Saturday 29 September 2018

सुई धागा: उम्मीदों से छोटी, पर बेहद प्यारी! [3/5]


ज़िन्दगी की चादर में उम्मीदों के पैबंद लगाने हों, या दुनिया भर से लड़ते-झगड़ते, उधड़ने लगे छोटे-छोटे सपने को रफ़ू करना हो, तो सुई-धागे का मेलजोल जरूरी हो जाता है. छोटे शहरों की आँखों में पलने वाले मोटे-मोटे सपनों के साकार होने की कहानी हिंदी फ़िल्मी परदे पर न जाने कितनी बार देखी-दिखाई जा चुकी है. शायद इतनी दफ़े कि अब आपको ये जानने में कोई दिक्कत नहीं होती कि ऊंट किस करवट बैठेगा? खुद यशराज फिल्म्स भी ‘बैंड बाजा बारात’ जैसी फिल्मों के साथ इस कामयाब चलन का हिस्सा रहा है. शरत कटारिया की ‘सुई धागा’ यशराज फिल्म्स की ही प्रस्तुति है, और एक बेहद प्यारी फिल्म होने के बावज़ूद, कहीं न कहीं दर्शकों के मन में ‘यही होगा’ और ‘यही होना था का दंभ पैदा होने से रोकने में असफल रह जाती है. सूरत-सीरत और स्वभाव में अपनी ही बेहतरीन फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ से अच्छा-खासा मेल खाने के बाद भी, कटारिया फिल्म को बड़ी बेदर्दी से जाने-पहचाने रास्तों पर डाल कर, घिसे-पिटे उतार-चढ़ावों पर लुढ़कने से बचा नहीं पाते.

मौजी (वरुण धवन) और ममता (अनुष्का शर्मा) की कहानी में सुई-धागा सपनों को पाने का उनका एक जरूरी जरिया तो है, पर दूसरी तरफ वो खुद भी अपनी कहानी के सुई-धागा ही है, जिनमें शादी के सालों बाद भी बेहतर तालमेल की गुंजाईश अभी भी बरकरार है. मौजी अपने मालिक के कहने पर कभी कुत्ता, तो कभी गली का सांड बन के उनका मनोरंजन करता है. दिक्कत ये है कि उसे ये सब करने में कुछ गलत भी नज़र नहीं आता, जब तक उसकी बीवी ममता इस बारे में उससे बात नहीं करती. ममता मौजी की तरह नहीं है. समझदार है. मौजी को सपने देखना सिखा रही है. वो सपना, जिसमें वो खुद उसके साथ-साथ चल सके. हाथ पकड़ के. सर उठा के.

शरत कटारिया लोअर मिडिल क्लास की दुनिया को परदे पर जिंदा करने में जैसी बारीकी और काबलियत दिखाते हैं, हालिया दौर में शायद ही कोई और कर रहा हो. वरना फिल्मों का नायक दुकान में बनियान-पजामा पहने बैठा ऑडियो कैसेट्स में गाने रिकॉर्ड करने वाला प्रेम प्रकाश तिवारी या पेड़ के नीचे सिलाई की दुकान लगाए बैठा, कबूतरों को नाम से बुलाने वाला मौजी हो, कितनी बार देखने को मिलता है? अम्मा (यामिनी दास) गुसलखाने में फिसल कर गिर गयी हैं, दर्द में हैं, पर बाल्टी में पानी भरने का अधूरा काम याद दिलाना नहीं भूल रहीं. डॉक्टर कह रहा है, हार्ट अटैक है पर अम्मा को इलाज़ पता है, ‘’रोज सुबह चौक तक पैदल टहलने लगूंगी, हो जायेगा ठीक. बहू को घर लौटने में देर हो रही है, बाऊजी (रघुवीर यादव) अम्मा के लिए खुद रोटियाँ सेंकना शुरू कर चुके हैं. पड़ोसी छोटी सी लड़ाई पर डर कर चिल्ला रहा है, ‘100 नंबर पे फ़ोन लगाओ कोई. बगल वाली नाराज़ चाची समोसे-चाय के बदले सुलह करने पर तैयार हो गयी हैं.

रोजमर्रा की बातचीत वाले मजेदार संवादों, असलियत के करीब-करीब दिखने वाले किरदारों और मिडिल क्लास की दबी-दबी चाहतों से भरा-पूरा माहौल बना कर, कटारिया अपने कलाकारों को अदाकारी का पूरा मौका देते हैं. अभिनय में वरुण की ईमानदारी कोई भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकता. उनकी कोशिशें हर बार कामयाब न भी हों, तब भी उनका असर आप पर कम नहीं होता. अनुष्का कुछ-कुछ दृश्यों में जरूरत से ज्यादा कर जाती हैं, खास तौर पर जहां जहां उनका किरदार फिल्म में ज़ज्बाती होने की तरफ बढ़ता है. आसान पलों में उनकी छवि बेहतर नज़र आती है. रघुवीर यादव बेहतरीन हैं. जाने क्यूँ वो जब भी परदे पर होते हैं, मैं फ्रेम में कहीं हारमोनियम तलाशने लगता हूँ और इस उम्मीद में आँखें चमक जाती हैं, कि अभी उन्हें गाते हुए सुनूंगा. यामिनी दास इस फिल्म की पंकज त्रिपाठी हैं. फरक नहीं पड़ता कि वो फ्रेम में क्या कर रही हैं, फ्रेम में उनका होना भर न सिर्फ गुदगुदाता है, ख़ूब तबियत से माँओं की याद भी दिलाता है.   

