Friday 26 May 2017

सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स: 'फील्ड' से 'फिल्म' तक, एंटरटेनर नंबर 1 ! [3.5/5]

हर खेल का एक भगवान होता है. मुक्केबाजी में जैसे मुहम्मद अली, बास्केटबॉल में जैसे माइकल जॉर्डन. क्रिकेट में ये रुतबा सचिन तेंदुलकर को हासिल है. बावजूद इसके, ‘सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स’ इस लिविंग लीजेंड को परदे पर ख़ुदा बनाकर पेश करने की भूल नहीं करती. बल्कि फिल्म की सारी कवायद सचिन की जिंदगी में एक ‘फैन’ होने की गरज से झाँकने की रहती है. एक ऐसी फिल्म, जिनमें सचिन एक आम खिलाड़ी की तरह बुलंदियों का सफ़र तय कर रहे होते हैं, या फिर अपने पारिवारिक जीवन में सुकून की छाँव तलाशते नज़र आ रहे हैं. सचिन परदे पर ज्यादातर वक़्त अपनी कहानी खुद ही बयाँ करते दिखाई देते हैं. इसीलिए कहानी कहने की शैली कभी-कभी उन्हीं की तरह बहुत सीधी-सादी, फीकी और साधारण जरूर लगती है, पर आखिर में उनके चेहरे, उनकी शख्सियत, उनकी अदायगी में रची-बसी वही सादगी, वही अच्छाई आपको लुभाती भी रहती है.

क्रिकेट दौरे से लौटे सचिन अपनी बेटी सारा से पूछ रहे हैं, “शतक मारने के बाद पापा कैसे इशारा करते हैं?’, डेढ़-दो साल की सारा अपने दोनों हाथ हवा में उठा देती है. अपनी पत्नी अंजली से पहली बार मिलने की कहानी बताते हुए वो उतने ही ‘क्यूट’ दिखने की कोशिश करते हैं, जितने वो अंजलि को तब लगे थे. उनकी शादी के विडियो में भी वो ही ‘दिल के आकार’ वाली विंडो खुलती-बंद होती है, जो अब आपको अपनी शादी के विडियो में शर्मिंदा कर जाती है. बेटे अर्जुन को क्रिकेट सिखाते हुए उनके अन्दर भी वही ‘बाप’ दिखता है, जो बेटे की कोशिशों में हमेशा ‘और अच्छा करने’ की गुंजाईश ढूंढ रहा है. इन सब छोटे-छोटे खूबसूरत पलों के बीच, सचिन का क्रिकेट कैरियर, जो पाकिस्तान में अब्दुल कादिर जैसे दिग्गज के सामने खड़े हो पाने से लेकर शेन वार्न और शोएब अख्तर जैसों की धुनाई तक सबको रटा-रटाया है, बहुत सलीके से एक के बाद एक परदे पर आता है.  

‘सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स’ खुद ‘नॉस्टैल्जिक’ होने और आपको करने की कोई कसर नहीं छोड़ती, पर साथ ही कहीं न कहीं आपकी उम्मीदों पर तब नाकामयाब साबित होती है, जब आप फिल्म से ‘थोड़ा और’ चाहने लगते हैं. थोड़ा और, जो आपने सुना न हो. थोड़ा और, जो आपने सुना हो, पर सचिन से नहीं. थोड़ा और, जिसे बयाँ करना सचिन के लिए भी आसान न हो. सचिन और फिल्म दोनों इस उबड़-खाबड़ रस्ते पर जाने से बचते हैं, और आपको उसी एक तय रास्ते और रफ़्तार पर हलके-हलके घुमाते रहते हैं. सचिन का ‘फैन’ होने के नजरिये से आपको अच्छा भी लगता है, पर एक जागरूक दर्शक के तौर पर आपका रोमांच कहीं बीच में ही छूट जाता है. ‘मैच-फिक्सिंग’ जैसे गंभीर मुद्दे पर सचिन सिर्फ इतना कह कर कन्नी काट लेते हैं कि, “मैं क्या बोलता, जब मुझे कुछ पता ही नहीं था”. सचिन की अच्छाई, जो उनके मासूम चेहरे से छलकती भी है, को अलग कर दें, तो उनके संवाद बहुत ही आम, बेअसर और कभी-कभी बहुत ज्यादा ‘स्ट्रक्चर्ड’ सुनाई देते हैं. एकरसता इस हद तक है कि कप्तानी से हटाये जाने पर बोलते हुए, ‘...और उन्होंने मुझे एक फ़ोन भी नहीं किया’ जैसा एक थोड़ा सा ही कड़ा बयान भी आपको वो ‘किक’ दे जाता है, जो आप फिल्म से उम्मीद लगाये बैठे थे.

