Wednesday 30 November 2016

डियर जिंदगी: Rx, एक सुकून भरा ‘सेशन’! [3.5/5]

गौरी शिंदे की ‘डियर जिंदगी’ देखने के लिए आपको एक ख़ास तरह का चश्मा चाहिए होगा. वो चश्मा जिसके भीतर से आप देख पाएं कि कैसे एक सुपरस्टार अपने स्टारडम का बोझ धीरे-धीरे ही सही, अपने मज़बूत कन्धों से उतारने की कोशिश तो कर रहा है. हालाँकि कई बार आपको ये कोशिश जबरदस्ती की लगेगी, और कई बार बहुत बनावटी, फिर भी. तकरीबन तीन दशकों के अपने पूरे फ़िल्मी कैरियर में शाहरुख़ इस तरह की बेहद जरूरी कोशिश सिर्फ गिनती के कुछ वक़्त ही (स्वदेश और चक दे! इंडिया) करते नज़र आते हैं, इसीलिए इसके मायने और भी बढ़ जाते हैं. फिल्म में उनका किरदार एक जगह कहता भी है, “ज़िन्दगी में जब भी पैटर्न और आदतें बनती दिखाई दें, जीनियस वही है जिसे पता हो कि कब और कहाँ रुकना है?” इस फिल्म से शायद शाहरुख़ भी यही सीख रहे हैं.  

...और इसी करामाती चश्मे से शायद आप ये भी देख पाएं कि एक ‘मेनस्ट्रीम’ हिंदी फिल्म होते हुए भी, अपनी कहानी और कहानी कहने की शैली की वजह से कैसे ‘डियर जिंदगी’ कमोबेश एक प्रयोगधर्मी ‘इंडी’ फिल्म का चोला ओढ़ने में कहीं कोई शर्मिंदगी नहीं दिखाती. ज़िन्दगी की मुश्किलों को आसान बनाने के रास्ते सुझाती, ये फिल्म भले ही किसी बड़ी सर्जरी की तरह हिंदी सिनेमा की सारी तकलीफें एक झटके में दूर न कर पाती हो, पर एक सुकून भरा ‘सेशन’ तो है ही, जिसका असर आने वाले वक़्त में बिलकुल दिखाई देगा.

रिश्ते बनाने-निभाने में काईरा (आलिया भट्ट) थोड़ी कच्ची है. ‘बाय’ बोलने की जैसे उसको जल्दी रहती है. दूसरा कोई बोले, दर्द हो, दुःख पहुंचे, इससे पहले खुद ही बोल दो. जाने कैसे-कैसे डर पाले बैठी रहती है, बिलकुल हम सबकी तरह. रोने का मन हो तो हरी मिर्ची चबा कर कहती है, “मिर्ची की वजह से हो रहा है ये”. सिड (अंगद बेदी) के बाद रघुवेंद्र (कुनाल कपूर) भी उसकी जिंदगी से जाता दिख रहा है. डिप्रेशन का दौर है ये. गोलियां खाने के बाद भी काईरा को नींद नहीं आती. दिमाग के डॉक्टर, जहांगीर खान (शाहरुख खान) के सामने बैठी है, पर अपनी तकलीफ़, अपना डर सब कुछ अपना न कह कर, अपनी दोस्त के नाम पर धड़ल्ले से बताती जा रही है. आखिर, ऐसे डॉक्टर के पास जाने वाले को ‘लोग’ पागल जो समझते हैं.

खैर, डॉक्टर खान को मर्ज़ जानने में कोई मुश्किल नहीं होती. उन्हें बस उस ज्वालामुखी को कुरेदना है, जहां सब कुछ धधकते लावे की शक्ल में जमा होता जा रहा है. हालाँकि वो खुद डाइवोर्स जैसे अँधेरे रास्ते से गुजर चुके हैं, और कहते हुए झिझकते नहीं कि वो अपने बेटे को अच्छी यादें देना चाहते हैं, ताकि उसके पास अपने ‘थेरेपिस्ट’ को बताने के लिए कुछ तो हो. सच कहिये तो ऐसे ‘थेरेपिस्ट’ के पास जाने की जरूरत हम सबको है, जिनके फ़ोन कॉल्स अपने माँ-बाप के लिए कभी दो-चार मिनट से ज्यादा लम्बे नहीं होते.

