Thursday 25 August 2016

अ फ्लाइंग जट्ट: बे-असरदार सुपरहीरो! [1.5/5]

भारत चमत्कारों का देश है. यहाँ सब भगवान भरोसे होता है. तो एक सुपरहीरो बनने-बनाने में दिमाग या समझदारी का इस्तेमाल करने की जेहमत क्यूँ उठानी? बस एक तूफ़ानी रात, पेड़ पर बना धार्मिक निशान (सिख धर्म का खंडा), बैकग्राउंड में एक जोशीला भक्तिमय गीत और दानव-रुपी खलनायक से लड़ता एक भोला-भाला नौजवान; बॉलीवुड को इससे ज्यादा कुछ और चाहिए ही नहीं. रेमो डी’सूज़ा की ‘अ फ्लाइंग जट्ट’ देखते-देखते अक्सर टुकड़ों में ही सही, 1975 की महान पारिवारिक फिल्म ‘जय संतोषी माँ’’ एक बार फिर दिमागी परदे पर चलने लगती है. मजबूर, लाचार और बेबस की मदद को जहां ईश्वरीय शक्ति हर वक़्त तैयार बैठी रहती है, बस एक भजन भर गाने की देर है. 40 साल बाद भी बॉलीवुड के लिए मनोरंजन के मापदंडों में कहीं कुछ नहीं बदला है.

पंजाब के किसी एक शहर में मल्होत्रा [के के मेनन] प्रदूषण की फैक्ट्री चला रहा है. उसकी तरक्की के रास्ते में रुकावट बन रहा है जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा, जहां एक माँ [अमृता सिंह] अपने दो बेटों [टाइगर श्रॉफ, गौरव पांडेय], 40-50 किरायेदारों और एक पवित्र पेड़ के साथ हर शाम 7 बजे व्हिस्की के पैग लगाती पाई जाती है. मुझे यकीन है, उसके पंजाबी होने का अब आपको और कोई सबूत नहीं चाहिए. मल्होत्रा के नापाक इरादों को पूरा करने में उसकी मदद को खड़ा है एक दैत्याकार बाहुबली राका [डब्ल्यू डब्ल्यू ई के नाथन जोंस]. राका के साथ लड़ाई के दौरान ही अमन [टाइगर श्रॉफ] को दैवीय शक्तियां मिल जाती हैं. उसकी माँ और भाई तो ख़ुशी से नाचने ही लगते हैं, जब पता चलता है, अमन के अन्दर चाहे छूरा घोंप दो, तो भी कुछ नहीं होता. दोनों बाकायदा बारी-बारी से उसे चाक़ू मार-मार के तसल्ली भी कर रहे हैं. हालाँकि अमन के लिए सुपरहीरो बनना और भी दुखदायी हो गया है. माँ रोज रात को तैयार करके कहती है, “जा, दुनिया बचा!”.

फिल्म की कहानी को मतलब और मकसद देने के लिए रेमो जिस प्रदूषण और हरियाली के बीच की जंग को मुद्दा बनाकर पेश करते हैं, वो फिल्म के टाइटल सीक्वेंस में बहुत असरदार तरीके से सामने आता है. एक आदमी पेड़ काट रहा है और कैसे उसका ये कदम पूरी दुनिया के साथ-साथ उसकी भी तबाही का कारण बन सकता है, खूबसूरत एनीमेशन के जरिये रेमो अपनी बात चंद मिनटों में ही ख़तम कर देते हैं. पर बात जब इसी को बाकी के ढाई घंटे में बताने की आती है, तो फिल्म उसी कटे पेड़ की तरह एक झटके में ढह जाती है. एक हादसे में राका का ‘प्रदूषण, गन्दगी और धुएं’ से शक्तियां प्राप्त करने वाला दैत्य बन जाना, उसे हराने और मारने के लिए फ्लाइंग जट्ट का उसे लेकर दूसरे ग्रह पे चले जाना, उनका स्पेस में सेटेलाइट्स के बीच लड़ाई करना; फिल्म अपनी बचकानी और वाहियात राइटिंग से आपको परेशान करने लगती है. अफसोस तो ये है कि इसे पूरी तरह बच्चों की फिल्म भी नहीं कहा जा सकता, खासकर उन दृश्यों की वजह से जहां जैकलिन फ़र्नांडिस फ्लाइंग जट्ट से अपनी ज़िन्दगी का ‘फर्स्ट किस’ डिमांड कर रही हैं.