फिल्म के एक दिलचस्प हिस्से में, लोग मशहूर और सीनियर क्रिकेटर मोहम्मद अज़हरुद्दीन को नज़रंदाज़ करके सचिन का ऑटोग्राफ लेते हुए दिखाई देते हैं. दूसरे हिस्से में, इंग्लॅण्ड के भूतपूर्व कप्तान नासिर हुसैन कहते हैं, “स्लेजिंग का सचिन पर असर भी क्या पड़ता, जब लाखों लोग स्टेडियम में एक साथ ‘सचिन-सचिन’ कर रहे हों’. सच्चे मायनों में सचिन के कैरियर में उतार-चढ़ाव के ऐसे अनकहे-अनसुने किस्से फिल्म में बहुत कम हैं. इसी तरह फिल्म में कपिल देव, सिद्धू, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली और धोनी का ‘न’ के बराबर दिखाई और सुनाई देना भी खलता है.

आखिर में, ये कोई डॉक्यूमेंटरी फिल्म नहीं है, जो पूरी तरह ‘फैक्ट एंड फुटेज’ हवाले से बनी हो. हालाँकि फिल्म में सचिन के बचपन का काफी हिस्सा अभिनेताओं के साथ दुबारा शूट किया गया है, पर ये कोई बायोपिक भी नहीं है. डोक्यू-ड्रामा जैसा कुछ कहना ही सही होगा, पर उससे कहीं ज्यादा ‘सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स’ भारत में, और भारतीय क्रिकेट में सचिन के ‘होने’ का जश्न मनाने वाली एक बॉलीवुड मसाला फिल्म है, जहाँ सचिन हीरो हैं, और बस्स सचिन ही हैं. हर फ्रेम में. बॉलीवुड के किसी जाने-माने सुपरस्टार की नयी-ताज़ी फिल्म की तरह, इसमें फैमिली है, ड्रामा है, रोमांस है, इमोशन है, एक्शन है, और एक जबरदस्त क्लाइमेक्स भी. भरपूर मनोरंजन! [3.5/5]                  

Friday 19 May 2017

हाफ़ गर्लफ्रेंड: अधपकी, कच्ची, आधी-अधूरी! [1/5]

कुछ लोगों को साहित्य और सिनेमा के नाम पर कुछ भी परोसने की लत लग चुकी है. ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ बनाने के पीछे मोहित सूरी की वजह थी, इसी नाम से चेतन भगत की ‘बेस्टसेलिंग’ किताब; पर चेतन भगत के लिए ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ लिखने की क्या माकूल वजह थी, मुझे नहीं समझ आता. एक ऐसी किताब, जिसके किरदारों में न रीढ़ की हड्डी हो, न दिमाग़ की नसें, न कायदे के कुछ ठीक-ठाक ज़ज्बात, आखिर क्यूँ कर कोई पढ़ेगा और फिर परदे पर देखेगा भी? तमाम प्रेम-कहानियों में दो आधे-अधूरे मिल कर एक हो ही जाते हैं, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ इतनी वाहियात है कि आधा और आधा मिल के भी आधे-अधूरे ही रहते हैं.