डियर ज़िन्दगी’ अपने छोटे-छोटे, हलके-फुल्के पलों में बड़े-बड़े फलसफों वाली बातें कहने का जोखिम बखूबी और बेख़ौफ़ उठाती है. डॉक्टर खान जब भी रिश्तों को लेकर ज़िन्दगी का एक नया पहलू काईरा को समझा रहे होते हैं, उनकी इस भूमिका में शाहरुख़ जैसे बड़े कलाकार का होना अपनी अहमियत साफ़ जता जाता है. ये चेहरा जाना-पहचाना है. बीसियों साल से परदे पर प्यार, दोस्ती और ज़िन्दगी की बातें करता आ रहा है, पर इस बार उसकी बातों की दलील पहले से कहीं ज्यादा गहरी है, मजबूत है, कारगर है. आलिया जिस तरह भरभरा कर टूटती हैं परदे पर, हिंदी सिनेमा में अपने साथ के तमाम कलाकारों को धकियाते हुए एकदम आगे निकल जाती हैं. फिल्म की खासियतों में से एक ये भी है कि शाहरुख़ जैसा दमदार स्टार होते हुए भी कैमरा और कहानी दोनों आलिया के किरदार से कभी दूर हटते दिखाई नहीं देते.

गिनती के दो-चार बेहद आम दृश्यों को छोड़ दें, खासकर काईरा का ‘फॅमिली अफेयर’ जहां फिल्म की कहानी दूसरे हिस्सों के मुकाबले काफी बेअसर और लचर दिखाई पड़ती है, तो ‘डियर जिंदगी’ एक बहुत ही सुलझी हुई फिल्म है. जितना बोलती है, उतना ही कहती भी है, पूरी तरह नाप-तौल कर, पूरी तरह सोच-समझ कर! [3.5/5]         

Friday 18 November 2016

फ़ोर्स 2: बुरा भला है. नायक से खलनायक अच्छा! [2/5]

अपने तमाम समकालीन फिल्मों की तरह ही, ‘फ़ोर्स 2’ भी सीक्वल होने का कोई भी धर्म निभाने में दिलचस्पी नहीं दिखाती; सिवाय गिनती के दो-चार दृश्यों में जहां एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) अपनी स्वर्गीया पत्नी माया (जेनेलिया देशमुख, मेहमान भूमिका में) से यादों में रू-ब-रू होते हैं. वरना तो इस फिल्म को आप ‘रॉकी हैण्डसम 2’ या ‘ढिशूम 2’ ही क्यूँ न कह लें, किसी की क्या मजाल, जो अंतर बता भी सके. हाँ, दो बातें अहम् हैं, जो इस फिल्म की बड़ी खासियत कही जा सकती हैं. एक तो ये ‘आजकल’ की फिल्म है. मामले की गंभीरता को समझाने के लिए ‘ये देश की सुरक्षा का मामला है’ जैसे जुमले यहाँ दिल खोल कर बोले जाते हैं. पाकिस्तान को डायलाग बोल-बोल कर तबाह कर देना, बॉलीवुड के लिए अब जैसे पुराना हो चला है. चीन है अब हमारा अगला निशाना. हीरो पहले भी अंडरकवर मिशन पर जाता था, विदेशी धरती पर खलनायकों का कीमा बना के लौट आता था, पर इस बार उसके इरादे और लोहा हो गए हैं. उसकी बुलंद आवाज़ में जैसे कोई और भी दहाड़ रहा है, “देश बदल रहा है, सर! अब हम घर में घुस के मारते हैं!”

दूसरी खासियत है, फिल्म का दकियानूसी विवादों से बचे रहने की लगातार कोशिश. यहाँ देश से गद्दारी करने वाला कोई ‘अब्दुल’ या ‘सलीम’ नहीं है, बल्कि शिव शर्मा (ताहिर राज भसीन) है, जिसकी वजहें भले ही निजी और ज़ज्बाती हों, गुनाह तनिक भी हलके नहीं हैं. उसके तेवरों में भी धार और चमक आजकल वाली ही है, “देशभक्त और देशद्रोही की बहस तो आप मुझसे कीजियेगा ही मत, हार जायेंगे!”. पर इन सब के और अपनी सांसें रोक देने वाली तेज़ रफ़्तार के बावजूद, अभिनय देव की ‘फ़ोर्स 2’ एक आम एक्शन फिल्म है, जहां लॉजिक और इमोशन्स दोनों ही स्टाइल की भेंट चढ़ जाते हैं. ‘फ़ोर्स’ सुपरहिट तमिल फिल्म ‘काखा काखा’ की रीमेक थी, इसलिए साउथ इंडियन फिल्मों का सबसे कामयाब और स्पेशल ‘इमोशनल’ एंगल फिल्म में भरपूर मात्रा में था. ‘फ़ोर्स 2’ सिर्फ और सिर्फ आपकी आँखों तक पहुँचता है, न दिल तक, न दिमाग तक!

