Friday 28 July 2017

राग देश: देश का राग, अपने असली सुर में! [3/5]

देशभक्ति में ओत-प्रोत बहुत सारी फिल्में आपको याद होंगी. 'बॉर्डर', 'क्रांति' जैसी कुछ चीख-चीख कर दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाली जोशीली, और कुछेक '1971', 'विजेता' जैसी ठहरी हुई; जिनके रोमांच की बुनियाद सिर्फ और सिर्फ एक दमदार कहानी पर टिकी होती है, जो कभी-कभी इतिहास की क्लास जैसी उबाऊ भी लग सकती है, पर कहानी कहते वक़्त ईमानदार बने रहने की कोशिश कभी नहीं छोड़तीं. तिग्मांशु धूलिया की 'राग देश' जैसे किसी केस-फ़ाइल की तरह, पूरी तरह जाँची-परखी और एक संतुलित-संयमित देशभक्ति फिल्म है. उम्मीद ये कतई ना करें कि यहाँ आपका हीरो अकेले दुश्मन के ऊपर टूट पड़ेगा, ना ही कि जंग की मुश्किल घड़ियों में पर्स टटोलेगा और प्रेमिका की फोटो पर उंगलियाँ फिराते हुए गाना गाने लगेगा. 

'राग देश' इतिहास के किसी जरूरी चैप्टर की तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आज़ाद हिन्द फौज़ और उससे जुड़े 3 ख़ास सेनानियों पर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा चलाये जाने वाले देशद्रोह के मुकदमे का परत-दर-परत ब्यौरा पेश करता है. दूसरे विश्वयुद्ध में जापान के आगे घुटने टेक देने के बाद, बर्मा में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सेना की एक टुकड़ी जापानियों के सुपुर्द कर दी थी. जापानियों की मदद से, आज़ाद हिन्द फौज़ की नींव वहीँ पड़ी और धीरे-धीरे बुलंद होती गयी. देश आज़ाद कराने की लड़ाई में अब हिन्दुस्तानियों की ही बन्दूक थी, और हिन्दुस्तानियों का ही सीना. तमाम छोटी-छोटी सफलताओं के बावजूद और नेताजी की असामयिक मृत्यु के बाद, आज़ाद हिन्द फौज बिखरने लगी और अब उसके 3 अधिकारियों मेजर जनरल शाहनवाज़ खान (कुनाल कपूर), लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (अमित साध) और कर्नल प्रेम सहगल (मोहित मारवाह) पर देशद्रोह और मर्डर का मुकदमा चल रहा है. 

फिल्म की शुरुआत में ही, तिग्मांशु धूलिया बड़ी समझदारी से अपनी आवाज़ में 1945 के भारत की तस्वीर पूरी तरह साफ़ कर देते हैं. कोर्ट की प्रक्रिया के साथ-साथ धीरे-धीरे गवाहों के बयानात के ज़रिये, धूलिया आज़ाद हिन्द फौज के गठन और सैनिकों के साथ नेताजी के प्रेरक-प्रसंगों को फ्लैशबैक में पेश करते हैं. धूलिया फिल्म में मनोरंजन का भी ख़ास ख्याल रखते हैं, पर कुछ इस तरह जो अटपटा न हो, और कहानी की गंभीरता से बहुत ज्यादा अलग भी नहीं. कर्नल सहगल के पिता (कंवलजीत सिंह) पंडित नेहरु से वकील बदलने की बात कर रहे हैं, नेहरूजी का जवाब आता है, "कहीं आपका इशारा मेरी तरफ तो नहीं?", सहगल साब साफ़ मना कर देते हैं, "आप राजनीतिक मामलों में तो ठीक है, पर सेना के मामलों में आपके पास ज्यादा कुछ अनुभव नहीं है". इसी तरह कर्नल प्रेम सहगल की हाज़िर-जवाबी और अंग्रेजों के साथ लेफ्ट. कर्नल ढिल्लों की नोक-झोंक रह-रह कर आपको गुदगुदाती रहती है. कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (मृदुला मुरली) के साथ कर्नल प्रेम सहगल के प्रेम को परदे पर कम ही वक़्त मिल पाता है. 

'राग देश' की खासियत है उसका रिसर्च-वर्क, जो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने के बजाय ज्यों का त्यों सामने धर देता है, चाहे उसे जानने में आपकी कोई मंशा हो, न हो. फिल्म के किरदार अगर पंजाबी, जापानी, ब्रिटिश हैं तो वे अपनी ही भाषा में बात करते हुए सुनाई देते हैं. फिल्म न सिर्फ विवादास्पद प्रसंगों से बचती है, बल्कि नेताजी के कुछ बहुत ही भावुक पलों को बड़ी ख़ूबसूरती से सामने रखती है, जो आज के वक़्त में प्रासंगिक भी हैं, और प्रेरणास्पद भी, जैसे बर्मा में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की कब्र पर चादर चढ़ाते हुए वादा करना कि एक दिन आपको हिंदुस्तान लेकर जायेंगे, जैसे मंदिर से दर्शन के बाद निकलते हुए माथे से तिलक का निशान मिटाना ताकि देश की लड़ाई में किसी एक धर्म की हिस्सेदारी न लगे. कास्टिंग में कुनाल, अमित और मोहित एकदम ठीक-ठीक हैं, अन्य कलाकारों में केनेथ देसाई मजेदार हैं.