‘सुई धागा में शरत कटारिया अपने किरदारों के आँखों में सपने तो बहुत चमकीले, नायाब और वाजिब बुनते हैं, पर जब उन्हें उन सपनों तक पहुंचाने की बारी आती है तो नाटकीयता की रौ में कुछ इस कदर बह जाते हैं कि किरदारों के इमोशन्स से दर्शकों के भरोसे की डोर टूटने लगती है. अपना खुद का कुछ करने के चाह में, मौजी और ममता एक सरकारी सिलाई मशीन पाने के लिए जिस तरह का कड़ा संघर्ष करते हुए दिखाए जाते हैं, जबरदस्ती का और ठूंसा हुआ लगता है. फिल्म का अंत भी आपको बिलकुल चौंकाता नहीं. ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायंगे में फरीदा जलाल सालों से दोहरा रही हैं, ‘सपने देखो, सपने देखने में कोई हर्ज़ नहीं है, कुछ गलत नहीं, बस्स उनके पूरे होने की शर्त मत रखो.’’ काश, ‘सुई धागा अपने सपने पूरे कर लेने की शर्त से बचने पाती, और एक आजमाए हुए अंत की तलाश के बजाय एक बेहतर शुरुआत की तरफ बढ़ पाती!

इन सबके बाद भी, मैं चाहूँगा कि इन किरदारों से आप उन्हीं की चहारदीवारी के भीतर एक बार जरूर मिलें, और देखें...बेटे को बाप से अखबार के दूसरे पन्नों के लिए लड़ते हुए, बाऊजी का बिस्तर पर पड़ी अम्मा को मोबाइल पर उनके पसंदीदा टीवी सीरियल के एपिसोड्स दिखाते हुए, मौजी-ममता के चुराये हुए अन्तरंग पलों में बस के मुसाफिरों को गाने की धुन पर ऐसे लहराते हुए, जैसे खुद बस घुमावदार रास्तों से गुजर रही हो. कई बार सफ़र का मुकम्मल होना इतना अहम् नहीं होता, जितना सफ़र के दौरान बिताये छोटे-छोटे यादगार पलों का जश्न मनाना! [3/5]

Friday 28 September 2018

पटाखा: चटख किरदार, विस्फ़ोटक अभिनय! [4/5]


सारे रिश्ते हर वक़्त लगाव की चाशनी में डूबे रहें, नहीं होता. सारे रिश्ते हमेशा ही नफरतों की आग में भुनते रहें, ये भी नहीं होता, पर कुछ एकदम अलग से होते हैं. चंपा (राधिका मदान) और गेंदा (सान्या मल्होत्रा) के रिश्ते जैसे. नाम फूलों के, पर अंदाज़ काँटों से भी तीखे, जहर बुझे और नुकीले. जनम से सगी बहनें, लेकिन करम से एक-दूसरे की कट्टर दुश्मन. भारत-पाकिस्तान जैसे. एक को भिन्डी बेहद पसंद हैं, तो दूसरी भिन्डी का नाम सुनकर ही इस कदर बौखला जाती है कि किसी का खून तक कर दे. एक का सपना ही है अपना खुद का डेरी फार्म खोलना, तो दूसरी को दूध देख के ही मितली आने लगती है. ‘मुक्का-लात ही जिनके लिए मुलाक़ात का बहाना है, और अजीब-ओ-ग़रीब गालियों का सुन्दर प्रयोग आपस की बातचीत का ज्यादातर हिस्सा. आम रिश्तों में जहां प्यार, दुलार और अपनापन जैसे नर्म, नाजुक इमोशन्स अपनी जगह बना रहे होते हैं, यहाँ गेंदा और चम्पा के बीच गुस्सा, जलन, नफरत हावी है. दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहातीं, और कभी-कभी तो लगता है कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की जिद में ही अपने किरदारों की पसंद-नापसंद, सपने-उम्मीदें गढ़ती रहती हैं.