हंगरी में भारत के रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) एजेंट्स को कोई एक-एक करके मार रहा है. इन्वेस्टीगेशन मिशन पर जा रहे हैं दो लोग. मुंबई क्राइम ब्रान्च के एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम), जिनका जासूस दोस्त पहले ही शहीद हो गया है और क्यूंकि रॉ चीफ के अनुसार, ‘पहला क्लू यश को ही मिला था”. दूसरी हैं रॉ की सबसे काबिल ऑफिसर कमलजीत कौर उर्फ़ के.के. (सोनाक्षी सिन्हा). के.के. गोली नहीं चला सकतीं. उसके पीछे उनके अपनी वजहें हैं. और मुझे नहीं पता, ये राज़ उनके डिपार्टमेंट में किस किस को पता था? और फिर वो दूसरी क्या खूबियाँ थीं उनमें, जिसकी वजह से उन्हें इस मिशन के लिए चुना गया? स्मार्ट होंगी शायद, पर जब एक जगह फिल्म के खलनायक शिव (ताहिर राज़ भसीन) उन्हें टिप देते हैं, रॉ का एक और एजेंट अगले आधे घंटे में मारा जाने वाला है और सिर्फ वो ही उसे बचा सकती हैं; के.के. का दिमाग सिग्नल भेजता है, “इसका मतलब वो एजेंट कहीं आस-पास ही है” इसके तुरंत बाद आपका दिमाग के.के. से आपका ध्यान हटा कर फिल्म के निर्देशक की ओर ले जाता है, जो अगले बीस मिनट तक लम्बे-लम्बे शूटआउट्स के साथ, दिन से रात होने के बाद भी ‘जल्दी करो, सिर्फ 10 मिनट और बचे हैं’ की घुट्टी दर्शकों को बड़ी बेशर्मी से पिलाते रहते हैं.

फ़ोर्स 2’ उन तमाम फिल्मों की अगली कड़ी है, जिनमें सिनेमेटोग्राफी और एक्शन को कहानी से ज्यादा तवज्जो मिलती है. ऐसे फिल्मों में अभिनय की बारीकियां ढूँढने की गलती न मैं करता हूँ, न ही आपको करनी चाहिए. फिर भी. जॉन अब्राहम जिस्मानी दर्द को परदे पर परोसने में ज्यादा मेहनत दिखाते हैं, चाहे वो चलती कार को हाथों से उठाने का स्टंट हो या मार-पीट के दौरान बदन में घुसी कील को निकालने की जद्दोजेहद. सोनाक्षी रॉ एजेंट दिखने में सारा वक़्त और सारी मेहनत बर्बाद कर देती हैं. काश, उनके किरदार को थोड़ी सूझबूझ भी, खैरात में ही सही, फिल्म के लेखकों ने दे दी होती. ये वो काबिल ऑफिसर है, जो ‘मिशन कौन लीड करेगा?’’ जैसे सवालों में ही खुश रहती है. ‘फ़ोर्स 2’ टाइटल को अगर जायज़ ठहराना हो तो, ‘2’ इशारा करेगा जॉन और सोनाक्षी की जोड़ी को, और पूरा का पूरा फ़ोर्स जायेगा ताहिर के नाम. ताहिर अपनी खलनायकी में हर वो रंग परोसते हैं, जो मजेदार भी है, रोमांचक भी है और थोड़ा ही सही पर इमोशनल भी. आम तौर पर ये सारा कुछ हीरो के जिम्मे होता है. इस बार नहीं.

अंत में, ‘फ़ोर्स 2’ इतनी तेज़ रफ़्तार से आपकी आँखों के सामने चलता रहता है, कि ज्यादातर वक़्त आपको सोचने का वक़्त भी नहीं मिलता. अब यही खासियत भी है, और यही नाकामी भी. जितनी तेज़ी से चीजें चलती रहती हैं, उतनी ही तेज़ी से चली भी जाती हैं. आखिर बुरा वक़्त जितनी जल्दी गुज़र जाए, अच्छा ही होता है! [2/5]    

Friday 11 November 2016

रॉक ऑन 2: बैंड बज गया! [2/5]

अभिषेक कपूर की ‘रॉक ऑन’ कुछ आठ साल पहले आई थी. यारी, दोस्ती, मस्ती और म्यूजिक के बीच रिश्तों में उतार-चढ़ाव और हाथ-धो कर सपनों के पीछे पड़ जाने की जिद लिए कुछ मनमौजी दोस्तों की कहानी, जहां कभी खुदगर्ज़ी और खुद्दारी दूरियाँ बढ़ा देती थी तो म्यूजिक के लिए उनका साझा ज़ज्बा नाराज दोस्तों के हाथ खींच कर गले भी मिला देती थी. शुजात सौदागर की ‘रॉक ऑन 2’ ने आने में थोड़ी देर ज़रूर लगायी है, पर ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ के साथ इन्साफ बिलकुल नहीं करती. ‘रॉक ऑन’ अगर पुराने लव लैटर की तरह है, जिसके गुलाबी पन्ने अभी भी उनको छूने वाली नरम मुलायम उँगलियों का एहसास कराते हैं, जिसकी सियाही अब भी बंद लिफाफे से ही एक जानी-पहचानी खुशबू बिखेरती रहती है, तो ‘रॉक ऑन 2’ उसी पुराने लव लैटर की एक ज़ेरॉक्स कॉपी भर है. देखने में कमोबेश वैसा ही, पर रंग बासी और खुशबू बेअसर.