भला राजा और रानी के बगैर भी कभी कोई कहानी लिखी गयी है? तो यहाँ भी एक राजकुमार हैं. बिहार के सिमराव गाँव के बाऊ साब माधव झा (अर्जुन कपूर). जब बस से गाँव उतरते हैं तो रुआब ऐसा, जैसे बर्मा के युवराज हों. सारे छोटे-बड़े झुककर सलामी ठोकने लगते हैं. बाऊ साब दिल्ली पहुँच गए समाजशास्त्र की पढ़ाई करने, तुर्रा ये कि इंग्लिश बोलने में फटती है फिर भी पढेंगे तो सेंट स्टीवन्स में. जेएनयू में पढ़ते तो स्पोर्ट्स ब्रा में बास्केटबाल खेलने वाली लड़की कहाँ मिलती? वहाँ तो झक मार के समाजशास्त्र ही पढ़ना पड़ता. खैर, इंटरव्यू में तो बोल आये कि सर, हम हिंदी में उत्तर देना चाहेंगे, तकलीफ ये है कि हिंदी भी कहाँ ठीक से आती है. शॉल पर रिया की जगह रीया लिखवा के आ गए. चेतन भगत और उनके लिखे इस नायक से बौद्धिक चेतना की उम्मीद रखना बेकार ही है, इसीलिए जब पूछा जाता है, ‘बिहार जैसा है, वैसा क्यूँ है?’, बाऊ साब इतिहास में दफ़न बिहार के चंद बड़े-बड़े नाम गिना कर चौड़े हो जाते हैं. ठरकी तो इतने हैं, कि लड़की सामने आते ही चेहरे पर बस एक ही एक्सप्रेशन, “मैं फिर भी तुमको चाहूँगा”, और लड़की के जाते ही दूसरा एक्सप्रेशन, “सर, माइसेल्फ कमिंग फ्रॉम विलेज एरिया...”! तीसरा कोई इनके लिए बना ही नहीं आज तक.

अब आते हैं राजकुमारी साहिबा पर! रिया सोमानी (श्रद्धा कपूर) इतनी बेखौफ और निडर हैं कि जब भी अकेलापन घेरता है, सिक्योरिटी को धता बताते हुए सीधे इंडिया गेट पर चढ़कर बैठ जाती हैं और शहर को ताकती रहती हैं, पर जब घर में बाप माँ के साथ मारपीट कर रहे होते हैं, तो एक कोने में दुबक कर गिटार पे गाने गाती हैं. बारिश की इतनी दीवानी कि जब भी होगी, मैडम खुले आसमान के नीचे भीगती दिखाई देंगी. कभी-कभी तो गिटार के साथ ही. ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ का टर्म इजाद करने वाली रिया के दिमागी दिवालियेपन का भी कोई आदि-अंत नहीं. सेक्स न करने देने पर ‘देती है तो दे, वरना कट ले’ बोलने वाले बाऊ साब के साथ अब भी घूम रही हैं, क्यूंकि लड़का अच्छा है. अरिजीत सिंह के ‘तू मेरा सुकून, तू मेरा जूनून’ गाने पर मुंह लटकाए काफी दिन घूमता रहा था. पाप का प्रायश्चित पूरा, रोमांस का चैप्टर अभी भी अधूरा!

मोहित सूरी की इस फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं, अर्जुन कपूर. ऐसा नहीं है कि संवादों में कहीं कुछ बहुत ज्यादा आपत्तिजनक हो, पर उनके मुंह से ‘बिहारी हिंदी’ उतनी ही जाली और फर्ज़ी लगती है, जितनी लोहे की सरिया बनाने वाले ब्रांड के विज्ञापन में एक विदेशी का ‘सबसे सस्ता नहीं, सबसे अच्छा” बोलना. ताज्जुब है कि यही भाषा जब-जब फिल्म में दूसरे कलाकार (विक्रांत मैसी, सीमा बिस्वास) इस्तेमाल करते हैं, तो इतनी कोफ़्त नहीं होती. इतना ही नहीं, इस फिल्म में जो-जो इंग्लिश भी बोलता है, किसी न किसी एक्सेंट में. दोयम दर्जे की इस कहानी में प्यार के नाम पर बस अरिजीत सिंह के गाने हैं, और कुछ नहीं. फिल्म और गिरती चली जाती है, जैसे ही बाऊ साब की नीरस जिंदगी में बिल गेट्स एक बड़ा मकसद ले कर घुस आते हैं. घटिया विज़ुअल ग्राफ़िक्स के ज़रिये बिल गेट्स को परदे पर ‘जाने भी दो यारों’ का सतीश शाह बना कर छोड़ दिया जाता है.

विक्रांत मैसी एकलौते ऐसे कलाकार हैं, जिनको देख के लगता है अभिनय में अभी भी थोड़ी बहुत ईमानदारी बची है. भाषा के अलावा उनके हाव-भाव बहुत ही संतुलित और जरूरत के हिसाब से ही घटते-बढ़ते हैं. सीमा बिस्वास अपने किरदार में पूरी तरह फिट बैठती हैं, हालाँकि चेतन भगत की सतही राइटिंग यहाँ भी उन्हें बस एक ‘कैरीकेचर’ बना के रख देती है. श्रद्धा अपनी पिछली फिल्मों से कुछ भी नया, कुछ भी बेहतर परोसने में असफल रही हैं.