विशाल भारद्वाज की ‘पटाखा अपनी गंवई पृष्ठभूमि, रोचक किरदारों और उनके बीच घटने वाली मजेदार घटनाओं के साथ हिंदी कहानी की चिर-परिचित शैली को परदे पर उकेरने की एक बेहद सफल कोशिश है. विशाल इससे पहले शेक्सपियर और रस्किन बॉन्ड के साहित्य को सिनेमाई रूप दे चुके हैं. इस बार भी, जब वो दर्शकों के लिये चरण सिंह पथिक की एक छोटी कहानी ‘दो बहनें’ को चुनते हैं, मनोरंजन की कसौटी पर कोई चूक नहीं करते. पथिक की कलम हमें राजस्थान के एक छोटे से गाँव का हिस्सा बना रख छोड़ती है, जहां रंग-रंगीले किरदार बड़ी बेपरवाही और घोर ईमानदारी से अपने खालिस ज़ज्बातों की पूरे शोर-शराबे के साथ बयानबाज़ी करते हैं. विशाल बेशक इसे नाटकीय और भरपूर मनोरंजक बनाने में बखूबी अपना योगदान देते हैं. बेटियों को बीड़ी न फूंकने की सलाह देते हुए बापू (विजय राज) कहता है, “बापखाणियों की! बच्चेदानी झुलस जावेगी, बाँझ बन के रह जाओगी. कौन करेगो ब्याह?’’ गेंदा के पास अलग सवाल है, “पड़ोस की ताई ने तो खो-खो की टीम जन दी, 5 साल की थी, तब से फूंके हैं बीड़ी. वो तो न हुई बाँझ”. लड़ाई सिर्फ जबान तक नहीं रहती, चम्पा और गेंदा जब एक-दूसरे का झोंटा पकड़-पकड़ के लड़ती हैं, पूरा गाँव देखता है और वो ये तक नहीं देखतीं कि बीच-बचाव कराने आया उनका बापू भी धक्के से गिरकर गोबर में लोट रहा है.

‘पटाखा अपने आप में एक अलग ही दुनिया है. यहाँ शादियों के फैसले पत्थर को टॉस की तरह उछाल कर किये जाते हैं. थूक से गीला हिस्सा आने पर बड़की का ब्याह, सूखा आया तो छोटकी का. गाँव के रंडवे पटेल की बहू नेपाली है, दाम देकर ब्याही गयी है. गालियों, गंदगियों और मार-पीट, लड़ाई-झगड़े से भरी एक ऐसी दुनिया, जो सुनने में काली भले ही लग रही हो. देखने में एकदम रंगीन है. ईस्टमैन कलर जितनी रंगीन. ऐसी दुनिया, जिसमें जाने से आपको कोई गुरेज न हो. इसका काफी सारा क्रेडिट किरदारों में हद साफगोई और उन किरदारों में जान फूंकते कुछ दिलचस्प, काबिल अदाकारों के अभिनय को जाता है. गेंदा के किरदार में जब सान्या पागलों की तरह परदे पर उछलती हैं, ‘दंगल’ वाले अक्खड़, पर बंधे-बंधे से किरदार की खाल भी टूट कर चकनाचूर हो जाती है. फिल्म के दूसरे हिस्से में शादीशुदा गेंदा तो और भी ज्यादा प्रभावित करती है, खासकर अपने डील-डौल और हाव-भाव में संजीदगी ले आकर. राधिका मदान चम्पा के किरदार में जिस बेपरवाही से घुसती हैं, परदे पर किसी विस्फ़ोट से कम अनुभव नहीं होता उन्हें देखना. दागदार दांतों से निचला ओंठ दबाते, उनकी शरारती आँखों की चमक देर तक याद रह जाती है. न थमने-न रुकने वाली शुरूआती लड़ाईयों से लेकर आखिर में ह्रदय-द्रवित कर देने वाले उलाहनों और तानों के मार्मिक दृश्य तक, दोनों का पागलपन एक-दूसरे को टक्कर भी देता है, और एक-दूसरे का पूरा साथ भी.

‘पटाखा में सुनील ग्रोवर भी खासे चौंकाते हैं. एक तरह फिल्म के सूत्रधार भी वही हैं. नारद मुनि की तरह बीच-बीच में आते हैं और फिल्म को एक नया रुख देकर निकल लेते हैं. दोनों बहनों के साथ उनका रिश्ता अनाम ही है, पर शायद सबसे ज्यादा करीबी. दोनों जब लड़ती हैं, तो टिन का डब्बा पीट-पीट कर नाचता है, जब शांत रहती हैं तो लड़ने के लिए उकसाता है. फिल्म के होने की वजह में इस ‘डिपर’ का होना भी उतना ही ख़ास है, जितना चंपा-गेंदा का. परेशान पिता की भूमिका में विजयराज सटीक हैं. यह भूमिका निश्चित तौर पर उनकी सबसे जटिल है. अपने हाव-भाव में विजयराज इस बार अपनी उस जानी-पहचानी, लोकप्रिय छवि से भी दूर रहने की कोशिश करते हैं, जहां उनके अभिनय में रस अक्सर उनके हाज़िर-जवाब, लच्छेदार संवादों का मोहताज़ रहती है.