आखिर में; 'राग देश' ऐसे मुश्किल वक़्त में जब देशभक्ति को लेकर सबके अपने अपने पैमाने हैं, आज़ादी की लड़ाई की एक सच्ची कहानी, एक सच्ची घटना को पूरी शिद्दत और नेकनीयती से सामने रखती है. मसाले कम हैं, तो थोड़ी बोरियत और सूनापन जरूर घेरने की कोशिश करेगा; मगर फिल्म की तमाम अच्छाइयों के बीच इसे नज़रंदाज़ करना इतना मुश्किल नहीं. [3/5]

इंदू सरकार: पॉलिटिकल थ्रिलर के नाम पर नौटंकी! [2/5]

मधुर भंडारकर की फिल्मों को ठीक-ठीक पढ़ने का दावा अगर आप कर पाते हों, तो आपके लिए समझना तनिक मुश्किल नहीं होगा कि 'इंदू सरकार' एक जान-बूझ कर रची गयी नौटंकी भर से ज्यादा कुछ नहीं है. पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी और उनके अक्खड़ और बदतमीज़ मिज़ाज सुपुत्र संजय गांधी के तानाशाही आपातकाल को पृष्ठभूमि बनाकर भंडारकर एक ऐसी ढीली-ढाली कहानी रचते हैं, जो नीरस तो है ही, ज्यादातर मौकों पर नुक्कड़ नाटक देखने जैसा महसूस कराती है. फ़िल्म के शीर्षक से ही भंडारकर की नीयत साफ़ हो जाती है. 'इंदू सरकार' आपको सुनने में जरूर 'इंदिरा सरकार' की तरफ धकेलती हो, पर है वास्तव में एक ऐसी लड़की की कहानी, जिसका नाम इंदू सरकार के बजाय मंजू, सीता, गीता कुछ भी हो सकता था. उस पर से ठिठोली ये कि इंदू का असली संघर्ष, उसकी ज़िंदगी का असली सफ़र शुरू ही तब होता है, जब वो अपने नाम से 'सरकार' हटाने का फैसला कर लेती है. हालाँकि 'इंदू सरकार' कम से कम भंडारकर साब की उन छिछली फिल्मों जैसी कतई नहीं है, जिनमें वो समाज के अलग-अलग वर्गों को 'अन्दर से' जान लेने का कोरा झूठ परोसते हैं. 

इंदू (कीर्ति कुलहारी) कवितायें लिखना चाहती है. बोलने में हकलाहट की वजह से भी कविताओं में ही उसे अपनी आवाज़ साफ़ सुनाई देती है. पति (तोता रॉय चौधरी) सरकारी अफसर है और इमरजेंसी के दौर में अपनी पोजीशन और ऊंची पहुँच के बेज़ा इस्तेमाल से हर मुमकिन तरक्की पाने के लिए कुछ भी कर सकता है. इंदू एक अच्छी बीवी बनकर खुश है, पर तभी उसे झुग्गी-झोपड़ी खाली कराने के लिए की गयी पुलिस की ज्यादती में, अपने परिवार से बिछड़े दो बच्चे मिलते हैं. इंदू को जैसे-जैसे इमरजेंसी की त्रासदी का अंदाजा होता जाता है, उसकी जिंदगी को मकसद भी मिलने शुरू हो जाते हैं. और फिर शुरू होती है सिस्टम और सरकार के खिलाफ इंदू सरकार की बग़ावत! 

एक आम, अनाथ लड़की इंदू की कहानी कहते वक़्त जहां भंडारकर जरूरत से ज्यादा नाटकीय हो जाते हैं, वहीँ इमरजेंसी के खलनायकों को परदे पर पेश करते वक़्त उनकी सारी ललक, उनका सारा रोमांच इतना दकियानूसी हो जाता है कि हंसी आने लगती है. देखने-लगने में नील नितिन मुकेश को संजय गांधी के एकदम आसपास तक ला कर खड़े कर देने की बात हो, या उनके चापलूसों की लिस्ट में जगदीश टाइटलर जैसे दिखने वालों को भांड की तरह हर फ्रेम में खड़े दिखा देना; भण्डारकर इससे ज्यादा कुछ सोच नहीं पाते, इस से ज्यादा कुछ (इतिहास के पन्नों से) खोज नहीं पाते. हाँ, कव्वाली और 'स्पेशल 26' के बैकग्राउंड म्यूजिक पर नकली रोमांच पैदा करने की पूरी कोशिश करते हैं.   