अंत में, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ चेतन भगत और मोहित सूरी का एक और नया शगूफा है, जो साहित्य और सिनेमा में देश के युवाओं की पसंद-नापसंद जानने का उनका झूठा दम भरने में और इजाफा भले ही करे, है तो बकवास, वाहियात और बेहूदा ही. अगर आपने किताब पढ़ी है, और फिल्म देखने का इंतज़ार भी कर रहे हैं, तो मेरी पूरी सहानुभूति आपसे है. [1/5]            

हिंदी मीडियम: ‘क्लास’ की क्लास, और क्लास की एक्टिंग! [3.5/5]

बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर आजकल माँ-बाप कुछ ख़ासा ही जागरूक हो गए हैं. जिंदगी एक दौड़ है, और इस दौड़ में पीछे रह जाने वालों के लिए कोई जगह नहीं, इस पागलपन को सर पे लादे बेचारे माँ-बाप बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए क्या-क्या कर गुजरने का जोखिम नहीं उठाते, पर ध्यान से देखें तो इतनी भी बेचारगी नहीं है. खेल सब किया कराया है, उस एक छोटी समझ का, जिसके हिसाब से बच्चों की कामयाबी का सारा दारोमदार फर्राटेदार इंग्लिश बोलने की चाहत से शुरू होकर शहर के सबसे बड़े, सबसे महंगे स्कूल में एडमिशन मिल जाने तक ही सीमित है. इक जद्दो-जेहद समाज के ऊँचे तबके तक पहुँचने की. साकेत चौधरी की ‘हिंदी मीडियम’ माँ-बाप के उसी अँधाधुंध भाग-दौड़ को बड़े मनोरंजक तरीके से आपके सामने रखती है.

राज बत्रा (इरफ़ान खान) चांदनी चौक में कपड़ों की दुकान चलाता है. रहने-खाने की कोई कमी नहीं है, पर उसकी बीवी मीता (सबा क़मर) का सारा ध्यान बस इसी एक कोशिश में रहता है कि उनकी बेटी पिया का एडमिशन कैसे भी दिल्ली के सबसे महंगे स्कूल में हो जाये. इसके लिए जरूरी है कि माँ-बाप न सिर्फ अमीर हों, अमीर दिखें और लगें भी. शुरुआत हो चुकी है, राज को अपने चांदनी चौक की गलियाँ छोड़कर वसंत विहार जैसे पॉश इलाके में घर लेना पड़ेगा. उसके बाद ‘द सूरी’ज़’, ‘द मल्होत्रा’ज़’ जैसे अमीरों से मेल-जोल बढ़ाना, ताकि पिया को अच्छी संगत मिले, और फिर स्कूल के इंटरव्यू की तैय्यारी. इंग्लिश में तंग हाथ लिए बिचारे राज के लिए तो जान पर बन आई है, पर मीता हार नहीं मानने वाली. बड़ी उलट-फेर तब होती है, जब इतनी जद्द-ओ-जेहद के बाद भी पिया का एडमिशन नहीं होता, और अब बस एक ही रास्ता बचा है. स्कूलों में ‘राईट टू एजुकेशन’ एक्ट के तहत मिलने वाले गरीबी कोटा में गरीब बनकर अप्लाई करना.

साकेत चौधरी बढ़ा-चढ़ाकर ही सही, पर आजकल के शिक्षा-जगत में फैली दुर्व्यवस्था पर हर तरीके और हर तरफ से व्यंग्यात्मक प्रहार करते हैं. मीता का इंग्लिश मीडियम स्कूलों को लेकर हद दर्जे का पागलपन अगर कई बार आपको झकझोरता है, तो कई बार झुंझलाहट भी पैदा करता है. फिल्म की शुरुआत में जब साकेत जवानी की दहलीज़ पर कदम रख रहे राज और मीता की लव-स्टोरी दिखाने का तय करते हैं, उसकी जरूरत आपको आगे चल कर समझ आती है. जिंदगी से राज और मीता दोनों की अपेक्षाएं, उम्मीदें और ख्वाहिशें हमेशा एक-दूसरे से जुदा रही हैं. जहाँ ‘एलिट’ बनने की चाह मीता की आँखों में चमक ले आती है, वहीँ राज के लिए अच्छा पति, अच्छा पिता बने रहना ज्यादा मायने रखता है.