आखिर में, ‘पटाखा किसी हज़ार-दस हज़ार की लड़ी जितनी ही मजेदार है. एक बार फटनी शुरू होती है, तो ख़तम होने का नाम ही नहीं लेती. हालाँकि कभी कभी दिक्कत का सबब भी वही बन जाती है. विशाल अक्सर बीच-बीच में ट्रम्प-मोदी, भारत-पाकिस्तान, इजराईल-फ़िलिस्तीन जैसे रूपकों के साथ, राजनीतिक व्यंग्य और राष्ट्रीय सरोकार के प्रति अपना प्रेम दर्शाते रहते हैं, लेकिन मैं इसे सीधे-सादे तौर पर ‘एक अजीब से रिश्ते की एक गज़ब ज़ज्बाती कहानी’ ही मान कर देखना पसंद करूंगा, जहां कहानी का चरमोत्कर्ष आपका दिल भर दे, और आँखें नम कर दे. [4/5]                  

Friday 21 September 2018

मंटो: तीखे सवाल, जरूरी फिल्म! [3.5/5]


सआदत हसन मंटो उर्दू अदब के सबसे सनसनीखेज अफसाना-निगार (लेखक) तो पहले से ही माने जाते रहे हैं, इधर कुछेक दशकों से उनकी शोहरत नयी पीढ़ी के पढ़ने-लिखने वालों में ख़ासी बढ़ी है. मंटों की जिंदगी पर बनी नंदिता दास की ताज़ातरीन फिल्म ‘मंटो देखते वक़्त, सिनेमाहॉल में मेरे ठीक पीछे एक महीन आवाज़ उभरती है, “ओह, आई लव मंटो.” मुझे नहीं पता, सासाब (उनकी बीवी सफिया उन्हें फिल्म में अक्सर इसी नाम से पुकारती हैं) के लिये इन मोहतरमा के इस ‘क्रेज की ज़मीन क्या है? असल जिंदगी में उनके बाग़ी तेवर, दुनिया को लेकर उनका अक्खड़ रवैया या फिर उनकी कहानियों में गाढ़े सच्चाई की डरावनी शक्ल? या कुछ और? खैर! वजह जो कुछ भी हो, मंटो की अहमियत जेहनी तौर पर आज भी उतनी ही पुख्ता है, जितनी तब, जबके वो खुद जिस्मानी तौर पर दुनिया में, दुनिया भर से लड़ने-भिड़ने को मौजूद रहे थे.

कम पैसे देकर कॉलम छापने वाला प्रिंटिंग-प्रेस का मालिक मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) को मशवरा दे रहा है, “घर जाईये, लिख कर कल ले आईयेगा.” मंटो बोतल से शराब गले में गटकते हुए फरमाते हैं, “20 रूपये के लिए मैं तुम्हारे दफ्तर के दो चक्कर लगाऊँगा?” जबान की हद साफगोई और तेवर में तलवार की धार लिए मंटो दोस्तों के बीच बैठे-बैठे साफ़ कर देते हैं, “अगर मेरे अफसाने आपको बर्दाश्त नहीं, तो फिर ये दुनिया ही नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है”. मंटो से रूबरू कराने के लिए नंदिता उनकी जिंदगी का एक छोटा सा हिस्सा ही परदे पर जिंदा करती हैं. आज़ादी से कुछेक साल पहले की बम्बई, और आजादी के ठीक बाद का लाहौर. पहला हिस्सा वो दौर है, जब कहानी लिखने वाले अपने किरदारों की तलाश में जिंदगी के अंधेरों से टकराने में मशरूफ़ रहते थे. कृशन चंदर और इस्मत चुगताई (राजश्री देशपांडे) के साथ बम्बई में कॉफ़ी पीते हुए मंटो इस्मत आपा के ‘लिहाफ़’ के आखिरी हिस्से को ‘मामूली होने के लिए कोस रहे हैं. फ़िल्मी पार्टियों में ख़ास दोस्त श्याम (ताहिर राज भसीन) के साथ व्हिस्की के पैग टकराते हुए मज़ाक में के. आसिफ से उनकी नयी फिल्म स्क्रिप्ट पर राय देने की फीस मांग रहे हैं. वहीँ जद्दन बाई (इला अरुण) बेटी नर्गिस के साथ महफ़िल की शान में, अशोक कुमार (भानू उदय) के कहने पर नज़्म सुना रही हैं.  

...मगर जल्द ही मंटो साब का उनके अपने शहर मुंबई से नाता टूटने वाला है. चारों तरफ बस ‘हिन्दू-मुसलमान’ और ‘हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का शोर है. सासाब दो-दो टोपियाँ आजकल अपने साथ रखने लगे हैं, हिन्दू की अलग, मुसलमान की अलग. ‘जब मज़हब दिलों से निकल कर सिर पर चढ़ जाए, तो कोई कुछ और करे भी तो क्या?’. लाहौर की गलियाँ तो और संकरी हैं. उनकी कहानियों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. उन्हें ‘अश्लील होने के इल्जामों से नवाज़ा जा रहा है. मंटो साब से लिखा नहीं जा रहा. लिखें तो भी क्या, खून-खराबा, क़त्ल-ओ-गैरत और इनके बीच घुटता इंसानियत का दम? शराब कम से कम शरीर तो गरम रखती है. एक कहानीकार के तौर अपनी जिम्मेदारियों और आस-पास की सड़ांध मारती दुनिया के दोगलेपन के बीच पिसते मंटो साब के तेवर मंद पड़ने लगे हैं, मगर कौन कह सकता था कि 70 साल बाद मंटो के सवाल आज भी उतने ही तीखे लगेंगे?  