फिल्म में इमरजेंसी के मुश्किल हालातों को बयाँ करने के लिए जिस तरह के संवादों और प्रसंगों का सहारा लिया जाता है, आज के हालातों पर एकदम सटीक बैठते हैं. किशोर कुमार को ऑल इंडिया रेडियो से बैन करने पर एक नाई फट पड़ता है, "अब हम क्या सुनें, क्या नहीं, वो भी सरकार तय करेगी?" कुछ याद आया? 'ब' से बीफ?? इसी तरह, एक मंत्री बड़े ऊंचे स्वर में नारा लगा रहे हैं, "ये देश नहीं रुकने वाला, ये देश नहीं झुकने वाला". फिर कुछ याद आया? 56 इंची मोदीजी की चुनावी  दहाड़ 'मैं देश नहीं झुकने दूंगा"?? यहाँ तक कि कोर्ट में इंदू भी वकील साब को टोकते हुए कहती है, "सरकार-विरोधी हूँ, देश-विरोधी नहीं". भंडारकर खुद भाजपाई नीतियों और मोदी सरकार से बिना शर्त इत्तेफ़ाक रखने वाले फिल्मकार माने जाते हैं, ऐसे में समझ नहीं आता कि फिल्म का ऐसा रुख भंडारकर साब की दिलेरी और दिलदारी है, या निपट बेअकली? जिस डाली पर बैठे हैं, उसी पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा अपराध नज़र आता है मुझे तो. इसी तरह इंदिरा गांधी सरकार पर किये गए उनके सारे तंज, उनके सारे प्रहार एक एक कर बूमरैंग (वो जो फेंकने के बाद लौट कर वापस आपके पास ही आ जाये) की तरह मोदी सरकार की पीठ पर लगते हैं.

कहाँ तो भंडारकर साब के पास मौका था, इमरजेंसी के काले इतिहास को कुरेद-कुरेद कर इंदिरा गांधी और संजय गांधी की पोल-पट्टी खोल देने का, पर शायद इस सरकार से राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के लिए इतना ही काफी था. गुलज़ार साब की 'आंधी' आप सिर्फ इसलिए बार-बार नहीं देखते क्यूंकि सुचित्रा सेन इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं? खैर, इतनी सी बात समझने के लिए मधुर भंडारकर के पास वक़्त कहाँ है? जेपी (जयप्रकाश नारायण) मूवमेंट की तर्ज़ पर सरकार से लोहा लेते हुए नानाजी की भूमिका में अनुपम खेर फरमाते हैं, "देश की एक बेटी ने आज देश को बंधक बना रखा है". सिनेमा भी भंडारकर जैसों के हाथों उसी दौर से गुज़र रहा है. [2/5] 

Friday 21 July 2017

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का: औरतों के 'सीक्रेट सपने' [3.5/5]

मुझे रत्ती भर समझ नहीं आता कि किसी (पहलाज निहलानी) भी थोड़े-बहुत समझदार आदमी को अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' से क्या परेशानी हो सकती है? ओह, याद आया. खिड़कियाँ खुलने लग सकती हैं. दरवाजों पर 'खोलो, खोलो' की थाप और मज़बूत होने लग सकती है. 'हाँ', 'हूँ', 'ह्म्म्म' और 'ठीक है' में ख़तम हो जाने वाले लाचार जवाब, आकार बदलकर सुरसा के मुंह की तरह निगल जाने वाले भयानक सवाल बनने लग सकते हैं. सुनाने का दंभ छोड़ना पड़ सकता है, सुनने की आदत डालनी पड़ सकती है. परेशानी तो है. पहाड़ जैसी भारी-भरकम पुरुषवादी सोच के अस्तित्व पर 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' जैसे एक कड़कती बिजली बन के टूट पड़ती है. पहाड़ टूटे न टूटे, हिलने तो ज़रूर लगता है. अपने-अपने दौर में तमाम प्रशंसनीय फिल्में हैं, जिन्होंने परदे पर औरतों को मर्दों का 'साज़-ओ-सामान' बनाकर पेश करने से अलग, उन्हें खालिस औरत समझ कर उनकी निजी आशाओं-अपेक्षाओं और अधिकारों को तवज्जो दी. इस दौर की वैसी ही एक बेहद ज़रूरी फिल्म है, 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का', जो बड़ी दिलेरी से अपने हक का सवाल पूछती है, "आखिर आप हमारी आजादी से इतना डरते क्यूँ हैं?" पूछते वक़्त किरदार कैमरे के ठीक सामने खड़ा है. सवाल आप ही से है, आप सभी से, हम सभी से. 

बुआजी (रत्ना पाठक शाह) भजन-कीर्तन की उम्र में छुप-छुपा कर 'मसालेदार कहानियों' का मज़ा लेती हैं. उनकी कहानी की नायिका रोज़ी भी उन्ही की तरह प्यार ढूंढ रही है. महज़ आँखों-आँखों वाला प्यार नहीं, वो जिसमें कोई बंदिशें न हों, लाज-लिहाज़ न हो, वो जिसमें बेरोक-टोक जिस्मों के उतार-चढ़ाव नापे जा सकें. बुआजी विधवा हैं, ऊपर से उनकी उम्र; बाहर पैर रखना हो तो सत्संग के अलावा कोई और दूसरा बहाना भी क्या ही हो सकता है? रत्ना पाठक शाह इस किरदार की शर्म, झिझक, कसक और लालसा को चेहरे पे बखूबी पोत लेती हैं, और फिर जब एक के बाद उतारना शुरू करतीं हैं, तो आप के पास वाहवाही करने के अलावा कुछ और बचता नहीं. 

