अपहरण. 'गुड़गांव' में हर किरदार अपने भीतर एक खून चखने वाला या चखने की चाह लिए दरिंदा पाले घूम रहा है. कुछ को ये मौका पहले ही मिल चुका है, कुछ नए-नए अभी भी मौके की तलाश में हैं. 15-20 साल पहले तक कच्चे मकान में रहने वाले केहरी सिंह के भी अपने राज़ हैं, जिंदा बेटियों पर मिट्टी दबा देने वाली प्रजाति से आया है वो. निक्की सिंह में भी उसी का खून है, जो पैसे और ताकत के मिले-जुले नशे को जितनी जल्दी हो सके, अपनी टेबल पर रख कर सूंघना चाहता है.

पंकज त्रिपाठी को परदे पर देखना हर बार एक मजेदार अनुभव रहा है. इस बार केहरी सिंह की शख्सियत में उनको देखना आपमें सिहरन भर देता है. बॉलीवुड में खलनायकों को सिर्फ कार्टून या फिर शैतान बनाकर दिखाने की ही परंपरा रही है. बहुत कम बार ही ऐसा हुआ है, जब उन्हें आप एक इंसान की तरह ही पेश करने में कामयाब रहे हों. पंकज त्रिपाठी का केहरी सिंह उन्हीं चंद में से एक है. केहरी सिंह की पत्नी के किरदार में शालिनी वत्स एकदम सटीक हैं और बेहद ईमानदार भी. रागिनी खन्ना के साथ उनके कुछ दृश्य देखने लायक हैं. अक्षय प्रभावित करते हैं, अपनी फिल्मों के चयन से भी और नपे-तुले अभिनय से भी. मेहमान भूमिका में आमिर बशीर बेहतरीन हैं. रागिनी अपने किरदार में जंचती हैं, हालाँकि फिल्म में वो कम वक़्त के लिए ही हैं. 

आखिर में; 'गुड़गांव' नए हिंदी सिनेमा आन्दोलन का एक अहम हिस्सा है. अपराध की फिल्मों का एक ऐसा अलग चेहरा, जो घटनाओं को ताबड़तोड़ खून से रंग देने की बजाय आपको उस अँधेरे माहौल में पहले धकेल देती है, जहां खेल रचने वाला है. हो सकता है, कई बार आप उकता जायें, या घुटन सी होने लगे; पर एक बार जो नशा चढ़ा, दिनों तक उतरेगा नहीं. [3.5/5]                                             

जब हैरी मेट सेजल: पुराने इम्तियाज़- नए शाहरुख़ [3/5]

बॉलीवुड में रोमांटिक फिल्मों का एक आख़िरी बेंचमार्क तकरीबन 22 साल पहले आया था. तब से मुंबई के मराठा मंदिर में 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे' आज तक चल रही है. इस बीच 'चेन्नई एक्सप्रेस' और 'बेफ़िक्रे' जैसी बहुत सारी फिल्मों ने गाहे-बगाहे इस 'भारतीय फिल्म इतिहास की शायद सबसे चहेती रोमांटिक फिल्म' को अपने-अपने तरीके से परदे पर दोबारा जिंदा करने की कोशिश की है. कहना ग़लत नहीं होगा कि कमोबेश सभी ने फिल्म की रूह को समझने से ज्यादा, उसकी बाहरी चमक-दमक को ही अपना केंद्र-बिंदु बनाये रक्खा. 'जब हैरी मेट सेजल' के साथ, इम्तियाज़ अली अपना जाना-पहचाना, जांचा-परखा, सूफ़ियाना असर फिल्म की रूमानियत में घोल देते हैं, साथ ही वापस ले कर आते हैं रोमांस के बादशाह शाहरुख़ खान को उनकी अपनी ही दुनिया में, मगर इस बार एक अलग नए अंदाज़ में. 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे' अगर इन 22 सालों में और बालिग़, और उम्रदराज़, और परिपक्व होने की किस्मत पा सकती, तो बेशक 'जब हैरी मेट सेजल' के आस-पास ही होती...सीरत में न सही, सूरत में जरूर! 

