Friday 28 June 2019

आर्टिकल 15: नये भारत का एक काला सच! [4/5]


भारतीय समाज का 2000 साल पुराना ढांचा अब गहरा दलदल बन चुका है. जात-पात की गंदगी से भरा एक ऐसा बजबजाता दलदल, जिसे ‘सामाजिक संतुलन का नाम देकर सबने अपने-अपने नाक पर रुमाल रख ली है. सबको अपनी-अपनी जात की ‘औकात मालूम है, और जिसे नहीं मालूम उसे भी उसकी जात और औकात याद दिला दी जाएगी, इस पहल में भी कोई पीछे नहीं रहना चाहता. अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15 एक ऐसे भारत की बदरंग तस्वीर है, जहां लोग जातियों को तमगे की तरह सीने पे लटकाये फिरते हैं. एक ऐसा भारत, जहां संविधान भी उतना ही अछूत है, जितना उसके निर्माताओं में से एक बाबा भीमराव अम्बेडकर को मानने वाले लोग. बाभन, ठाकुर, कायस्थ, चमार; सब के सब एक-दूसरे के ऊपर प्याज के छिलकों की तरह चढ़े हुए हैं, और जो जितना नीचे है, उतना ही दबा हुआ, उतना ही शोषित.

उत्तर प्रदेश के लालगांव में नए अफसर आये हैं. अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) को चेताया जा रहा है कि वो रस्ते में पड़ने वाले एक ख़ास गाँव से पानी की बोतल न खरीदें क्योंकि वो गाँव छोटी जाति के लोगों का है. उसी शाम को उन्हीं के स्वागत-समारोह में उनके नीचे काम करने वाले जाटव (कुमुद मिश्रा) ने उनके आगे से अपने खाने की प्लेट झट से खींच ली, ताकि साहब उसकी प्लेट से कुछ खाने का पाप न कर बैठें. जाहिर है, अयान बाहरी है. उसे इस व्यवस्था का ओर-छोर नहीं पता; और जब पता चलता है, तो झल्लाहट के अलावा उसके पास और कोई चारा बचता नहीं. पास के गाँव से 3 दलित लड़कियां गायब हैं. उनमें से दो की लाश पेड़ से लटकती हुई मिली है. तीसरी लड़की का अब भी कुछ अता-पता नहीं. अपराध के पीछे ऊँची जाति के कुछ दबंगों का हाथ है. अयान को न्याय और कानून की परवाह है, जबकि उसके नीचे काम करने वाले ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) को अयान की. हाथ जोड़ कर गुहार कर रहा है कि वो इस दलदल से दूर रहे, मगर किसी को तो सफाई के लिए इस गंदगी में उतरना होगा.

बदायूं में दो बहनों से गैंगरेप और हत्या की सच्ची घटना को अपनी कहानी का आधार बनाकर और ऊना में दलित लड़कों की सरेआम पिटाई जैसे न भुलाये जाने वाले दृश्यों को परदे पर एक बार फिर जीवंत करके, अनुभव ‘आर्टिकल 15 को हकीकत के इतना करीब ले आते हैं कि जैसे इन मुरझाती ख़बरों को एक नई सशक्त आवाज़ मिल गयी हो. जहां अनुभव की पिछली फिल्म ‘मुल्क मुसलमानों को एक ख़ास नज़र से देखने के हमारे रवैये को बड़ी ईमानदारी और मजबूती से कटघरे में खड़ा करती है, ‘आर्टिकल 15 दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों को दस्तावेज बनाकर भारतीय समाज के दकियानूसी जात-पात व्यवस्था पर एक ठोस प्रहार करती है. अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी अपनी कहानी की मिट्टी, उसकी बनावट, उसका खुरदुरापन, उसके तेवर, उसकी तबियत, उसकी रंगत, सब भली-भांति जानते-पहचानते हैं. ‘आर्टिकल 15 की दुनिया दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से बहुत दूर नहीं है. परदे पर कहानी उत्तर प्रदेश की भले ही हो, उसे देखते वक़्त पूरा भारत नज़र के सामने घूम जाता है- कभी किसी अखबार की खबर बनकर तो कभी किसी समाचार चैनल में बहस का मुद्दा बनकर. प्रतीकों को माध्यम बनाकर बात कहने में फिल्म ख़ासी समझदारी दिखाती है, और पूरी बारीक़ी के साथ. लालगांव में कुछ भी सही नहीं है. ऑफिस का पंखा आवाज़ करता है. शिकायत के बाद, ठीक कराने के आश्वासन के बाद भी कुछ बदलता नहीं. सीवर का पानी बिगड़ते हालातों के साथ जैसे जुड़ा हुआ है, ज़मीन से ऊपर आ कर बहने लगा है. कहानी के मूल का विषय जातिगत भेदभाव होते हुए भी, फिल्म किसी एक विशेष जाति को निशाना नहीं बनाती; बल्कि पूरी जाति व्यवस्था को सवालों के घेरे के खड़ी करती है.