नंदिता न सिर्फ 40 के दशक का बम्बई और लाहौर बड़ी ख़ूबसूरती से परदे पर रौशन करती हैं, बल्कि उतनी ही समझदारी से मंटो की असल जिंदगी और उनकी कुछ मशहूर कहानियों की दुनिया के बीच का फर्क मिटा देती हैं. ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो, ‘तोबा टेक सिंह’ और ‘दस रूपये जैसी कहानियों के बीच मंटो अपनी असल जिंदगी से चलते-चलते कुछ इस तरह दाखिल होते हैं, मानो उनकी भी जिंदगी उतना ही अफसाना हो, या फिर वो तमाम अफ़साने उन्हीं की जिंदगी के कुछ और सफहे. पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में मंटो की ज़िन्दगी और उनकी कहानियों पर आधा दर्ज़न फिल्में बन चुकी हैं, पर नंदिता अपने ‘मंटो को जिस दिलचस्प और रोमांचक तरीके से परदे पर पेश करती हैं, हर दृश्य आपको बांधे रखने में कामयाब रहता है. इसमें कुछ हद तक नंदिता का वो प्रयोग भी शामिल है, जिसमें वो छोटे से छोटे किरदार के लिए भी जाने-पहचाने चेहरों का चुनाव करती हैं. यही वजह है कि फिल्म में आप जावेद अख्तर, दिव्या दत्ता, चन्दन रॉय सान्याल, तिलोत्तमा शोम, पूरब कोहली, रनवीर शौरी, नीरज कबी, परेश रावल, गुरदास मान, ऋषि कपूर, इला अरुण, विनोद नागपाल, शशांक अरोरा जैसे दर्जन भर कलाकारों को देख कर चौंक जाते हैं.

‘मंटो में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में हैं, जहां उनकी मौजूदगी किरदार पर हर पल हावी होती दिखाई देती है. उनके मंटो को याद करते वक़्त शायद आप के ज़ेहन में जो चेहरा उभरे, वो सिद्दीकी की पिछली फिल्मों के किरदारों के इर्द-गिर्द ही हो, पर इसका ये मतलब नहीं निकला जाना चाहिए कि उनसे ‘मंटो’ करते वक़्त किसी तरह की कोई गुंजाइश बाकी रह जाती है. फिल्म के आखिरी हिस्सों में वो थोड़ा उंचाई तक जाते ज़रूर हैं, पर मंजिल दूर ही रह जाती है. स्वेत/श्याम फिल्मों के मशहूर अदाकार सुन्दर श्याम के किरदार में ताहिर परदे पर अपना करिश्मा ख़ूब बिखेरते हैं. रसिका दुग्गल मंटो की पत्नी सफिया के किरदार में जान फूँक देती हैं. इस्मत चुगताई बनी राजश्री और अशोक कुमार बने भानू उदय पूरी तरह रोमांचित करते हैं.

आखिर में; ‘मंटो हालिया दौर में एक बेहद जरूरी फिल्म है, जो कुछ ऐसे चुभते सवालों के साथ आपका ध्यान खींचती है, जिनका सीधा सीधा लगाव देश, देश में रहने वाले लोगों, उनकी आवाज़, उनकी आज़ादी और साथ ही, देश और धर्म से जुड़े ढेर सारे कुचक्रों से है. सच्चाई क्यूँ न कही जाए, जैसी की तैसी? मंटो हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हिन्दू-मुसलमान और श्लील-अश्लील जैसे दायरों में कैद हो सकने वालों में से नहीं थे. इस फिल्म को भी ऐसे किसी भी दायरों से अलग कर के देखे जाने की जरूरत है. [3.5/5]                      

Friday 14 September 2018

मनमर्ज़ियाँ: प्यार का लेटेस्ट वाला वर्जन! [3.5/5]