भोपाल के उसी तंग मोहल्ले में और भी 'रोज़ी'यां हैं. सब की सब एक दिन उड़ने का सपना पलकों में दबाये जिये जा रही हैं. 4 बच्चों की माँ शीरीन (कोंकणा सेन शर्मा) दिन में एक डोर-टू-डोर मार्केटिंग कंपनी में 'टॉप' सेल्सगर्ल है, पर घर में उसकी रातें अक्सर बिस्तर में पति के 'नीचे' घुटते-दबते-पिसते ही कटतीं हैं. पति (सुशांत सिंह) की मर्दानगी कंडोम न पहनने से लेकर दुबई से 'जब भी आना, एक बच्चा देकर जाना' तक के बीच ही सीमित रहती है. पास के पार्लर में वैक्सिंग कराते हुए लीला (आहना कुमरा) पूछ लेती है, "कभी प्यार से नीचे नहीं छूता न वो तुम्हें? कभी किस भी किया है?" शीरीन कराह पड़ती है, "सब जानती हो, तो पूछती क्यूँ हो?". कोंकणा की तड़प देखनी हो, तो उनके क्लिनिक वाले दृश्य को देखिये, जब वो अपने पति के कंडोम न पहनने की आदत को 'वो ज़ज्बातों में बह जाते हैं' कहकर छुपाने की कोशिश कर रही हैं. 

लीला (अहना कुमरा) की सगाई हो रही है. उसकी मर्ज़ी के बिना. सगाई की रात ही वो अपने विडियो-फोटोग्राफर प्रेमी (विक्रांत मैसी) के साथ एमएमएस बना रही है, "हरामी, स्साले! धोखा दिया ना, तो फेसबुक पे डाल दूँगी". लीला का सपना है, अपना खुद का बिज़नेस ताकि उसकी माँ को पैसे के लिए आर्ट-स्टूडेंट्स के सामने न्यूड पेंटिंग्स का 'मॉडल' न बनना पड़े. अहना बड़ी बेबाकी से अपना किरदार निभाती हैं, और अपने दृश्यों में एक ख़ास तरह की एनर्जी ले आती हैं. फिल्म में एक स्टूडेंट रिहाना (प्लबिता बोर्थाकुर) भी है. कॉलेज के मोर्चे में  'जीन्स का हक दो, जीने का हक दो' का झंडा बुलंद करती है, बैंड में माइली सायरस के गाने गाने गाती है, पर घर लौटने से पहले 'सुलभ शौचालय' में जाकर बुर्का पहनना नहीं भूलती. अब्बू की सिलाई की दुकान है, थोक में बुर्के सिलते हैं. उनकी ही बेटी बुर्का न पहनने, क़यामत न हो जायेगी, जैसे बेटी नहीं, उनके बुर्कों की 'ब्रांड-एम्बेसडर' हो.   

फिल्म अपनी पृष्ठभूमि तंग शहर भोपाल की ही तरह, अलग-अलग वर्ग की औरतों के उन तमाम मसअलों से ढूंस-ढूंस कर भरी पड़ी है, जिनपे चर्चा करने से हम मर्द भागते रहते हैं. प्यार, उम्मीदें, ज़ज्बात, जिस्मानी जरूरतें, बंदिशें, पहरे और वो सब जिनसे मिलकर एक लफ्ज़ बनता है, 'आजादी'. आज़ाद होने का, हदों को लांघने और बन्धनों को तोड़ने का ख़याल अलंकृता बड़ी चतुराई से फ्रेम-दर-फ्रेम अपनी फिल्म में पिरोती रहती हैं. परदे पर ऐसे कई सारे दृश्य हैं, जो आपको विचलित करने के लिए काफी हैं. लीला का एमएमएस वाला दृश्य हो, बुआजी का उनके स्विमिंग ट्रेनर के साथ फ़ोन-सेक्स या फिर शीरीन का पार्लर वाला दृश्य; 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' परदे पे खुलने में थोड़ी भी झिझक नहीं दिखाती. हालाँकि कुछ गिनती के दृश्य जाने-पहचाने, देखे-दिखाए जरूर हैं, मसलन बुआजी का पहली बार मॉल में एस्केलेटर पर चढ़ना. एक बात और, यहाँ के मर्दों से कुछ भी अच्छा उम्मीद करना आपकी बेवकूफी होगी. फिल्म इस मामले में थोड़ी तो कंजूस और दकियानूसी होने का सबूत देती है.