फिल्म हाशिये पर धकेल दिए गये दलितों के अधिकारों और उनके खिलाफ़ हो रहे अपराधों के बारे में बात तो करती है, मगर एक पल के लिए भी उपदेशक बनने की भूल नहीं करती. एक अपराध-फिल्म होने के तौर पर भी, ‘आर्टिकल 15 अपने कसे हुए निर्देशन, सधे हुए लेखन और बेहतरीन कैमरावर्क के साथ पूरे नंबर कमाती है. धुंध से छन कर आते दृश्य हों या रात की कालिख में डूबे हुए दृश्य; रोमांच आपको हर वक़्त उत्साहित रखता है. फिल्म के संवाद किरदारों की खाल बन जाते हैं. ब्रह्मदत्त नीची जात की डॉक्टर पर तंज कसते हुए कोटा और पब्लिक टैक्स की बात करता है. एक दृश्य में सब के सब चुनावों में अपने अपने राजनीतिक रुझानों के बारे में बात कर रहे हैं- राजनीतिक दलों के साथ उनके बनते-बिगड़ते भरोसों को लेकर एक ऐसी खांटी बातचीत, जो अक्सर चाय की दुकानों का हिस्सा होती हैं.

अभिनय में, कुमुद मिश्रा और मनोज पाहवा एक-दूसरे के पूरक माने जा सकते हैं. दोनों एक ऐसी जोड़ी के तौर पर उभर कर आते हैं, जिन्हें एक पूरी की पूरी अलग फिल्म बक्श दी जानी चाहिए. आयुष्मान उतनी ही सहजता से अपने किरदार में उतरते हैं, जितनी आसानी से उनका किरदार फिल्म में गंदे दलदल में बेख़ौफ़ उतरता चला जाता है. सबसे धीर-गंभीर और सटीक पुलिस अधिकारी की भूमिका वाली लिस्ट में ‘मनोरमा सिक्स फ़ीट अंडर वाले अभय देओल के बाद शायद आयुष्मान ही आते हैं. भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से प्रेरित किरदार में मोहम्मद जीशान अय्यूब बेहतरीन हैं. सयानी गुप्ता काबिल हैं, कामयाब हैं. ईशा तलवार भी निराश नहीं करतीं.

आखिर में, ‘आर्टिकल 15 एक बेहद जरूरी फिल्म है. अयान एक दृश्य में बोल पड़ता है, ‘बहुत mess है, unmess करना पड़ेगा.’ उसकी महिला-मित्र उसे ठीक करते हुए कहती है,unmess जैसा कोई शब्द होता भी है?”. अयान का जवाब ही फिल्म के होने की वजह बन जाता है. ‘नहीं, पर नए शब्द तलाशने होंगे, नए तरीके खोजने होंगे.’’ फिल्म के एक दृश्य में एक सफाईकर्मी सीवर के काले गंदे कीचड़ से निकल कर स्लो-मोशन में बाहर आता है. बड़ी-बड़ी फिल्मों में आपने नायकों को महिमामंडित करने वाले तमाम दृश्यों पर तालियाँ-सीटियाँ बजाई होंगी, इस एक दृश्य से बेहतर और रोमांचक मैंने हाल-फिलहाल कुछ नहीं देखा. नए भारत का एक सच ये भी है, थोड़ा काला-थोड़ा भयावह, पर सच तो सच है! [4/5]                                

Thursday 6 June 2019

भारत: भाई की ‘ईदी’ और सिनेमा के ‘घाव’ (2/5)