ये दौर है फेसबुक, व्हाट्स एप्प, टिंडर, ट्वीटर का, और इन जैसे तमाम एप्प्स को धड़ल्ले से इस्तेमाल करने वाली नई पीढ़ी का, जो अपने आप को लगातार बदलते रहने, अपडेट रखने में कतई कोताही नहीं बरतती. फिर प्यार क्यूँ अपने पुराने ढर्रे पर ही घिसटता रहे? फिर बॉलीवुड की प्रेम-कहानियों को भी क्यूँ कर ठोक-पीट उनके पुराने दड़बे में ही कैद रखा जाये? तो, अब प्यार का नया संस्करण बाज़ार में आ गया है. प्यार 2.0 यानी ‘फ़्यार’- सिमरनें अब राज से ‘शादी से पहले वो नहीं’ का वादा नहीं लेतीं, राज ‘हिन्दुस्तानी लड़की की इज्ज़त क्या होती है जानने का दम नहीं भरता. जबरदस्ती शादी के लिए माँ-बाप, परिवार की दुहाई देने पर लड़की भावुक होकर चुपचाप मेहंदी की डिज़ाइन पसंद करने नहीं बैठ जाती. मंडप तक जाने का फैसला अब सिर्फ उसका है, चाहे ऐसा करते उसकी अपने साथ ही, अपने अन्दर ही कितनी ज़ज्बाती लड़ाई क्यूँ न चल रही हो? समाज का रवैया भले नहीं बदल रहा हो, किरदार चुपके चुपके ही सही, बदल रहे हैं. उनकी कहानियाँ बदल रही हैं. और ‘मनमर्ज़ियाँ’ के साथ अनुराग कश्यप भी. ‘काले’ सैयां के इश्क़ का रंग अब ‘ग्रे’ हो गया है. बदलाव के नाम पर इतना बहुत है, अब पूरा सफ़ेद होने की उम्मीद मत लगा बैठियेगा. ज्यादा हो जायेगा.

‘मनमर्ज़ियाँ अपने आप में बहुत ढीठ लफ्ज़ है. गलत-सही सोचने और समझ आने से बहुत पहले मन जो कहे, कर जाना. रूमी (तापसी पन्नू) का किरदार इस लफ्ज़ के बिलकुल पास बैठता है. एकदम घेर के. ठीक सट के. ‘एक बार बोल दिया तो पीछे नहीं हटती के ग़रूर में अपने सच्चे प्यार विक्की (विक्की कौशल) को अल्टीमेटम दे आई है. ‘कल अगर घर पे हाथ मांगने नहीं आया, तो अगले दिन घर वाले जहां कहेंगे, शादी कर लूंगी. तैश में सोचती भी नहीं, पर ऐसा नहीं कि समझती भी नहीं. विक्की जिम्मेदारियों के नाम पर टें बोल जाता है. बनना तो ‘यो यो हनी सिंह है, पर अभी तक दूसरों के गानों का ही रीमिक्स बजाता रहता है. रूमी के कहने पर साथ भाग तो आया है, पर कोई ठोस प्लान नहीं. पहले भी कर चुका है, रूमी एबॉर्शन के बाद रिक्शे पर बैठ कर अकेले घर गयी थी. रॉबी (अभिषेक बच्चन) को कोई जल्दी नहीं. हनीमून के वक़्त भी, शादी के बाद भी. ‘रामजी टाइप का आदमी है. न कुछ पूछता है, न ही रूमी पर मर्दाना हक़ जताने की कोई तलब है उसको. तेज़ आवाज में बोलने को भी, उसको चार पैग लगते हैं. बैंकर है, तो जानता है कि इस इन्वेस्टमेंट में रीटर्न की कोई गारंटी नहीं.

‘मनमर्ज़ियाँ’ फिल्म की लेखिका कनिका ढिल्लों के अपने अनुभवों का साझा है, इसलिए गिनती के दो-चार दृश्यों को छोड़ कर, फिल्म की घटनाओं से जुड़ाव में किसी तरह की कोई फांस आड़े नहीं आती. रूमी का अक्खड़पन, विक्की का लापरवाह रवैया और रॉबी के किरदार में सुन्न कर देने वाला ठहराव; मनमर्ज़ियाँ’ अपने बनावट में ‘वो सात दिन, ‘धड़कन’, ‘हम दिल दे चुके सनम’ और ‘तनु वेड्स मनु जैसी तकरीबन आधी दर्जन हिंदी फिल्मों की याद जरूर दिला सकता है, पर फिल्म देखने के बाद आप जो नहीं भूलते, उनमें इन किरदारों को लिखने में कनिका की गहरी समझ शामिल है.  दृश्यों में नाटकीयता कलम से कहीं ज्यादा, किरदारों के अपने मिजाज़ से निकलती और बनती है. अमित त्रिवेदी का संगीत और शैलीजी के गीत फिल्म पर हमेशा और हर वक़्त छाये रहते हैं. कश्यप की दाद देनी होगी, जिस बाकमाल तरीके से म्यूजिक को वो अपने दृश्यों में, और दृश्यों को अपने म्यूजिक में पिरोते हैं.

‘मनमर्ज़ियाँ’ शर्तिया तौर पर अपने तीन ख़ास कलाकारों में पूरी की पूरी बंट जाती है. तापसी का रूमी होना ‘मनमर्ज़ियाँ’ के लिए किसी तोहफे से कम नहीं. परदे पर उसका छिटकना, बिगड़ना, गुस्से में तपना, भड़कना और टूटना; रूमी के अन्दर से तापसी एक पल को बाहर नहीं आती. विक्की को उसकी गैर-जिम्मेदाराना रवैये के लिए कोसते और डांटते हुए परदे पर जिस तरह वो फटती हैं, आवाक् कर देती हैं. फिल्म के आखिरी पलों में कैमरे की तरफ दौड़ते हुए उनके चेहरे की मुस्कुराती चमक में जैसे एक पल को पूरी फिल्म उनकी हो के रह जाती है. विक्की फिल्म दर फिल्म चौंका रहे हैं. ‘संजू के शराबी दृश्य के बाद, इस फिल्म में भी उनके हिस्से एक ऐसा ही दृश्य आया है. इस बार सिर्फ उनका चेहरा नहीं बोल रहा, पूरे का पूरा बॉडी लैंग्वेज प्रभावित करता है. गानों के डांस-स्टेप्स और लिप-सिंक में उनकी वो क़ाबलियत खुल कर सामने आती है, जो उन्हें अच्छे एक्टर से ‘स्टार मैटेरियल’ बनने की तरफ बढ़ने में मदद करेगी. विक्की में कॉमिक की संभावनायें भी और प्रबल हो रही हैं.