अ फ्लाइंग जट्ट’ सिर्फ चार या पांच दृश्यों में देखने लायक फिल्म कही जा सकती है. इनमें से ज्यादातर वो कॉमेडी सीन हैं, जहां सुपरहीरो अमन की टांग-खिंचाई उसकी अपनी ही माँ और भाई के हाथों हो रही होती है. के के मेनन अपने किरदार में इस तरह का पागलपन ‘द्रोणा’ और ‘सिंह इज़ ब्लिंग’ में पहले भी दिखा चुके हैं. अमृता सिंह कहीं-कहीं बहुत बेकाबू हो जाती हैं, पर सब मिला-जुला के अच्छी लगती हैं. सटीक कास्टिंग के साथ, गौरव पाण्डेय टाइगर के भाई की भूमिका में अच्छा खासा प्रभावित करते हैं. एक ही बात समझ नहीं आती, अगर लड़ाई प्रदूषण और पर्यावरण के बीच है तो प्लास्टिक [जैकलिन चाभी वाली गुड़िया से ज्यादा न कुछ और लगती हैं, न करती हैं] और रबर [टाइगर का हर फिल्म में मार्शल आर्ट एक्सपर्ट बनना वैसा ही होता जा रहा है, जैसे निरूपा रॉय का हर फिल्म में अपने बच्चों से बिछड़ जाना] पर्यावरण की तरफ कैसे हो सकते हैं??

बहरहाल, रेमो डी’सूज़ा की बेवकूफी भरी ‘अ फ्लाइंग जट्ट’ का मज़ा आपको लेना है तो थिएटर में आँखें बंद करके बैठ जाईये और भगवान पर भरोसा रखिये. कोई सुपरहीरो आपको इस फिल्म से बचाने भले ही नहीं आये, पर सरदर्द थोड़ा कम होगा और बॉलीवुड से आपका भरोसा पूरी तरह नहीं टूटेगा. माफ़ कीजिये, पर ये सरदार बेअसरदार है! चलिए, कोई नया ढूंढते हैं! [1.5/5]       

Friday 19 August 2016

हैप्पी भाग जायेगी: पाकिस्तानी ‘तनु वेड्स मनु’! [2/5]

हैप्पी करोड़ो में एक लड़की है. फिल्म में अली फज़ल का किरदार हैप्पी के किरदार को बयान करते हुए वैसी ही शिद्दत दिखाता है, जिस शिद्दत से शायद फिल्म के निर्देशक मुदस्सर अज़ीज़ ने फिल्म के निर्माताओं के सामने हैप्पी का किरदार बढ़ा-चढ़ा के पेश किया होगा. पर सच तो ये है कि हैप्पी जैसी नायिकायें बॉलीवुड की पसंदीदा हमेशा से रही हैं. स्वभाव से दबंग, जबान से मुंहफट, दिल से साफ़, कद-काठी से बेहद खूबसूरत! अब सारा दारोमदार सिर्फ इस एक बात पर आकर टिक जाता है कि उसे गढ़ने में कितनी अच्छी और कितनी ‘वाटरटाइट’ स्क्रिप्ट का इस्तेमाल होता है. सब कुछ सही रहा तो वो ‘तनु वेड्स मनु’ की तनु भी बन सकती है, वरना थोड़ी सी भी झोल-झाल उसे वैसी ही ‘हैप्पी’ बना के छोड़ेगा, जैसी हम हर दूसरी-तीसरी रोमांटिक कॉमेडी फिल्मों में देखते सुनते आये हैं. हालाँकि फिल्म के साथ आनंद एल राय [निर्देशक, तनु वेड्स मनु और राँझणा] और हिमांशु शर्मा [संवाद लेखक, तनु वेड्स मनु और राँझणा] जैसे बेहतरीन नाम जुड़े है, पर ‘हैप्पी भाग जायेगी’ हैप्पी को ‘तनु’ बनने का मौका नहीं देती.

हैप्पी [डायना पेंटी] एक तेज-तर्रार लड़की है. उसके पैर कहीं रुकते नहीं. बाप की पसंद के लड़के बग्गा [जिम्मी शेरगिल] से शादी न करनी पड़े, इसलिए शादी के दिन ही घर से भाग जाती है. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि वो अपने बॉयफ्रेंड गुड्डू [अली फज़ल] के पास न पहुँच कर अमृतसर से लाहौर पहुँच जाती है. लाहौर में उसकी मदद करने को तैयार बैठे हैं पाकिस्तानी सियासत के मुस्तकबिल बिलाल अहमद [अभय देओल]. बिलाल अपने वालिद की सियासी ख्वाहिशों को चुपचाप ख़ामोशी से पूरा करने में लगा है, जबकि उसकी अपनी मर्ज़ी कभी क्रिकेट के मैदान में झंडे गाड़ने की थी. कहने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि हैप्पी से मिलकर उसे अपनी खोई शख्सियत हैप्पी में दिखने लगती है. बहरहाल, घटनायें और फिल्म के लेखक-निर्देशक खींच-खांच के सारे ख़ास किरदारों को प्रियदर्शन की फिल्मों की तरह, उनके तमाम सह-कलाकारों के साथ हिन्दुस्तान से पाकिस्तान में ला पटकते हैं. शायद इसलिए भी कि स्क्रीन पर पाकिस्तान का ‘सब चलता है’ हिंदुस्तान के ‘सब चलता है’ से ज्यादा मजाकिया लगता हो.