आखिर में; 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' एक कोशिश है कि आप औरतों की शख्सियत का वो पहलू भी देख पायें, जहां उनकी पहचान माँ, बेटी, बहन, बीवी से अलग हटकर सिर्फ और सिर्फ एक औरत होने की है. मर्दों के बदलने का इंतज़ार छोड़िये, अगर फिल्म देख कर औरतें भी अपने आप और अपनी ख्वाहिशों के लिए कदम बढ़ाने की हिम्मत जुटा पायें; समझिये लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' की कामयाबी वहीँ कहीं मिलेगी. फिल्म के आखिर में चारों अहम् किरदार (बुआजी, लीला, शीरीन, रिहाना) तमाम गहमा-गहमी के बीच एक कमरे में बैठ कर रोज़ी की कहानी का अंत पढ़ने में मशगूल हो जाते हैं; कोई क्रांति नहीं आती, कोई भूचाल नहीं आता. वो आपको करना है, और अगर आप पहलाज निहलानी नहीं हैं, तो ये ज्यादा मुश्किल भी नहीं है. [3.5/5]    

Friday 14 July 2017

जग्गा जासूस: गलतियों वालीं 'म्यूजिकल', रनबीर 'मैजिकल'! [4/5]

खलनायक का पीछा करते-करते अचानक से खेतों में खड़ा प्लेन मिल जाये, और आपको इत्तेफाक़न चलाना आता भी हो क्यूंकि आपने लाइब्रेरी में पढ़ा था; सामने गुण्डे बन्दूक ताने खड़े हों और आप नाचने लग जाएँ, इतना कि फर्श टूट जाये और आप निकल भागें; या फिर कि आप लकड़ी के बड़े से डार्टबोर्ड पर बंधे हों, ख़ूनी कातिल आप पर चाक़ू से निशाना साध रहा हो, और पहिये की तरह लुढ़कते-लुढ़कते वही डार्टबोर्ड नदी में नाव की तरह बहने लग जाये, जिंदगी इतनी आसान तो दादी-नानी की परी-कथाओं में ही होती है, या फिर कॉमिक बुक्स किरदारों के साथ. अनुराग बासु की 'जग्गा जासूस' इन दोनों ही खांचों में फिट बैठती है, पर इतनी ही आसान होते हुए भी, इतनी भी आसान फिल्म नहीं है. खास कर तब, जब उसके तकरीबन सारे ख़ास कलाकार अपनी बात गा कर कहते हों. 

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में 'म्यूजिकल' फिल्में उन्हीं को कही जाती हैं, जिनमें 8-10 प्लेबैक गाने हों; पूरी फिल्म गीतों में और गीतों के जरिये ही बयान की जाये, हिंदी फिल्मों में कम आजमाया हुआ नुस्खा है. अनुराग इस तरह का प्रयोग करने की हिम्मत पूरे जोश-ओ-ख़रोश से दिखाते हैं, और इन हिस्सों में ख़ासा कामयाब भी रहते हैं, पर फिल्म की भटकाऊ कहानी और थकाऊ लम्बाई उनके इस जोश-ओ-ख़रोश को ठंडा कर देती है. देखने और सुनने में 'जग्गा जासूस' अनुराग की पिछली फिल्म 'बर्फी' की तरह ही बेहद खूबसूरत तो है, पर मिठास में कहीं न कहीं कम पड़ जाती है. 

जग्गा (रणबीर कपूर) अनाथ है, हकलाता है. बचपन में एक दिन उसने एक घायल आदमी को मरने से बचाया था, तब से वही (शाश्वत चैटर्जी) उसके पिता हैं. उन्होंने ही जग्गा को गा-गा कर अपनी बात कहना सिखाया. फिर एक दिन वो जग्गा को छोड़कर चले जाते हैं. अब साल-दर-साल जग्गा के जन्मदिन पर एक विडियो कैसेट भेजते रहते हैं, जिसमें जग्गा से कहने के लिए ढेर सारी बातें होतीं हैं और दुनिया भर की जानकारी. जग्गा अपने कॉलेज का जासूस है, शहर की छोटी-मोटी वारदातों में अपना दिमाग चलाता रहता है, ऐसे में जब एक दिन उसे उसके पिता के मौत की खबर मिलती है, साथ ही मिलती है उसे अपने पिता को खोजने की वजह भी. इस सफ़र में उसके साथ है श्रुति (कटरीना कैफ़)- एक ऐसी 'बैड-लकी' लड़की, जो कुछ ख़ास हालातों में ठीक जग्गा के पापा की तरह ही पेश आती है.  