अभिषेक बच्चन दो साल बाद परदे पर हैं. एक ऐसे किरदार में, जिसे आप कतई मजेदार नहीं कह पायेंगे. जिसके साथ होते हुए शायद आप खिलखिलाएं नहीं, झूमें-गायें नहीं, पर ऐसा नहीं करते हुए भी परदे पर उसकी मौजूदगी बहुत ठोस है. उसकी शख्सीयत में इतनी परतें हैं, कि खोलते-खोलते फिल्म कम पड़ जाती है. उसकी नेकनीयती, उसकी संजीदगी कहीं भी उसे लाचार नहीं बनाती, बल्कि हर वक़्त पहाड़ की तरह अडिग और बर्फ की तरह ठंडा रखती है, और शायद यहीं, इसी पल में अभिषेक अपने सबसे मुश्किल किरदार में सबसे आसानी से ढल रहे होते हैं, पिघल रहे होते हैं.

आखिर में; ‘मनमर्ज़ियाँ’ लव और अरेंज्ड मैरिज के बीच हिचकोले खाती इस नई ‘ज़िम्मेदार, समझदार और तैयार’ पीढ़ी की उनकी अपनी एक ‘मेच्योर’ लव-स्टोरी है, जहाँ किरदार सपनों में जीने से कहीं ज्यादा, अपने आप को जानते-पहचानते हैं. अपनी खामियों का जश्न मनाते हैं. अपनी चाहतों के लिए लड़ते-भिड़ते हैं, और ‘डिस्कशन’ को अच्छा मानते हैं. प्यार का लेटेस्ट वाला वर्जन है, आप भी अपडेट कीजिये. [3.5/5]  

Friday 7 September 2018

लैला मजनू: परदे पर जूनूनी इश्क़ के दौर की वापसी! [3.5/5]


इश्क़ में हद से गुजर जाने वाले आशिक़ अब कहाँ ही मिलते हैं? विछोह में पगला जाने वाले, इबादत में माशूक को ख़ुदा के बराबर बिठा देने वाले अहमकों की जमात लगातार कम होती जा रही है. ऐसे में, सदियों से सुनते-देखते आये मोहब्बतों के क़िस्से आज भी कुछ कम सुकून नहीं देते, शर्त बस ये है कि उन्हें पेश करने में थोड़ी सी समझदारी और सुनने में आपकी हिस्सेदारी ज़रा दिल से होनी चाहिए. साजिद अली की लैला मजनू फिल्मों में प्रेम-कहानियों के उस दौर को जिंदा करती है, जहां जूनूनी किरदारों के बग़ावती तेवर बेरहम दुनिया के जुल्म-ओ-सितम के आगे दम भले ही तोड़ दे, घुटने कभी नहीं टेकते. हालाँकि वक़्त-बेवक्त हीर-राँझा, रोमियो-जूलिएट और मिर्ज़ा-साहिबां जैसी अमर प्रेम-कथाओं पर तमाम हिंदी फिल्मों ने पूरे हक से अपनी दावेदारी दिखाते हुए दर्शकों को लुभाने की कोशिश की है, पर हालिया दौर में लैला मजनू शर्तिया तौर पर सबसे ईमानदार और यकीन करने लायक कोशिश कही जा सकती है. सदियों पुरानी कहानी को आज के सूरते-हाल में ढाल कर पेश करने में लैला-मजनू अगर पूरी तरह नहीं, तो ज्यादातर वक़्त तो कामयाब रहती ही है.        

कश्मीर के एक हिस्से में लैला (तृप्ति डिमरी) की ख़ूबसूरती के चर्चे आम हैं. लड़के ताक में रहते हैं कि कब लैला टिश्यू पेपर पर अपने होठों की लगी लिपस्टिक का निशान चस्पा करके, कार की खिड़की से बाहर फेंके और वो उसे लेने को जान की बाज़ी लगा दें. लैला के बारे में मशहूर है कि वो लड़कों को घुमाती है. एक नंबर की फ़्लर्ट है, पर असलियत तो ये है कि क्लास के बाद सहेली से पहले किस का हाल बड़ी बेसब्री से लिया जा रहा है. मजनू बनने से पहले हमारे मजनू को लोग कैस बट (अविनाश तिवारी) के नाम से जानते हैं. कैस भी कम नहीं है. एक नंबर का बिगडैल. अफवाह है कि उसके चक्कर में एक लड़की ने तो प्रेग्नेंट हो जाने पर दुबई जा कर जान दे दी थी. दोनों में कुछ तो है. पिछले जनम का न सही, बचपन का ही, मगर है कुछ तो. और उनके परिवारों में भी. दोनों के बापों में एक छटांक भी बनती नहीं. अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि दोनों की किस्मतों में इश्क़ का मुकम्मल होना शामिल नहीं है. लेकिन फिर, दुनिया की सबसे मशहूर प्रेम-कहानियाँ का अंजाम आखिर ख़ुशगवार कब रहा है!