फिल्म के मजेदार किरदार हों, उनके रसीले संवाद या फिर काफी हद तक कहानी में जिस तरह के हालातों का बनना और बुना जाना, ‘हैप्पी भाग जायेगी’ वास्तव में ‘तनु वेड्स मनु’ बनने की राह पर  ही भागती नज़र आती है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार उन किरदारों में आपको बनावटीपन और घटनाओं में बेवजह की भागा-दौड़ी ज्यादा शामिल दिखाई देती है. हैप्पी लाहौर से वापस अमृतसर क्यूँ नहीं आना चाहती? हैप्पी अगर इतनी ही निडर और निर्भीक है कि पूरा लाहौर उससे परेशान हो जाए, वहाँ की पुलिस, वहाँ के गुंडे सब उसके सामने घुटने टेक दें तो उसे अपने बाप के सामने शादी की मुखालफत करने में क्या दिक्कत हो जाती है? कहानी की घिसी-पिटी सूरत यहाँ किरदारों की भली सी-भोली सी सीरत पर बुरी तरह हावी हो जाती है. नतीज़ा? फिल्म कुल मिलाकर एक औसत दर्जे की कोशिश भर दिखाई देती है.

जिम्मी शेरगिल यहाँ भी नाकाम प्रेमी की भूमिका को जीते नज़र आते हैं, जिसे फिल्म के अंत में ‘पति’ बनने का सुख नहीं मिलता, पर दर्शकों की ‘सिम्पैथी’ मिलने का हौसला ज़रूर दिया जाता है. फिल्म के असरदार पलों में पाकिस्तान पर गढ़े गए सीधे-सादे, साफ़-सुथरे जोक्स आपके चेहरे पे हर बार मुस्कान लाने में कामयाब रहते हैं. पीयूष मिश्रा साब का औघड़पन, उनकी अहमकाना हरकतें और खालिस उर्दू के इस्तेमाल से बनने वाला हास्य आपको थोड़ी तो राहत देते हैं. अली फज़ल और अभय देओल अपनी करिश्माई मौजूदगी भर से परदे को एक हद तक जिंदा रखते हैं. डायना काबिले-तारीफ हैं. जिस तरह की झिझक और झंझट उनके अभिनय में एक वक़्त दिखाई देता था, उससे वो काफी दूर निकल आई हैं.

आखिर में; मुदस्सर अज़ीज़ की ‘हैप्पी भाग जाएगी’ में एक किरदार कहता है, “काश! ऐसी लव-स्टोरीज़ पाकिस्तान में होतीं.” सच मानिए, कुछ मामलों में ये ‘तनु वेड्स मनु’ बनाने की चाह में भटकी हुई कोई अच्छे बजट की, पर सस्ती सी पाकिस्तानी फिल्म ही नज़र आती है. यहाँ सब कुछ मिलेगा, पर सब आधा-अधूरा, अधपका और जल्दबाजी से भरा हुआ! [2/5]         

Friday 12 August 2016

रुस्तम: सुस्तम, सुस्तम!! [1.5/5]

बॉलीवुड को कुछ चीजों में खासा मज़ा आता है. सच्ची घटनाओं को उठाओ, उनके जुड़े जमीनी किरदारों को कार्टून की तरह लम्बे, चौड़े, भद्दे बना दो, और फिर उन्हें इस शान से परोसो जैसे आपने कितना बड़ा एहसान किया हो हिंदी सिनेमा और देश के दर्शकों पर. 1959 के मशहूर और ऐतिहासिक नानावटी केस पर आधारित, टीनू सुरेश देसाई की ‘रुस्तम’ एक ऐसी ही बेशरम और ढीठ फिल्म है, जिसकी हिम्मत पर आपको सिर्फ गुस्सा और झुंझलाहट आती है, खासकर तब जब आप जानते हैं कि इसके निर्माताओं ने ‘ वेडनेसडे’, ‘स्पेशल छब्बीस’ और ‘बेबी’ जैसी समझदार फिल्मों से बॉलीवुड का एक नया चेहरा गढ़ा है. ‘रुस्तम’ न सिर्फ नानावटी केस की अहमियत और संजीदगी का मज़ाक बनाती है, बल्कि हिंदी सिनेमा में अब तक का सबसे वाहियात ‘कोर्टरूम’ ड्रामा दिखाने का सौभाग्य भी हासिल करती है.