जहाँ तक फिल्म को खूबसूरत दिखाने की बात है, सिनेमेटोग्राफर रवि वर्मन के साथ मिलकर अनुराग हरेक फ्रेम को एक तस्वीर की तरह पेश करते हैं, एक ऐसी तस्वीर जिसमें रंग जैसे छलक के बाहर आ गिर पड़ेंगे. तकरीबन 3 घंटे की फिल्म में शायद ही कभी आप फिल्म की ख़ूबसूरती को एक पल के लिए भी नज़रअंदाज़ कर पायेंगे. ऐसा ही कुछ रोमांच फिल्म की एडिटिंग भी दिखाती है, जब एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाने के लिए कई तरह के सफल प्रयोग बार-बार, लगातार किये जाते हैं. फिल्म को सही और सच्चे मायनों में 'म्यूजिकल' बनाने के लिए अनुराग की तमाम कोशिशों में 'सब खाना खाके दारू पी के चले गए', जग्गा का उसके पिता के साथ पहला दृश्य और 'तुक्का लगा-तुक्का लगा' जैसे दृश्य बेहतरीन हैं. दिक्कत तब आती है, जब फिल्म के दूसरे भाग में इस तरह के मजेदार (गाने में बातचीत) प्रयोग कम हो जाते हैं, और कहानी में भटकाव ज्यादा आ जाता है. इस हिस्से में इमोशन्स भी दूर-दूर ही मिलते हैं. 

अभिनय में, 'जग्गा जासूस' बिना शक रणबीर कपूर की सबसे मजेदार, मनोरंजक और बढ़िया अदाकारी वाली फिल्मों में शामिल होती है. गिनती में 'बर्फी' और 'रॉकस्टार' के ठीक बाद. हालाँकि उनके किरदार में एक वक़्त बाद एकरसता आने लगती है, पर परदे पर उनका करिश्मा तनिक भी कम नहीं पड़ता. एक-दो डबिंग की गलतियों को छोड़ दें, तो कटरीना यहाँ कम ही शिकायत का मौका देती हैं. जग्गा के पिता की भूमिका में शाश्वत चैटर्जी फिल्म में जरूरी ठहराव लेकर आते हैं और हर दृश्य में अपनी छाप छोड़ जाते हैं. सौरभ शुक्ला के तो कहने ही क्या! इस तरह की भूमिकाओं में एक तरह से महारत ही हासिल है उन्हें. 

आखिर में; 'जग्गा जासूस' को वेस एंडरसन और टिम बर्टन की फंतासी फिल्मों से अलग रखकर देख पायें, तो आपको बॉलीवुड में 'म्यूजिकल' बनाने की एक ईमानदार और दिलेर कोशिश नज़र आएगी, हालाँकि फिल्म कमियों से परे नहीं है. बच्चों की फिल्म में बड़ों के मुद्दे (अंतर्राष्ट्रीय हथियार व्यापार एवं तस्करी), बड़ों की फिल्म में बचकानी हरकतें; 'जग्गा जासूस' अगर दोनों का मनोरंजन भी बराबरी से करती है, तो दोनों को थोड़ा-थोड़ा निराश भी. [4/5]

Friday 7 July 2017

मॉम: साधारण फिल्म में 'असाधारण' श्रीदेवी! [3/5]

रात के गहरे सन्नाटे में एक दैत्याकार काली गाड़ी दिल्ली की सुनसान सड़कों पर चली जा रही है. कैमरा किसी बाज़ या चील के पैरों में कस कर बाँध दिया गया हो जैसे. गाड़ी के ठीक ऊपर, उसी की रफ़्तार में उड़ा जा रहा है. एक तिराहे पर गाड़ी रूकती है, कैमरा भी ठहर गया है. ड्राइविंग सीट से एक आदमी उतर कर पीछे की तरफ चला जाता है. उसकी जगह अब दूसरे ने ले ली है. गाड़ी वापस उसी रफ़्तार, उसी मुर्दई के साथ चल पड़ी है. कैमरा भी. बैकग्राउंड साउंड सुनकर आपका दिल बैठा जा रहा है. आप अच्छी तरह जानते हैं, क्या होने वाला है? क्या हो रहा है? क्या होता आया है? अखबारों में पढ़ते आये हैं, 'चलती गाड़ी में गैंगरेप'. टीवी पर समाचारों में सुनते आये हैं, 'फिर शर्मसार हुई इंसानियत'; वही रटी-रटाई लाइनें, वही थकी-थकाई नाउम्मीदी में लिपटी प्रतिक्रियाएं, 'कोई सेफ नहीं आजकल'. बस्स. लेकिन जिस माकूल अंदाज़ से परदे पर रवि उद्यावर यह पूरा मंजर पेश करते हैं, डर भी लगता है और रोंगटे भी खड़े हो जाते हैं. 

तकलीफ़ की बात ये है कि रवि की ये कामयाबी सिर्फ और सिर्फ उनके 'सिनेमाई कौशल' के हक में गिरती है, और इंटरवल के पहले तक ही प्रभावित कर पाती है, बाकी का सारा आधा हिस्सा किसी बहुत ही औसत 'एक्शन फिल्म' की तरह शुरू होता है और ख़तम हो जाता है. शुक्र है कि इन दोनों, एक-दूसरे से इतने अलग हिस्सों में कोई तो है, जो अपनी खाल एक पल के लिए भी नहीं उतारता. 'मॉम' श्रीदेवी की 300वीं फिल्म है, और उन्हें परदे पर अदाकारी करते देख लगता है कि जैसे उनके लिए 'कट' की आवाज़ का कोई मतलब ही नहीं. एक बार जो किरदार में उतरीं, तो उसे किनारे तक छोड़ आने से पहले कोई 'कट' नहीं. फिल्म में ऐसे दसियों दृश्य हैं, जिनमें श्री जी को देखते-देखते आप किरदार याद रखते हैं, अदाकारी याद रखते हैं, फिल्म भूल जाते हैं. 