परदे पर नायक की इमेज़ को भुनाना या दोहराना हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए कोई नयी बात नहीं. दिलीप कुमार ‘ट्रेजेडी किंग, मीना कुमारी ‘ट्रेजेडी क्वीन या अमिताभ बच्चन ‘एंग्री यंग मैन’ यूं ही नहीं बन जाते. सलमान खान इस मामले में इन सब से कई कदम आगे निकल चुके हैं. रोमांटिक हीरो (हम आपके हैं कौन, हम दिल दे चुके सनम) से मनोरंजक एक्शन स्टार (वांटेड, दबंग) के बाद, अपने सफ़र के अगले पड़ाव में सलमान अब अपनी बेपरवाह ‘दिल में आता हूँ, समझ में नहीं वाले तेवर से निकलने की छटपटाहट ख़ूब दिखा रहे हैं. उनकी फिल्मों का नायक अब वो शख्स नहीं रहा, सलमान के चाहने वाले जिसे असल जिंदगी के सलमान से जोड़ कर देख लेते थे. आज के परदे का सलमान अपने आपको एक ऐसे नए चोगे में पेश करना चाहता है, जिसकी स्वीकार्यता महज़ टिक-टॉक वाली पीढ़ी तक सीमित न हो, बल्कि बड़े स्तर पर हो, देश स्तर पर हो. अली अब्बास ज़फर की ‘भारत एक ऐसी ही करोड़ों रुपयों वाली विज्ञापन फिल्म है, जिसके केंद्र में सलमान को ‘देश का नमक-टाटा नमक’ की तरह बेचने की कोशिश लगातार चलती रहती है; वरना ‘जन गण मन सुनाकर नौकरी हथियाने वाले नाकारा और नाक़ाबिल लोगों की टीम के लिए सिनेमाहॉल में कोई भी समझदार दर्शक 52 सेकंड्स के लिए भी क्यूँ खड़ा होगा?

‘भारत कोरियाई फिल्म ‘ओड टू माय फ़ादर’ पर आधिकारिक रूप से आधारित है. भारत-पाकिस्तान के बंटवारे में 10 साल का भारत (सलमान खान) अपने पिता (जैकी श्रॉफ) और छोटी बहन से बिछड़ कर पुरानी दिल्ली आ गया है, और अब अपने पिता को दिए वादे के साथ बाकी परिवार को एकजुट रखने में मेहनत-मशक्कत कर रहा है, इस उम्मीद में कि एक दिन उसके पिता लौटेंगे. 70 साल की उम्र में राशन की दुकान चलाने से पहले, भारत ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस में मौत का कुआं जैसे करतब भी दिखा चुका है, अरब देशों में तेल के खदानों में काम भी कर चुका है, और समंदर में माल ढोने वाले जहाज़ों पर रहते हुए सोमालियाई समुद्री लुटेरों का सामना भी. फिल्म पहले ही जता चुकी है कि 70 साल के बूढ़े आदमी की जिंदगी में काफी कुछ वाकये ऐसे हुए हैं, जिन पर भरोसा करना आसान नहीं होगा. विडम्बना ये है कि फिल्म मनोरंजन के लिए खुद इन तमाम घटनाओं को इतनी लापरवाही और हलके ढंग से पेश करती है कि हंसी तो छोड़िये, आप परेशान होकर अपना सर धुनने बैठ जाते हैं. ख़तरनाक सोमालियाई लुटेरे अमिताभ बच्चन के फैन निकलते हैं, सलमान और उसके दोस्तों को एक-दो हिंदी गानों पर नचा कर छोड़ देते हैं. तेल के खदान में फंसा हुआ भारत जैसे स्क्रीनप्ले के वो चार पन्ने ही खा जाता है, जिसमें उसे खदान से बाहर निकलने की मेहनत करनी पड़ती. बजाय इसके भारत बने सलमान सिर्फ अपनी शर्ट उतारता है, और अगले दृश्य में खदान से बाहर. सलमान थोड़ी कोशिश करते, तो ‘काला पत्थर की स्क्रिप्ट के कुछ पन्ने सलीम खान साब के कमरे से चुराए तो जा ही सकते थे.

बहरहाल, फिल्म भारत को किरदार और देश के तौर पर अलग-अलग देखते हुए भी दोनों के सफ़र को एक-दूसरे से जोड़े रखने की नाकामयाब तरकीब भी लड़ाती है. भारत की जिंदगी के खास ख़ास पलों को जोड़ने में देश के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक हालातों पर की गयी टिप्पणी जैसे एक भूली-भटकी एक्सरसाइज लगती है- कभी याद आ गयी तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं. नेहरु जी की मृत्यु से लेकर, साठ के दशक में बेरोजगारी और फिर नब्बे के दशक की अर्थव्यवस्था में डॉ. मनमोहन सिंह के योगदान का उल्लेख इसी कड़ी का हिस्सा हैं.