फिल्मों में देशभक्ति का नया ‘पोस्टर-बॉय’ बनते जा रहे अक्षय कुमार यहाँ भारतीय नौसेना के कमांडर बने हैं, कमांडर रुस्तम पावरी, जिनकी एंट्री तिरंगे के सामने सफ़ेद यूनिफार्म में कदमताल करते हुए होती है. बीवी सिंथिया [इलियाना डी’क्रूज़] का अवैध सम्बन्ध अमीर दिलफेंक विक्रम मखीजा [अर्जन बाजवा] के साथ है. पता चलते ही, रुस्तम विक्रम के सीने में 3 गोलियों उतार कर उसकी हत्या कर देता है, और फिर खुद पुलिस स्टेशन में जाकर सरेंडर. आपकी जानकारी के लिए बता दूं, मुंबई का नानावटी केस भारतीय न्याय व्यवस्था का वो मशहूर मामला है, जिसमें फैसले तक पहुँचने के लिए आख़िरी बार ज्यूरी का इस्तेमाल हुआ था. एक ऐसा सनसनीखेज मामला, जब पूरी पब्लिक एक खूनी की रिहाई के लिए सड़कों पर उतर आई थी. असली मामले में भले ही सारा फोकस इस बात पे रहा हो कि खून तैश में आकर किया गया था, या ठंडे दिमाग से सोचकर; यहाँ फिल्म अक्षय कुमार के स्टारडम को ही सजाने-संजोने में लगी रहती है. फिल्म में देशभक्ति का तड़का भी इसी इमेज को और चमकाने की एक सस्ती कोशिश है.

90 के दशक की फिल्मों में अक्सर आपने नायक को कोर्ट में लकड़ी के कठघरे को उखाड़ कर विरोधी पक्ष के वकील या गवाहों की तरफ दौड़ते देखा होगा (अक्षय खुद भी ऐसी फिल्मों का हिस्सा रहे हैं). राहत की बात है यहाँ ऐसा कुछ नहीं होता, पर यहाँ जो होता है वो भी कुछ कम नहीं. दलीलों के नाम पर बचकानी जिरहें, हँसी के लिए ओछे मज़ाक, कोर्ट में मौजूद पब्लिक की बेमौसम तालियों और ’एक रुका हुआ फैसला’ की तर्ज़ पर ज्यूरी की अधपकी कशमकश; ‘रुस्तम’ हर तरफ अपने दिमागी दिवालियेपन की नुमाईश करती नज़र आती है.

परदे पर खूबसूरत फ्रेम को पेटिंग्स कहकर आपने कई फिल्मों के आर्ट डायरेक्शन और कैमरावर्क की दिल खोल कर सराहना की होगी. इस फिल्म में भी इस तरह के तारीफ़ की पूरी गुंजाइश है, अगर आपको अपने 5 साल के बच्चे की ‘माइक्रोसॉफ्ट पेंट’ में की गई हरकतें भी पेंटिंग लग्रती हों तो. इतने सारे चटख रंगों को एक साथ इससे पहले शायद मैंने ‘एशियन पेंट्स’ के शेड कार्ड में ही देखे होंगे. फिल्म का कानफाडू बैकग्राउंड स्कोर जज साहब के हथोड़े की तरह सर पे बजता ही रहता है. और उसपे, एक्टिंग में परफॉरमेंस का अकाल. कोई न कोई इंडस्ट्री में है, जो ‘सीरियस एक्टिंग’ का मतलब कैमरे के सामने सीरियस रहना समझता है और दूसरों को समझाता भी है. वैसे ‘रुस्तम’ में कुमुद मिश्रा साब एकलौते ऐसे कलाकार हैं, जिनकी एक्टिंग के रंग फिल्म के दूसरे कलाकारों से कहीं ज्यादा और बेहतर तरीके से खिल के और खुल के सामने आते हैं. पवन मल्होत्रा और कंवलजीत सिंह उनके बाद आते हैं.