फिल्म की कहानी में ठहराव और उबाल दोनों एक साथ तब आते हैं, जब परदे पर आपकी जान-पहचान श्याम (दीपक डोबरियाल) और उसकी बीवी (स्वाति दास) के किरदार से कराया जाता है. अपने बेटे के भविष्य के लिए उसकी पढ़ाई-लिखाई के प्रति जागरूक एक माँ-बाप ये भी हैं, जो गरीबी की मार सहते हुए भी कोशिश करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते. जहां एक की बुनियाद में झूठी चमक-दमक है, इन माँ-बाप की जिद और धुन ईमानदारी की कसौटी पर पक्की और सच्ची है. हालाँकि अंत तक आते-आते, साकेत थोड़े तो नाटकीय होने लगते हैं, पर कमोबेश गुदगुदाते रहने की उनकी आदत पूरी फिल्म में एक सी ही रहती है. चूकते वो सिर्फ एक जगह हैं, जहां बात एक ही तराजू से सभी अमीरों और गरीबों को तोलने की आती है. सारे के सारे अमीर मुंहफट, बदतमीज़, सारे के सारे गरीब हमदर्द, मददगार.

इरफान खान घर की दाल जितने जाने-पहचाने हो गए हैं अब. रोज मिलते रहें, तब भी आपको कोई कोफ़्त नहीं होगी, कोई शिकायत नहीं होगी. हाँ, अगर ज्यादा दिन तक न मिलें, तब तरसना बनता है. कपड़े की दुकान पर जिस तरह ग्राहकों से पेश आते हैं, या फिर अमीर-गरीब बनने के खेल के बीच जिस तरह झूलते दिखाई देते हैं, उनका हर एक्ट तीर की तरह वही लगता है, जहाँ के लिए निशाना लगाया गया था. फिल्म खुद बहुत ज्यादा संजीदा होने से बचती है, तो आप भी इरफ़ान से मनोरंजन की ही उम्मीद लगाईये, निराश नहीं होंगे. सबा अपने किरदार से आपको जोड़े रखने में कामयाब रहती हैं, पर दीपक और स्वाति जिस दर्जे का अभिनय पेश करते हैं, आप उन्हें भूलने नहीं पाते. स्वाति अगर अपनी मौजूदगी मात्र से ही आपका ध्यान लगातार अपनी ओर खींचती रहती हैं, तो दीपक कुछ ख़ास पलों में बड़ी आसानी से आपकी आँखें नम कर जाते हैं. दीपक उन दृश्यों में भी कमजोर दिखाई नहीं पड़ते, जिनमें इरफ़ान भी मौजूद हों, और अभिनय में ये रुतबा बहुत कम अदाकारों को नसीब है.

आखिर में; ‘हिंदी मीडियम’ एक ऐसी जरूरी फिल्म है, जो भारत के अपर मिडिल-क्लास की खोखली महत्वाकांक्षाओं पर हंसती भी है, हंसाती भी है. वो जिनके घरों में रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताब शीशे की आलमारियों से मुंह निकाल कर झांकती हैं, और जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ कहीं नीचे, पीछे दबी-दबी धूल फांकती हैं. देखिये, और हंसिये थोड़ा अपने आप पर भी! [3.5/5]    

Friday 12 May 2017

मेरी प्यारी बिंदू: बोर, बोर, बोरिंग [2/5]

बहुत कम फिल्में होती हैं, जो अपने पूरे वक़्त में औसत और सामान्य होने के बावजूद अंत तक आते-आते आपको चौंका दें. थ्रिलर और सस्पेंस फिल्मों में तो अक्सर होता है, पर रोमांटिक लव-स्टोरी में? बेहद कम. अक्षय रॉय की ‘मेरी प्यारी बिंदू’ ऐसी ही एक रोमांटिक कॉमेडी है, जो ख़त्म होने के 20 मिनट पहले तक तो अपनी बचकानी हरकतों से आपको खूब झेलाती है, पर उसके बाद के हिस्से में जिस ख़ूबसूरती से संजीदा हो लेती है, न सिर्फ आँख नम होती है, दिल पसीजता है, बल्कि एक कसक भी छोड़ जाती है कि काश, जज्बातों में यही साफगोई, यही संजीदगी पूरी फिल्म में दिखाई दी होती. अक्षय अपनी नायिका से एक जगह कहलवाते भी हैं, “लव-स्टोरी लिखते वक़्त आखिर कोई कितना अलग-कितना नया हो लेगा?” इस एक झिझक से बचने के लिए अक्षय फिल्म में बहुत कुछ अच्छा, बहुत कुछ खूबसूरत इतना ठूंस देते हैं कि उन्हें वक़्त देने में कहानी, किरदारों और उनके बीच के जज्बाती ताने-बाने को सुलझाने की जगह ही नहीं बचती.