‘भारत में मनोरंजन का अच्छा-खासा दारोमदार फिल्म के सह-कलाकारों के काबिल कन्धों पर रख छोड़ा गया है. कलाकारों की क़ाबलियत जहां इस बात का मज़बूत पक्ष है, स्क्रिप्ट में जिस तरह की सस्ती कॉमेडी उनके हिस्से मढ़ दी गयी है, उतनी ही शर्मनाक और वाहियात. पूरी फिल्म में आसिफ शेख़ और सुनील ग्रोवर दो ही ऐसे अभिनेता हैं, जो अपने किरदार से एक पल के लिए भी अलग नहीं होते. आसिफ शेख के हिस्से जहां नब्बे के दौर के उनके अपने ही मजाकिया हाव-भाव हाथ लगे हैं, और वो उनमें काफी हद तक कामयाब भी रहते हैं; सुनील अपनी मौज़ूदगी तकरीबन हर दृश्य में ज़ाहिर तो करते हैं, मगर ‘चड्डी वाले दोयम दर्जे के मजाकिया दृश्यों से वो भी बच नहीं पाते. यहाँ तक कि एक दृश्य में उन्हें औरत बनने का सुख भी हासिल कराया जाता है. सतीश कौशिक एक फिल्म के साथ परदे पर एक बेहरतीन अभिनेता के तौर पर लौटते ज़रूर हैं, मगर उन्हें भी ‘तुतलाने और तेज़ बोलने वाले किरदार तक ही बाँध कर रख दिया जाता है, मानो उनका वो हिस्सा सीधे-सीधे किसी डेविड धवन फिल्म से उठा लिया गया हो.

कैटरीना कैफ़ बहुत मेहनत करते हुए नज़र आती हैं- ‘भारतीय’ लगने और सुनाई देने की कोशिश करते हुए. साड़ियों और सादे सलवार सूट में हिंदी साफ़-साफ़ बोलने में इस बार उनके नंबर कम ही कटते हैं, और ऐसा तब और जरूरी हो जाता है, जबकि उनके किरदार का नाम ‘कुमुद’ हो, ना कि ‘जोया’, ‘लैला या ‘जैज़’. फिर भी दो मौकों पर उनका ‘स्टोर को ‘स्तोर बोलना खलता है. कहानी और मनोरंजन के बाद, फिल्म अगर सबसे ज्यादा नाइंसाफ़ी किसी से करती है तो वो हैं, सलमान के माँ की भूमिका में सोनाली कुलकर्णी. असल जिंदगी में सोनाली सलमान से 10 साल छोटी हैं, और परदे पर और ज्यादा छोटी दिखती हैं. हालाँकि फिल्म शुरुआत में ही एलान करती है कि पिता हीरो होते हैं, और माएं सुपर हीरो, मगर फिल्म में सोनाली का किरदार महज़ एक प्रॉप से ज्यादा कुछ नहीं. इस माँ को सुपर हीरो बनने का न तो मौका हासिल होता है, न ही न बन पाने की सहानुभूति. बेटा सलमान है आख़िर! और सलमान के लिए? पूरी फिल्म में अभिनय के नाम पर हैं, उनकी पुरानी फिल्मों से मिलते-जुलते गेटअप्स, बूढ़ा दिखाने वाला मेकअप और आंसू बहाने वाले दो दृश्य! अली अब्बास ज़फर की ही फिल्म ‘सुलतान में सलमान ने वजन बढ़े हुए पहलवान के किरदार को आईने के सामने नंगा खड़ा कर देने की जो हिम्मत दिखाई थी, 70 साल के बूढ़े के किरदार यहाँ ऐसी कोई साहसिक कोशिश करने में आलस दिखा जाते हैं.

आखिर में; ‘भारत एक अति-साधारण कोशिश है साधारण से दिखने वाले एक बूढ़े की असाधारण कहानी को परदे पर उकेरने की. ओरिजिनल कोरियाई फिल्म में इस्तेमाल मानवीय संवेदनाओं और गहरे ज़ज्बातों को ताक पर रख कर, मनोरंजन के लिए सस्ते हथकंडों का प्रयोग लेखन-निर्देशन का खोखलापन खुले-आम ज़ाहिर करता है. बंटवारे की त्रासदी पर फिल्म देखनी हो, तो देखिये ‘पिंजर, खदानों में फंसे मजदूरों की जिजीविषा देखनी हो, तो देखिये ‘काला पत्थर, समुद्री लुटेरों से जूझते नायक की कहानी देखनी हो, तो देखिये ‘कैप्टेन फिलिप्स’. हाँ, अगर ‘भाई’ को ईदी देने की रस्म-अदायगी ज़रूरी है आपके लिए, तो एक राहत-कोष बना लीजिये. कम से कम हर साल सिनेमा को घाव तो नहीं सहने पड़ेंगे. [2/5]