लैला मजनू पर इम्तियाज़ अली की छाप साफ़ देखी जा सकती है. ऐसा होना लाजमी भी है, जब फिल्म इम्तियाज़ की कलम से ही निकली हो, और फिल्म के निर्देशक इम्तियाज़ के ही भाई हों. इम्तियाज़ जिस तरह फिल्म के मुख्य किरदारों को, अपने दिलचस्प संवादों से उनके ख़ास ताव और तेवर बख्शते हैं, किरदार एक अलग ही रौशनी में उभर कर आते हैं. लैला का पहली बार कैस से आमना-सामना हो, लैला का तेज़तर्रार बाग़ी रवैया या फिर फिल्म के आखिरी हिस्से में कैस का सूफ़ियाना लहजा; इम्तियाज़ हर दृश्य में अपनी बात जाना-पहचाना तरीका होने के बावजूद, एक नये-नवेले तौर से सामने रखते हैं. कैस के किरदार में अविनाश तिवारी को परंपरागत तौर पर नायक की छवि में देखना दर्शकों के लिए आसान नहीं होगा, इम्तियाज़ जान लेते हैं और शायद इसीलिए पहले ही दृश्य में उनके किरदार से साफ़ कहलवा देते हैं. “मेरी सूरत अच्छी नहीं है ना, इसीलिए मुझे स्मार्ट लगने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है. देखो, स्टेबल (हलकी दाढ़ी) भी रखा है. उनका ये डिफेंसिव मैकेनिज्म अविनाश के लिए सटीक बैठता है, फिल्म के आखिर तक आते-आते आप उनके, उनकी अदाकारी, उनकी दमदार आवाज़ के मुरीद हुए बिना रह नहीं पाते. मेरी ही तरह अब आपको भी याद आने लगा होगा कि अविनाश को पहले भी आप तू है मेरा संडे में सराह चुके हैं.   

लैला के किरदार में तृप्ति डिमरी के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है. शुरू शुरू में आपको तृप्ति की लैला इम्तियाज़ की ही फिल्मों की दूसरी नायिकाओं, खास कर रॉकस्टार की नर्गिस फाखरी की याद दिलाती है. शायद इसलिए भी क्यूंकि दोनों के तेवर और लहजे में एक खास तरह की साझा बनावट है. नर्गिस की संवाद-अदायगी में अगर उनका हिंदीभाषी न होना हावी था, तो यहाँ तृप्ति को कश्मीरी लहज़े में बात करने की शर्त से गुजरना था. बहरहाल, तृप्ति रॉकस्टार में होतीं तो नर्गिस की हीर में कुछ इज़ाफा ही करतीं! सुमित कौल का किरदार शायद फिल्म का सबसे मेलोड्रमेटिक पहलू रहा, बावजूद इसके उनके अभिनय की तारीफ़ करनी होगी. बेंजामिन गिलानी और परमीत सेठी अच्छे हैं.  

लैला मजनू कश्मीर में अपनी कहानी गढ़ती है, और कश्मीर भी इस कहानी में ख़ूब रच-बस जाता है; सिर्फ बर्फीले मौसम, हरे घास की चादरों या चिनार के पत्तों तक नहीं, बल्कि फिल्म की पृष्ठभूमि से लेकर गीत-संगीत और कहानी की खुशबू तक में. हालाँकि इस कश्मीर से आतंकवाद, सेना के जवान और डर का माहौल बड़ी सफाई से नदारद हैं, पर बात जब मोहब्बत की हो रही हो, ऐसी चीजों को नज़रंदाज़ भी करना बेहतर ही है. हर तस्वीर में ग़ुरबत के रंग हों, जरूरी तो नहीं.

खैर, बॉलीवुड ने एक अरसे तक लैलाओं को बार-गर्ल और आइटम-गर्ल बना रख छोड़ा था, समाज और सरकारों ने मजनुओं को वैसे ही बदनाम कर रखा है; ऐसे में साजिद अली की लैला मजनू मुकम्मल तौर पर प्रेम-कहानियों की गिरती साख को ऊपर उठाती है. नाकाम इश्क़, ग़मगीन अंजाम और जूनूनी आशिक़; ये कहानी पुरानी ही सही, आज भी उतनी ही असर रखती है, बशर्ते आप दिली तौर पर तैयार हों. [3.5/5]