लन्दन के नौजवान मसखरे, दिलफेंक राज की जगह अब यूरोप के रूख़े, तुनकमिजाज़ और मुंहफट ट्रेवल-गाइड हैरी (शाहरुख खान) ने ले ली है. टूर ख़तम होने के साथ ही, उसके रंग बदलने लगते हैं. मीठा-मीठा बोलने वाला हैरी झल्लाहट में पंजाबी गालियाँ भुनभुनाता रहता है. अपनी बेपरवाही को चाशनी में लपेट कर लड़कियां पटाने की कोशिश नहीं करता, बल्कि पूरी अकड़ और तेवर से अपने 'गंदे' होने का ढिंढोरा पीट-पीट कर पहले ही आगाह कर देता है. और तब भी, अगर लड़की नज़दीक आने की कोशिश करे तो 'मत कर, मुश्किल हो जायेगी!' कहकर पीछे हट जाता है. हालाँकि देसी और विदेशी लड़कियों में उसका ये फ़र्क अब भी समझ से परे है, बावजूद इस वाहियात 'पुरुषवादी' सफाई कि 'तू चाइना वास की तरह है, एक जगह रख के देखते रहने के लिए'.

सेजल (अनुष्का शर्मा) भी सिमरन की ही तरह साफ़ कर देती है, 'मैं वैसी लड़की नहीं हूँ', पर इस बार उसे भारी दिक्कत 'स्वीट, क्यूट, ब्यूटीफुल, सिस्टर-लाइक' समझे जाने से है. सेजल सगाई की अंगूठी खोजने के बहाने कुछ और ही खोज रही है. शायद आज़ादी की सांस, जो अपनी ही फॅमिली बिज़नेस का लीगल एडवाइजर बन के नसीब नहीं हो रहा या फिर शादी के बाद जिसके खो जाने का डर बना हुआ है. हालाँकि यूरोप का 'यहाँ अंगूठी नहीं है, वहाँ चलो' वाला अबकी बार का ट्रिप, 'मैं इस बार ट्रेन मिस नहीं करना चाहती' वाले ट्रिप जितना मजेदार नहीं है, बल्कि कहीं ज्यादा झेला और झल्ला देने वाला है, इसमें कोई शक़ नहीं. 

शाहरुख़ के लिए रोमांस नया नहीं है, पर इस बार शाहरुख़ ज़रूर नए हैं. उम्र का असर सिर्फ परदे पर नज़र नहीं आता, एक गहराई के साथ उनके किरदार में भी समाया हुआ दिखता है. 'डियर जिंदगी' की तरह एकदम चौंकाने वाला तो नहीं, पर हैरी में शाहरुख़ के अन्दर का अदाकार काफी हद तक ज़मीनी और कम बनावटी नज़र आता है. अनुष्का भी बड़ी आसानी से और ख़ूबसूरती से अपनी भाव-भंगिमाएं बदल लेती हैं. तो फिर परेशानी क्या है? परेशानी है, कहानी. फिल्म की कहानी पानी के उस एक बुलबुले की तरह है, जिसके फूटने का इंतज़ार दर्शकों को ढाई घंटे तक कराना ही अपने आप में एक चुनौती है. उस पर से वही जानी-पहचानी, जांची-परखी इम्तियाज़ अली की दुनिया, जो एक तरफ तो फिल्म को अपने सूफियाना फलसफों से ठहराव भी बहुत देती है, पर इधर-उधर के तमाम दृश्यों की बनावट और सजावट में 'लव आजकल', 'रॉकस्टार' जैसी अपनी ही फिल्मों से उधार ली हुई लगती है. 

इम्तियाज़ अगर कहीं अपने आप को बेहतरी के लिये दोहराते हैं तो उस वक़्त जब उन्हें हैरी और सेजल के दरमियान आपसी नज़दीकियों के दृश्यों में कुछ बेहद खूबसूरत लम्हें कैद करने का मौका मिलता है, और ऐसे मौके फिल्म में दूर-दूर ही सही, मगर बहुत सारे हैं. खूबसूरत लोकेशन्स, बेहतरीन कैमरावर्क, गानों और बैकग्राउंड म्यूजिक के अलावा एक बात और जो काबिल-ऐ-तारीफ़ है, वो हैं फिल्म के संवाद. कुछ बातें मायनों के साथ कही जाती हैं, कुछ बातें कहने के बाद अपने मायने तलाशती हैं. 'जब हैरी मेट सेजल' लगातार बोलती रहती है पर जो कहना चाहती है, बड़ी समझदारी से अधूरा ही छोड़ देती है. 

आखिर में; 'जब हैरी मेट सेजल' की पूरी कोशिश परदे पर शाहरुख के उस करिश्माई शख्सियत को इम्तियाज़ अली की दुनिया से मिलाने की है, जिसे कभी यश चोपड़ा जी ने अपनी फिल्मों में निखारा-संवारा था. इम्तियाज़ आज के ज़माने के 'यश चोपड़ा' माने जाते हैं, पर एक अदद कमज़ोर कहानी की वजह से 'जब हैरी मेट सेजल' इस पूरी कोशिश को भले ही नज़रंदाज़ कर दे, शाहरुख़ को इस फिल्म में नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है. [3/5]