सालों बीत गए हैं. इतने कि आपको फ्लैशबैक में बार-बार ले जाया जा सके. केडी (पूरब कोहली) क्लाइंट्स के इशारों पर म्यूजिक बनाते-बनाते थक गया है. जो (अर्जुन रामपाल) एक रेस्टो-बार चलाता है और साथ ही, म्यूजिक रियलिटी शोज़ में टीआरपी दिलाने वाले बेहूदा कलाकारों को जज करता है. आदी (फरहान अख्तर) अब मेघालय के किसी गाँव में लोगों की सेवा में लगा रहता है. ‘मैजिक’ का कहीं कोई अता-पता नहीं. मैजिक की जगह अब ‘ट्रैजिक’ ने ले ली है. कहने को तो सारे दोस्त (बीवियों को गिनते हुए) आपस में मिलते-जुलते हैं, पर अन्दर ही अन्दर म्यूजिक छूट जाने का ग़म पाले बैठे हैं. तीनों के लिए उम्मीद की थोड़ी बहुत रौशनी लेकर आते हैं उदय (शशांक अरोरा, तितली वाले) और जिया (श्रद्धा कपूर), पर अभी बहुत कुछ कहानी फ्लैशबैक के काले दरवाजे के पीछे आपका इंतज़ार कर रही है.

रॉक ऑन 2’ एक बेहद उदास फिल्म लगती है, अपने किरदारों की उदासियों, मुश्किलों और परेशानियों की वजह से नहीं, बल्कि अपने थकाऊ गीतों, कहानी और परफॉरमेंस में उस ‘जादू’ के न होने से, जो ‘रॉक ऑन’ में हम पहले ही जी चुके हैं. ‘रॉक संगीत’ को पूरी तरह अपनाने वाले ‘मेरी लांड्री का एक बिल’ जैसे गानों की ताजगी को अब ज़िन्दगी के भारी-भरकम फलसफों वाली लाइनों ने कब्ज़े में ले लिया है. सहज, स्वाभाविक और कुदरती अभिनय को छोड़कर अब ड्रामेबाजी पर ज्यादा भरोसा दिखाया जाने लगा है. आठ साल पहले, दोस्ती के जिन मजेदार और निजी पलों को आप परदे पर महसूस करने में कामयाब रहे थे, अब वैसे पल फिल्म में न के बराबर हैं. उनकी जगह नए किरदारों की पेशोपेश अब आपको ज्यादा तंग करती है. फिल्म में संवाद, खासकर उन हिस्सों में जहां बार-बार केडी दर्शकों को कहानी सुनाने-समझाने की जिम्मेदारी ले लेता है, बेहद नाटकीय और फीके लगते हैं.

कहते हैं, संगीत सब दर्द भुला देता है. फिल्म में ऐसा सिर्फ एक या दो ही बार होता है. श्रद्धा की आवाज़ में गाये गीत और फिल्म के अंतिम क्षणों में म्यूजिक कॉन्सर्ट का पूरा हिस्सा (ऊषा उत्थुप  वाला गीत) ऐसे ही कुछ गिने-चुने पल हैं, जब फिल्म का संगीत आपको पूरी तरह बांधे रखने में कामयाब रहता है. अभिनय की दृष्टि से लगभग सभी मुख्य कलाकार एकदम से निराश तो नहीं करते, पर अपने आपको बेहिचक दोहरा रहते हैं. पूरब और अर्जुन अच्छे हैं. फरहान औसत हैं. श्रद्धा अपनी दूसरी फिल्मों से काफी बेहतर हैं. फिल्म में श्रद्धा के भाई और कुमुद मिश्रा के बेटे की भूमिका में प्रियांशु पैन्यूली काफी उम्मीद जगाते हैं.

आखिर में, ‘रॉक ऑन 2’ एक ऐसा सीक्वल है, जिसके न होने की वजहें बहुत सारी हो सकती थीं, और होने के बहाने बहुत कम. इसे देखना या झेलना किसी ऐसे कॉन्सर्ट से कम नहीं, जिसमें आपके पसंदीदा कलाकार तो हैं, पर उन्हें गाते हुए सुनने से ज्यादा आप उन्हें उदास चेहरे लिए घूमते देख रहे हैं. [2/5]