देवकी (श्रीदेवी) आर्या (सजल अली) के लिए 'मॉम' नहीं, बस 'मैम' हैं. घर में भी. अपनी पहली माँ को भूली नहीं है अभी वो. 'उसको समझाने की नहीं, समझने की जरूरत है'. देवकी कोशिश कर रही है. आम माओं की तरह अपनी फ़िक्र चीख-चिला कर नहीं बताती, पर देर रात पार्टी के लिए जा रही आर्या को फ़ोन चार्ज रखने के लिए बोलना नहीं भूलती. आर्या घर नहीं लौटी है. सुबह किसी ने उसे सड़क किनारे, नाले में अधमरी हालत में पाया और अब वो हॉस्पिटल में है. कुछ लोगों ने बलात्कार के बाद उसे गला दबाकर मारने की कोशिश की थी. शिनाख्त के बावजूद, 'पर्याप्त' सबूतों के अभाव में सारे अभियुक्त (उनमें से एक मोहित, आर्या की क्लास का स्टूडेंट था) छूट जाते हैं, पर माँ के लिए अभी केस ख़तम नहीं हुआ है. 

रवि उद्यावर अपनी पहली ही फिल्म में बड़े स्टाइलिश तरीके से एक 'इमोशनल थ्रिलर' के सारे हथकंडे आजमा लेते हैं. फिल्म के पहले हिस्से में उनकी समझदारी, उनके सिनेमा से पूरी तरह 'हैण्ड इन हैण्ड' चलती है, चाहे वो स्कूल में मोहित से देवकी का सामना हो, देवकी का आईसीयू में आर्या के सामने फूट-फूट कर रोना हो या फिर लोकल डिटेक्टिव डीके (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) के साथ इंटरवल का वो रोमांचक पल, जहाँ देवकी कहती है, "भगवान् हर जगह नहीं होते, डीके जी" और डीके जवाब देता है, "...इसलिये तो उसने माँ बनाई है". यहाँ तक की पूरी फिल्म जितनी ईमानदारी से थ्रिलर होने का फ़र्ज़ निभाती है, यहाँ के बाद उतनी ही बेशर्मी से कोई आम 'बदले की फिल्म' बन के रह जाती है. नवाज़ुद्दीन का किरदार बेवजह और बेवक्त का हंसी-मज़ाक पेश करने में उलझा दिया जाता है, जबकि इस तरह की फिल्म से उस तरह के हास्य की उम्मीद कोई करता भी नहीं. 'मैं भी अपनी माँ जैसा सिंगर बनना चाहता था' 'आपकी माँ गाती थीं?' 'नहीं, वो भी बनना चाहती थीं'. सच्ची? क्यूँ? 

अभिनय में; सजल अली बलात्कार-पीड़िता आर्या की भूमिका किसी बहुत ही माहिर अदाकारा की तरह पेश आती हैं. श्री जी के बाद वही हैं, जो फिल्म में कहीं कमज़ोर नहीं पड़तीं. अदनान सिद्दीकी (देवकी के पति की भूमिका में) पूरे ठहराव के साथ श्री जी का पूरा साथ देते हैं. नवाज अपने अलग लुक और हंसोड़ अंदाज़ से थोड़े वास्तविकता से दूर जरूर लगते हैं, पर फिल्म आगे चल कर जिस तरह का रुख ले लेती है, मज़ेदार भी लगते हैं. अक्षय खन्ना सिर्फ अपने चिर-परिचित अंदाज़ और स्टाइलिश लुक को ही चमकाते नज़र आते हैं. 

आखिर में, 'मॉम' एक औसत फिल्म है, जिसे श्रीदेवी के रूप में एक ऐसी कलाकार तोहफे में मिल गयी, जिसका आकर्षण, जिसकी अभिनय-क्षमता और कैमरे के साथ जिसके रिश्तों पर उम्र का कोई असर नहीं दिखता. फिल्म औरतों पर होने वाले अत्याचारों की बात ज़रूर करती है, लेकिन बड़े परिदृश्य में 'पिंक' की तरह किसी बड़े मुहिम की तरफ बढ़ने का इशारा भी नहीं करती. 'मॉम' के लिए न सही, श्रीदेवी के लिए देखिये. [3/5]

Wednesday 5 July 2017

Thondimuthalum Driksakshiyum: वो सब, जो बॉलीवुड में 'लापता' है! [4/5]

गिनती की 10-12 फिल्मों और तकरीबन इतनी ही परफॉरमेंसेस को छोड़ दें, तो इंडियन फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा और मेनस्ट्रीम हिस्सा होते हुए भी बॉलीवुड पूरे साल में इतना उत्साहित नहीं कर पाता, जितना क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में बिना शोर मचाये हर महीने कर गुजरती हैं. कहानी कहने की शैली को सिनेमा की भाषा में पिरोने की कला को बारीकी से देखना और समझना हो, तो मलयालम फिल्मों की तरफ रुख कीजिये. मुझे नहीं पता, यहाँ 'स्टार' नाम की प्रजाति पायी जाती है या नहीं, पर कम से कम परदे पर तो सिर्फ असली किरदार और खालिस कलाकार ही दिखते हैं. 