अंत में; ‘रुस्तम’ एक बहुत ही थकी हुई फिल्म है, जो सिर्फ अक्षय कुमार की उस एक छवि का भरपूर फायदा उठाने के लिए बनाई गयी है, जिसमें वो अपने सस्ती, बेसिर-पैर की कॉमेडी से अलग कुछ संजीदा देने का दम भरते हैं. नायक कहानी में बड़ा हो, चलेगा! कहानी से बड़ा हो जाए? ये खतरनाक संकेत हैं. आखिर, एक और सलमान किसे चाहिए? [1.5/5]        

मोहेंजो दारो: कहो ना ‘बोर’ है! [2/5]

इतिहास के पन्नों में झांकना अपने आप में मनोरंजन से कम नहीं है. हज़ारों कहानियां, और हर कहानी में विस्मयाधिबोधक घटनाओं की भरमार; बशर्ते आपमें तथ्यों को नज़रअंदाज़ करने और घटनाओं की सत्यता पर प्रश्नवाचक चिन्ह न लगाने की सहनशीलता भारी मात्रा में हो. और फिर आशुतोष गोवारिकर की ‘मोहेंजो दारो’ तो बस एक आम सी बॉलीवुड फिल्म है जिसका वास्तविक इतिहास से उतना ही लेना देना है, जितना आपका और हमारे जैसे कम-पढ़ाकू जानकारों का, जिनको बात-बात में गूगल-देव की सेवाएं लेने में रत्ती भर भी झिझक नहीं होती. अगर आपने स्कूल की इतिहास की किताब में सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में वो एक 6-8 पन्नों वाला चैप्टर भी ध्यान से पढ़ा होगा, तो आपको अंदाजा हो जायेगा कि ‘मोहेंजो दारो’’ के साथ, गोवारिकर आपको 2016 से 2016 ईसापूर्व में ले तो गए हैं, पर बॉलीवुड के घिसी-पिटी और बेरस कहानी कहने के फार्मूले को यहीं छोड़ना भूल गए.

नगर बुरे लोगों के चंगुल में है. कभी खुशहाली बसती थी यहाँ, मोहेंजो दारो में, अब झूठ, छल और ठगी का व्यापार होता है. आम लोगों पर मनमाने करों का बोझ लादा जा रहा है. ऐसे में, एक बाहरी साहसी नवयुवक सरमन [ह्रितिक रोशन] नगर में आता है. उसे लगता है उसका कोई पुराना रिश्ता है इस नगर से. यहीं उसे अपनी संगिनी भी मिलती है, चानी [पूजा हेगड़े], जिसे पाने की कोशिश उसे नगर के प्रधान महम [कबीर बेदी] और उसके बेटे मूंजा [अरुणोदय सिंह] के सामने ला खड़ी करती है. सरमन अब जन-जन की आवाज़ बन चुका है. पर अभी और भी कुछ राज हैं, जो उसके सामने खुलने बाकी हैं. उसका इस नगर से क्या वास्ता है? उसका अपना अतीत और नगर का भविष्य दोनों एक ही धागे के दो छोर हैं, पर उलझे हुए. फिल्म का अंत सब सवालों का हल लेकर आता है, पर अहम् सवाल ये है कि इस औसत दर्जे की कहानी को मोहेंजो दारो के ऐतिहासिक चमक-दमक का चोला पहनाने की जरूरत क्या थी?

पीरियड फिल्मों में ‘मोहेंजो दारो’ गोवारिकर की सबसे कमज़ोर फिल्म है. ऐसा नहीं है कि आशुतोष आपको सिंघु घाटी के नज़दीक ले जाने में कोई चूक करते हैं, पर इस बार न तो उनके पास ‘लगान’ जैसा ड्रामा है, न ही ‘जोधा-अकबर’ जैसा शानदार स्केल. फिल्म अपने रोचक, पर बनावटी और कुछ ज्यादा ही अलबेले कॉस्टयूम डिज़ाइन से आपका ध्यान कहानी की गंभीरता (?) से भटकाती रहती है. फिल्म में इस्तेमाल हुए विजुअल ग्राफ़िक्स का औसत स्तर भी फिल्म का एक बहुत बड़ा कमज़ोर पक्ष है. ‘सपने’ को ‘सपीने’, ‘सवाल’ को ‘सुवाल’ जैसे उच्चारण के साथ, आशुतोष उस वक़्त की बोलचाल की भाषा के लिए जिस तरह का प्रयोग करते हैं, वो हास्य उत्पन्न करने के लिए तो सटीक लगता है, पर वास्तविकता से उसको जोड़ने में भरोसेमंद साबित नहीं होता. आर रहमान का संगीत ही है, जो एक पल के लिए भी अपने आपको शक के घेरे में खड़ा नहीं होने देता. उनके संगीत में एक तरह का कबायली ‘टच’ है, जो आपको बांधे भी रखता है, और उनसे और उम्मीद करने की छूट भी देता ही.