अभिमन्यु रॉय चौधरी (आयुष्मान खुराना) एमबीए और बैंक की नौकरी करने के बाद, हिंदी में ‘चुड़ैल की चोली’ जैसा ‘‘मसाला साहित्य’ लिख लिख कर नाम बना चुका है. दिक्कत उसे एक लव-स्टोरी लिखने में आ रही है, जिसपे वो पिछले 3 साल से काम कर रहा है. ऐसे में एक दिन उसे एक ऑडियो कैसेट मिलता है, जो उसने अपने बचपन की दोस्त और इकलौते प्यार बिन्दू (परिणीति चोपड़ा) के साथ मिलकर रिकॉर्ड किया था. बिंदू अब अभिमन्यु की जिंदगी से दूर जा चुकी है. गुजरे ज़माने के उन पसंदीदा गानों के साथ ही, अभिमन्यु बिंदू के साथ अपने रिश्ते के तमाम पड़ावों को भी याद करते हुए उसे एक कहानी की शक्ल देने में जुट जाता है. फिल्म अब और तब के झूले में झूलने लगती है. बचपन की दोस्ती से, जवानी की मस्ती और फिर जिंदगी और प्यार की उलझनें, सब की यादें और उन सारी यादों से जुड़े कुछ गाने.

अक्षय फिल्म के लिए उम्मीदों से भरी एक ऐसी नींव तैयार करते हैं, जिसमें पसंद न आने लायक कुछ भी नहीं है, पर जब वक़्त आता है उस पर ईंटें रखने का, इमारत खड़ी करने का तो उनकी जल्दबाजी साफ़ दिखने लगती है. गानों से यादों तक और यादों से गानों तक पहुँचने का सफ़र हिचकोले खाने लगता है. कुछ गाने बड़ी समझदारी से पिरोये गए हैं, तो कुछ बस छू कर गुज़र जाते हैं. हर गाने के साथ जैसे एक चैप्टर शुरू होता है, फिल्म फ्लैशबैक का टिकट कटाती है, और फिर बीते ज़माने में उस गाने से जुड़ी यादें टटोलने के बाद वापस अभिमन्यु के टाइपराइटर की खटखट पर आके ख़त्म. इन सब के बीच, अभिमन्यु का नीरस तरीके से कहानी सुनाना, नतीजा? किरदारों से जुड़ना रह ही जाता है.

फिल्म में कुछ हद तक जो दिलचस्प और गुदगुदाने वाला है, वो है अभिमन्यु का बंगाली परिवार. हर बात में हंसी-मज़ाक तलाशने वाले बाबा, ‘नेचुरल ओवर-एक्टिंग’ करने वाली माँ, दिलफेंक ‘बूबी’ मासी और कैरम बोर्ड से चिपके ढेर सारे पड़ोसी-रिश्तेदार. कोलकाता के उस हिस्से से निकलते ही जैसे फिल्म बेदम होकर लड़खड़ाने लगती है. कमिटमेंट से बचने और कैरियर के पीछे भागने वाली दोस्त के प्यार में दिन-रात एक कर देने वाले आशिक़ की कहानी कोई नयी नहीं है, ‘कट्टी-बट्टी’ भी कुछ ऐसी ही ज़मीन तैयार करती है. पुराने फ़िल्मी गानों और अपने ऑथेंटिक लुक की वजह से ‘मेरी प्यारी बिंदू’ काफी हद तक ‘दम लगा के हईशा’ की तरफ बढ़ने का हौसला दिखाती है, पर एक ऐसी कहानी, जिसमें ठहराव हो, जिसमें लाग-लपेट और मिलावटें कम हों, ईमानदारी ज्यादा हो, ऐसी एक प्यारी कहानी की कमी फिल्म को उसके तयशुदा मंजिल तक पहुँचने से पहले ही रोक देती है. थोड़ी सी राहत की सांस फिल्म को क्लाइमेक्स में नसीब होती है, जब दोनों किरदारों को एक मुकम्मल अंत मिलता है.