Fahadh Faasil को हम पहले भी Båñglórè Ðäys, 22 Female Kottayam और Iyobinte Pusthakam में बेहद सराह चुके हैं; पिछले साल की Maheshinte Prathikaaram में वो ऐसे सीधे-सादे फोटोग्राफर की भूमिका में थे, जो सरेआम गुंडों से पिट जाता है और अब बदला लेने के लिए तड़प रहा है. यह एक ऐसा किरदार है, जो दस-बारह गुंडों को हवा में उछाल-उछाल कर फेंकने-पटकने और घसीटने की तो छोडिये, एक थोड़े ज्यादा हट्टे-कट्टे आदमी से गुत्थम-गुत्थी में ही हांफने लगता है. Dileesh Pothan की पहली फिल्म थी ये...साल बमुश्किल ही बीता है, और दिलीश अपनी दूसरी फिल्म के साथ हाज़िर हैं, साथ ही हाज़िर हैं फहाद एक बार फिर एक ऐसे किरदार में, जो आस पास का ही है. कभी अपनी ज़मीन नहीं छोड़ता, पर लगातार चौंकता रहता है.  

क़स्बे की सुनसान पगडण्डी पर सरकारी बस हिचकोले खाते चली जा रही है कि अचानक एक शोर से उंघते हुए मुसाफ़िर जग पड़ते हैं. श्रीजा (निमिषा सजायन) और उसके पति (सूरज वेंजारामुदु) का इलज़ाम है कि श्रीजा के ठीक पीछे बैठे प्रसाद (फहाद फ़ासिल) ने उसके गले से सोने की चेन चुरा कर, बचने के लिए निगल ली है. भीड़ से भरी बस अब पास के पुलिस स्टेशन में खड़ी है. मुजरिम अपना जुर्म कबूल नहीं कर रहा, और श्रीजा और उसके पति के पास, घर से भाग के शादी करने के बाद जिंदगी पटरी पर लाने का बस एक ही सहारा है, सोने की वही चेन. तय होता है कि चोर को रात भर वहीँ रखा जाये, खिलाया पिलाया जाये और तब कहीं सुबह जाकर उसके 'नित्य-क्रिया से निपटने' के बाद चेन बरामद की जाये. श्रीजा का पति अब चोर के साथ-साथ पुलिस वालों के लिए भी बिरयानी पैक करा रहा है.

Thondimuthalum Driksakshiyum जिंदगी से पल चुराने में यकीन करने वाली फिल्म है, न कि परदे के लिए उसे अति-नाटकीय बनाकर परोसने वाली. थाने में एक सज़ायाफ्ता रोज पानी भरने के काम के लिए तैनात है. तकरीबन किलोमीटर भर दूर से जब वो दोनों हाथों में भरी हुई बाल्टी लिए, कैमरे के साथ चलता आ रहा है, थकान आपके हाथों और शिकन आपके चेहरे पे भी चढ़ने लगती है. चोर के पीछे भागते भागते श्रीजा के पति का दम फूलने लगा है, प्रसाद में भी अब और भागने की ताक़त नहीं बची. दोनों एक-दूसरे के सामने, फर्लांग भर की दूरी पर बैठे सुस्ता रहे हैं. इतना ही नहीं, फिल्म में भावनाओं के झोंके कुछ इस तरह रह-रह कर बहते हैं कि आप खुद सही-गलत के पाले के बीच झूलते रहते हैं. कभी प्रसाद के तिकड़मी दांव-पेंचों पर हँसते हैं, तो कभी उसके मनमौजी किरदार के साथ हमदर्दी दिखाने से भी गुरेज नहीं करते, और फिर पुलिसिया रवैये से बढ़ती श्रीजा और उसके पति की परेशानियां तो काफी हैं ही दिल कचोटने के लिए.

Thondimuthalum Driksakshiyum की खासियत जितनी उसके किरदारों की सादगी में है, जितनी उसकी कहानी से सरल और सीधे तौर पर लगाव से है, उतनी ही संजीदा और पेचीदा उन किरदारों के ज़ज्बातों के बहाव में है. थिएटर से निकलने के बाद तुरंत बाद मन करे, दोबारा चले चलें, एक बार और सुन लें यही कहानी, एक बार और मिल लें इन्ही किरदारों से; बॉलीवुड ने ऐसी लज्ज़त कितनी बार चखाई है? बहुत कम. मलयालम सिनेमा लगातार अपनी पकड़ बढ़ाता जा रहा है, बॉलीवुड को सीखने के लिए यहाँ बहुत कुछ है. सिनेमा-प्रेमियों को जायके बदलने और बेहतर करने के लिए भी. [4/5]