अभिनय में, नितीश भारद्वाज [बी आर चोपड़ा की ‘महाभारत’ के कृष्ण] एक बिलकुल नए रूप में आपको बहुत अरसे बाद परदे पर देखने को मिलते हैं. ताज्जुब होता है, भारतीय सिनेमा उनसे इतने दिन तक दूर कैसे रह पाया? उन जैसे ही अभिनय-प्रतिभा के कुछ और धनी नरेन्द्र झा और मनीष चौधरी भी फिल्म में दिखाई तो पड़ते हैं, पर महज़ खानापूर्ति के लिए बनी भूमिकाओं में. अरुणोदय सिंह अपनी कद-काठी के साथ अच्छा प्रभाव डालते हैं, अच्छे लगते हैं. कबीर बेदी इस तरह की भूमिकाओं में हमेशा सहज रहे हैं, हालाँकि उनसे बहुत कुछ की उम्मीद करना भूल ही जाईये. पूजा हेगड़े बहुत अलग सी दिखती हैं. उनकी अगली फिल्मों का चयन काफी हद तक उनकी पहचान बनाने में अहम साबित होगा. ह्रितिक पूरी फिल्म अपने कन्धों पर ढोते नज़र आते हैं, पर इस मुकाम पर इस तरह की औसत फिल्मों में उनका होना उनकी सारी मेहनत, कवायद और शख्सियत के लिए शायद एक उल्टा खेल साबित हो.

आखिर में; ‘मोहेंजो दारो’ ऐतिहासिक स्थलों के उस टूर की तरह है, जहां लोकेशन्स अपनी एक अलग कहानी बयां करने की कोशिश कर रहे हैं, पर आपका टूर गाइड रटे-रटाये तरीके से, अपनी सहूलियत के हिसाब से, आपको अपनी गढ़ी हुई एक अलग ही कहानी बताये जा रहा है, जो न तो सच है, न ही रोचक...और कभी-कभी तो बहुत बोर!! [2/5]       

Friday 5 August 2016

चौथी कूट: नए सिनेमा की एक अलग भाषा! [4/5]

80 के दशक का पंजाब दहशत और अविश्वास के माहौल में दबी-दबी सांसें ले रहा है. पुलिसिया बूट पर पॉलिश चढ़ रही है. सरकारी वर्दी गेंहू और गन्ने के खेतों में उग्रवादी खोज रही है. दोनाली बंदूकों की बटों ने बेक़सूर पीठों पर अपने नीले निशान छोड़ने सीख लिए हैं. अपने ही कौम के काले चेहरों से रात और भी भयावह लगने लगी है. कौन किसपे ऐतबार करे? कौन अपनी हद में है, और कौन शक की ज़द में? किसे पता. गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘चौथी कूट’ कहानी कह भर देने की जल्दबाजी नहीं दिखाती, बल्कि कहानी जीने का आपको पूरा-पूरा वक़्त और मौका देती है. आतंक यहाँ सुनसान गलियों के सन्नाटे में पलता है, डरे हुए चेहरों पे चढ़ता है और धीरे, बहुत धीरे, सहमे-सहमे क़दमों से आप तक पहुँचता है. ये एक अलग भाषा है. सिनेमा में एक अलग तरीके की भाषा, जो ठहराव से हलचल पैदा करना चाहती है, और इस बेजोड़ कोशिश में बखूबी कामयाब भी होती है.

पंजाबी के बड़े कहानीकार वरयाम सिंह संधू की कहानियों पर पैर जमाये, गुरविंदर सिंह की ‘चौथी कूट’ शुरू होती है फ़िरोजपुर छावनी रेलवे स्टेशन से. पुलिस की गश्त चप्पे-चप्पे पर है. चंडीगढ़ से अमृतसर लौट रहे दो हिन्दू सहयात्रियों की ट्रेन छूट गयी है. एक ट्रेन आई तो है पर उसे अमृतसर तक खाली ले जाने का आदेश है. इसी बीच एक सरदारजी भी उन दोनों की जरूरत में साझा करने आ गए हैं. तय हुआ कि गार्ड के डिब्बे में बैठकर जाया जा सकता है. गार्ड की आनाकानी के बावजूद, तीनों अब जबरदस्ती ट्रेन पर सवार हैं. डब्बे में पहले से और भी यात्री मौजूद हैं. सबके चेहरे सपाट हैं, सुन्न हैं, शून्य हैं. सब एक-दूसरे को पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. ‘नहीं जानने’ और ‘जान लेने’ के बीच अविश्वास की एक लम्बी-चौड़ी खाई है. ये डब्बा ‘डर’ का डब्बा है. इससे निकलने के बाद ही इससे ‘निकलना’ मुमकिन हो शायद!