जहां आयुष्मान अपने किरदार में पूरी तरह समाये हुए दिखते हैं, वहीँ परिणीति सहज तो हैं पर स्क्रिप्ट में बंधी-बंधाई अपनी हद से आगे निकलने की हिम्मत कतई नहीं जुटा पातीं. आखिर में, ‘मेरी प्यारी बिंदू’ आपके फेवरेट ऍफ़एम रेडियो स्टेशन का वो लेट-नाईट शो है, जहां आपको अपने बीते ज़माने के पसंदीदा गाने सुनाने का वादा तो मिलता है, मगर उन गानों के बीच का पूरा वक़्त, पूरा ताम-झाम इतना बोरिंग है कि न आपसे छोड़े बनता है, न सुनते! [2/5]   

सरकार 3: कंपनी नई-माल वही! [1/5]

‘फैक्ट्री’ बंद हो चुकी है. ‘कम्पनी’ खुल गयी है. बाकी का सब कुछ वैसे का वैसा ही है. पुराने माल को उसी पुराने बदरंग पैकेजिंग में डाल कर वापस आपको बेचने की कोशिश की जा रही है. अपनी ही फिल्म के एक संवाद ‘मुझे जो सही लगता है, मैं करता हूँ’ को फिल्ममेकर राम गोपाल वर्मा ने अपनी जिद बना ली है. ‘सरकार 3’ जैसी सुस्त, थकाऊ और नाउम्मीदी से भरी तमाम फिल्में, एक के बाद एक लगातार अपने ज़माने के इस प्रतिभाशाली निर्देशक को उसके खात्मे तक पहुंचाने में मदद कर रही हैं. तकनीकी रूप से फिल्म-मेकिंग में जिन-जिन नये, नायाब तजुर्बों को रामगोपाल वर्मा की खोज मान कर हम अब तक सराहते आये थे, वही आज इस कदर दकियानूसी, वाहियात और बेवजह दिखाई देने लगे हैं कि दिल, दिमाग और आँखें परदे से बार-बार भटकती हुई अंधेरों में सुकून तलाशने लगती है. और ऐसा होता है, क्यूंकि रामगोपाल वर्मा के सिनेमा की भाषा अब बासी हो चली है. पानी ठहरा हुआ हो, तो सड़न पैदा होती ही है. अपने दो सफल प्रयासों (सरकार और सरकार राज) के बावजूद, ‘सरकार 3’ से उसी सड़न की बू आती है.

अपने दोनों बेटों की मौत के बाद भी, सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) का दम-ख़म अभी देखने लायक है. ठीक ‘सरकार’ की तरह, फिल्म के दूसरे-तीसरे दृश्य में ही नागरे एक बिज़नेसमैन का गरीब बस्तियों को हटाने के लिए करोड़ों का ऑफर ठुकराते हुए कहते हैं, ‘मैं नहीं करूंगा, और किसी को करने भी नहीं दूंगा’. इस बीच उनका पोता शिवाजी (अमित साध) भी लौट आया है. उधर विरोधी भी एकजुट होने लगे हैं. गोविन्द देशपांडे (मनोज बाजपेई) राजनीति के गंदे खेल का सबसे नया-नवेला चेहरा है. दुबई में बैठा वाल्या (जैकी श्रॉफ) अंडरवर्ल्ड की कमान संभाले है. साथ ही, शिवाजी की प्रेमिका अनु (यामी गौतम), जिसके पिता की हत्या सरकार ने करवा दी थी. षड्यंत्र और विश्वासघात से बुनी इस बिसात पर कोई नहीं कह सकता कि कौन सा मोहरा किस करवट बैठेगा? ‘सरकार 3’ एक बार फिर सरकार की सोच को सही साबित करने और उसकी शक्ति को बरक़रार रखने की लड़ाई है.

फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी है, फिल्म की बेतरतीब पटकथा और हद बनावटी संवाद. रामगोपाल वर्मा से बेहतर स्क्रिप्ट या कहानी की समझ रखना तो बेवकूफी है ही, इस बार फिल्म-लेखकों की टीम भी बुरी तरह निराश करती है. फिल्म का कोई भी हिस्सा आपको चौंकाने में सफल नहीं होता, बल्कि अपनी चौकन्नी समझ से आप खुद कदम-दो कदम आगे ही रहते हैं. फिल्म के संवाद बड़ी बेशर्मी से न सिर्फ अपने आप को दोहराते हैं, बल्कि सुनने में ही इतने बेस्वाद और बकवास लगते हैं कि कभी-कभी लगता है, उन्हें बोलते वक़्त अभिनेताओं की अपनी समझ कहाँ घास चरने चली गयी थी? मनोज बाजपेयी जैसे दिग्गज अभिनेता परदे पर 3 मिनट तक लगातार बोल रहे हों, और आप में तनिक भी जोश-ओ-ख़रोश पैदा न हो, तो गलती अभिनेता में नहीं, उन बेदम अल्फाजों में है जो आपने उन्हें परोसे हैं. फिल्म के शुरूआती दृश्य में ही, अमिताभ बच्चन परदे पर बूढ़े शेर की तरह दहाड़ रहे हैं, पर अफ़सोस! आपका ध्यान खींचने के लिए सिर्फ उनकी आवाज़ ही काफी नहीं है. ‘शेर की खाल पहन लेने से कोई कुत्ता शेर नहीं बन जाता’, ‘शेर कितना भी शक्तिशाली हो, जंगली कुत्ते मिलके शेर का शिकार कर ही लेते हैं’, ऐसे घटिया संवादों से भरी फिल्में मुझे वीसीआर के ज़माने में अच्छी लगती थीं.

फिल्म का तकनीकी पहलू भी उतना आजमाया हुआ है. फिल्म के सेट पर मौजूद किसी भी चीज़ का वहाँ पाया जाना सिर्फ एक ही जरूरत पूरी करता है, कैमरे की फ्रेमिंग को लेकर रामगोपाल वर्मा का पागलपन. टेबल पर पड़ा चश्मा हो, हाथ में कॉफ़ी का मग, चाय का कप, फर्श पर पत्थर का बना कुत्ता, कोने में खड़ा ‘लॉफिंग बुद्धा’; कभी न कभी सबको कैमरे के सामने आना ही है, वो भी पूरे क्लोज-अप में. वर्मा जाने किस ग़लतफहमी का शिकार फिल्ममेकर हैं, जो आज भी जोशीले फिल्म-स्टूडेंट की तरह आईने में एक हल्का शॉट डिजाईन करते हैं, और खुद को के. आसिफ मान कर बैठ जाते हैं. मानो अपने हिस्से का ‘शीशमहल’ उन्होंने पा लिया. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर शोर-शराबे से भरा तो है ही, भड़काऊ भी है. जब भी आप सुनते हैं, आपको चीखने का मन करता है.

फिल्म की दो ही अच्छी बातें है. एक तो अमिताभ बच्चन, जो 12 साल बाद भी सुभाष नागरे के किरदार में उसी शिद्दत से फिट हो जाते हैं, जैसे पहली वाली ‘सरकार’ में. दूसरा मनोज बाजपेयी की अदाकारी, खास कर उस दृश्य में जहाँ वो राजनीति की तुलना समंदर की लहरों के साथ करते हैं. उनके किरदार का पागलपन उस दृश्य में सम्मोहित कर देता है. वरना तो पूरी फिल्म में हर अभिनेता खराब अभिनय की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलना चाहता है. हाँ, जाने क्यूँ जैकी श्रॉफ का किरदार हर वक़्त एक कम-अक्ल मॉडल के साथ दिखाया जाता है? यकीन नहीं होता, इसी रामगोपाल वर्मा ने ‘कंपनी’ में हमें मलिक (अजय देवगन) जैसा ज़मीनी गैंगस्टर भी दिया था.

आखिर में, ‘ गॉडफ़ादर’ से ‘सरकार सीरीज’ की तुलना करने वाले रामगोपाल वर्मा खुद कांति शाह से ज्यादा काबिल नज़र नहीं आते, खास कर हिंदी सिनेमा में उनके हालिया योगदान को देखते हुए. दोनों में ‘बैक टू बैक’ फिल्में बनाने का ज़ज्बा तो कूट-कूट कर भरा है, पर दोनों को ही अपने आप को खुश रखने से फुर्सत नहीं. सिनेमा जाता है गर्त में, तो जाये, मेरी बला से! तकलीफ ये है, कि चाहकर भी 25 सालों से हिंदी फिल्में बनाने वाले रामगोपाल वर्मा हिंदी में मेरे ये जज़्बात पढ़ नहीं पायेंगे. तो सवाल ये है कि अब उन्हें ‘सरकार 4’ बनाने से रोकेगा कौन? [1/5]