इसी पंजाब के किसी दूसरे हिस्से में, कुछ सहमे कदम रास्ता भूल गए हैं. रात गहरी है. गाँव की लड़की पति और बच्ची के साथ घर आ रही है. सामने के खेतों में एक घर तो है. मदद माँगने का जोखिम लें? संशय और खौफ का दबदबा यहाँ भी काबिज़ है. दरवाजे के बाहर भी, दरवाजे के अन्दर भी. घर में एक कुत्ता है. अपनी कौम के लिए लड़ने वालों ने पहले ही चेताया है, कुत्ते को मारो या दूर छोड़ आओ. रातों में इसका भौंकना मुखबिरी से कम नहीं. रात को अपनी ‘कौम’ वाले तो दिन में बूट ठोकते जवान, पंजाब के लिए तय करना मुश्किल हो रहा है कि कौन कम वहशी है, कौन ज्यादा?

पिछले साल मुंबई फिल्म फेस्टिवल (MAMI) में कोलंबियन फिल्म ‘लैंड एंड शेड’ देखी थी. कैमरा और साउंड जिस ख़ूबसूरती से उस फिल्म के परिदृश्य में रची-बसी खुशबू, गीलापन और किरकिराहट आप तक छोड़ जाते हैं, ‘चौथी कूट’ उसी प्रयोग की एक बार और याद दिला देती है. काले बादलों घिर रहे हैं, तेज़ हवा फसलों को झकझोर रही है. खेत के बगल से गुजरने वाले रस्ते पर धूल का एक मनचला गुबार लोटते-पोटते कैमरे की ओर बढ़ रहा है. बारिश की बौछार आपके चेहरे तक पहुंच रही है. बारिश के बाद भी, शीशे जैसी साफ़ बूँदें पत्तों के किनारे पकड़ कर अभी भी लटकी हुई हैं. सत्या राय नागपाल कुछ तो ऐसे अप्रतिम दृश्य बनाते हैं, जिन्हें आपने परदे पर पहले कभी इतनी चाव से जिया नहीं होगा. हालाँकि कुछ एक बार उनके प्रयोग आपको चौंकाने में नाकामयाब रहते हैं, जैसे एक दृश्य में कैमरा अचानक जमीन चाटने लगता है तो आपको यह जानने में कोई बहुत दिक्कत नहीं होती कि अब किरदार गिरने वाला है.

आखिर में; ‘चौथी कूट’ आपको किसी तय मुकाम तक लेकर जाने का दावा पेश नहीं करती, बल्कि बड़ी सफाई से आपको उसी रास्ते पर छोड़ देती है, जहां से आपके लिए मंजिल तक पहुंचना मुश्किल नहीं रह जाता. बहुत कम फिल्में होती हैं, जिनकी जबान कम बोलते हुए भी बहुत कुछ कह जाती है. बहुत कम फिल्में मिलती हैं, जिनकी जबान में एक नया स्वाद होता है. ‘चौथी कूट’ उसी कड़ी में बड़ी मजबूती से खड़ी मिलती है. [4/5]               

बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन: फिल्मों में स्पोर्ट्स बहुत देखा, अब एक ‘सच्ची’ स्पोर्ट्स फिल्म देखिये! [4/5]

5 साल का बुधिया 70 किलोमीटर के मैराथन दौड़ में 40-45 किलोमीटर पार कर आया है. उसे प्यास लग रही है. साथ-साथ साइकिल पर चल रहे अपने ‘कोच सर’ को इशारा कर रहा है. कोच सर उसे पानी तक पहुँचने भी नहीं दे रहे. आपका दिल बैठा जा रहा है. आपके मन में कोच सर के लिए बेदिली बढ़ती जा रही है, पर कोच सर के माथे पर कोई शिकन नहीं. क्योंकि उन्हें बुधिया की प्यास से ज्यादा फ़िक्र है बुधिया के भूख की. भूख दौड़ने की. भूख गरीबी, मुफलिसी और मायूसी के दलदल से निकल कर अपनी पहचान कायम करने की. भूख एक जोड़ी जूतों और एक लाल रंग के साइकिल की.

यूँ तो कहने को खेल और खिलाड़ियों की ज़िन्दगी पर बनी दर्जनों हिंदी फिल्में आपके जेहन में घूम रही होंगी, पर सोमेन्द्र पधि की ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ बिना किसी शक अब तक की सबसे अच्छी ‘स्पोर्ट्स फिल्म’ मानी जानी चाहिए. हालाँकि इस फिल्म में ‘आगे क्या होगा’ वाला रोमांच कम है, मैच के आख़िरी पलों में गोल दाग कर या छक्का मार कर टीम जिताने वाला हीरो भी कोई नहीं है, और ना ही फिल्म की सफलता के लिए ‘देशभक्ति’ का बनावटी छौंका लगाकर आपके अन्दर के ‘भारतीय’ को जबरदस्ती का झकझोरने की कोशिश. ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ फार्मूले से अलग एक ऐसी ‘स्पोर्ट्स’ फिल्म है, जो सिर्फ सतही तौर पर खेल से जुड़े रोमांच को भुनाने की कोशिश नहीं करती, बल्कि उसके पीछे की मेहनत-मशक्कत, लगन और मुश्किलातों को सच्चे मायनों में आपके सामने उसकी असली ही शकल-ओ-सूरत में पेश करती है.

जूडो कोच बिरंची दास [मनोज बाजपेयी] झुग्गी-झोपड़ियों के गरीब अनाथ बच्चों को अपने ही घर पर रख कर उन्हें जूडो सिखाते हैं. 850 रूपये में एक नशेडी को बेचे गए बुधिया [मयूर महेंद्र पटोले] के लिए भी बिरंची दास एक भले मददगार की तरह ही सामने आते हैं, पर बुधिया के लिए उनके पास कोई अलग, कोई ख़ास प्लान नहीं है. ऐसे में एक दिन, दौड़ने के लिए उसका जूनून देखकर दास को जैसे न सिर्फ उसकी बल्कि अपनी भी ज़िन्दगी का मकसद साफ़ दिखाई देने लगता है. बुधिया दौड़ेगा, और सिर्फ दौड़ेगा. मैराथन दौड़ेगा, ओलंपिक्स में दौड़ेगा, बस दौड़ेगा. मासूम बुधिया की ललक और जज्बाती बिरंची दास की सनक साथ मिलकर पूरे देश के खिलाडियों के लिए मिसालें कायम कर रही है, कि अचानक शुरू होता है राजनीतिक सत्ता और बेरहम सिस्टम का सर्कस!  

सोमेन्द्र पधि की ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ आपका दिल चीर के रख देगी, जब आप सिस्टम को बुधिया और उसके सपनों के बीच खड़ा पायेंगे. बाल कल्याण समिति की खोखली दिलचस्पी से खिन्न, बेबाक बिरंची एक जगह बोल भी पड़ते हैं, “ओड़िसा में हर दिन एक बच्चा भूख से मर रहा है. भूख से मरने से तो अच्छा है दौड़ कर मरे!”. बुधिया सिंह के दौड़ने पर बैन लगा दिया जाता है, और आज 10 साल बाद भी उसके ओलंपिक्स में दौड़ने के सपने को भारत सरकार ने जंजीरों से बाँध रखा है. अफ़सोस, आज कोई बिरंची दास उसके साथ, उसके पास नहीं है!  

बेहतरीन डायरेक्शन, सिनेमेटोग्राफी, एडिटिंग और म्यूजिक के बीच, फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष उभर कर आता है उसके किरदारों में बखूबी ढलते कलाकार. मनोज बाजपेयी ने तो मानो एक अलग ही मुहीम छेड़ रखी है. एक वक़्त था, जब अर्थपूर्ण फिल्मों को ‘पैरेलल सिनेमा’ का नाम दिया जाता था, मनोज जिस तरह की फिल्मों [अलीगढ, ट्रैफिक और अब बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’] को अपना नाम दे रहे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर हिंदी सिनेमा के लिए नहीं, तो कम से कम अपने लिए ही सही वो एक ऐसे ही ‘पैरेलल मूवमेंट’ ही शुरुआत कर चुके हैं. उनके बिरंची में आपको सामान्य कुछ भी नहीं दिखता. ये वो गुरु नहीं है, जिसके लिए हर वक़्त आप नतमस्तक दिखें. उसकी नीयत पर भले ही आपको कोई शक-ओ-शुबहा न हो, उसे रूखे रवैये और तीखे तरीके आपको ज़रूर विचलित कर देंगे. बुधिया के किरदार में मयूर महेंद्र पटोले का चयन एकदम सटीक है. ‘हगा और भगा’ जैसे मासूम पलों में वो और भी कामयाब दिखते हैं.

अंत में; एनडीटीवी के हालिया इंटरव्यू में 15 साल के बुधिया को सुनते-देखते एक बात का एहसास बहुत दुःख के साथ होता है कि कैसे हमने, हमारी निकम्मी व्यवस्था, हमारी नौकरशाही ने एक प्रतिभा को पंगु बना रख छोड़ा है, कैसे एक जोशीले, ज़हीन और ज़ज्बाती इंसान के सपने को खंजर बना कर हमने उसी के सीने में उतार दिया. ‘बुधिया सिंह- बॉर्न टू रन’ एक टीस की तरह आपके दिल में काफी वक़्त तक दबी रह जायेगी. [4/5]