पंचनामा यानी पोस्टमार्टम अकसर मरने या मारे जाने के बाद की
प्रक्रिया होती है, जिसमें इस विषय के जानकार लोग ‘कारण और प्रभाव’ के तमाम पहलुओं
की छानबीन कर किसी एक ठोस नतीजे पर पहुँचते हैं. अब प्यार का पंचनामा हो रहा है तो
ये दोहराने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि प्यार पहले से ही मर चुका है, या मार दिया
जा चुका है. अब तो बस उसका पोस्टमार्टम हो रहा है, तो लोगों को ज्यादा संवेदनशील
होने की भी जरूरत नहीं है. तकलीफ बस इतनी है कि लव रंजन अपनी फिल्म ‘प्यार का
पंचनामा २’ में अपनी सारी ताकत सिर्फ ये कायम करने में झोंक देते हैं कि इन सब के पीछे
कसूरवार सिर्फ लड़कियां हैं. लड़कियां बेवकूफ हैं, लड़कियां मतलबी हैं, लड़कियां
धोखेबाज़ और झूठी भी हैं. और लड़के, उस सीधी गाय की तरह जिसे अपने कटने-बंटने और
बिकने पर चल रही गन्दी राजनीति की भनक भी नहीं.
गो-गो [कार्तिक आर्यन] चीकू [नुसरत भरुचा] के साथ पहली बार
मिल रहा है. पता है? उसका फ़ेवरेट फ्रूट चीकू है. खाने में भी उसे चीकू से बनी हुई
चीजें ही ऑर्डर करनी हैं मसलन चीकू सूप. टेबल की दूसरी ओर हाड़-मांस से बनी चीकू की
हंसी गो-गो के मसखरेपन पर रुक ही नहीं रही. और मुझे आ ही नहीं रही. ठाकुर [ओंकार
कपूर] की ठकुराईन [इशिता शर्मा] नए ज़माने की उन लड़कियों में से है, जिसे अपनी
सहूलियत के हिसाब से डिनर का बिल आधा-आधा करते वक़्त तो ‘औरतों की पुरुषों से
बराबरी’ का सिद्धांत समझ आता है पर महंगे आई-फ़ोन पर अपने बॉयफ्रेंड का क्रेडिट
कार्ड इस्तेमाल करते वक़्त ज्यादा हो-हल्ला नहीं मचातीं. बाकी बचे चौक्के [सनी सिंह]
को फुर्सत ही नहीं सुप्रिया [सोनाली सहगल] के घर पर उसके माँ-बाप का सारा काम करने
से, इस उम्मीद पर कि एक दिन सुप्रिया सही वक़्त देखकर उन्हें अपने प्यार के बारे
में बता देगी. अब इन तीनों प्रेम-कहानियों में ये तीनों भोले-भाले लड़के इन तीनों
लड़कियों के चंगुल में बुरी तरह फंसे नज़र आते हैं.
लव रंजन की ‘प्यार का पंचनामा २’ अपनी पहली पेशकश को ही
भुनाने की एक और कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है. ये उस एक जोकबुक की तरह है, जिसके
सारे तो नहीं पर ज्यादातर चुटकुले एकरस, एकतरफा और जबरदस्ती के ठूंसे हुए हैं. गिनती
की अच्छी परफॉरमेंस, सधा हुआ डायरेक्शन और कुछ सचमुच अच्छे और हंसी भरे संवादों के
अलावा, ये फिल्म बहुत देर तक आपको बांधे नहीं रख पाती. ‘‘प्यार का पंचनामा २’ देखते
वक़्त मुझे गुजरे ज़माने की उन फिल्मों की याद बहुत आई, जिनमें सीधी-सादी बहु पूरी
फिल्म में दुष्ट सास के जुल्म सहती रहती है. फर्क सिर्फ इतना है, उनमें बहु को
बचाने कोई न कोई भलामानस क्लाइमेक्स तक चला ही आता था, वरना दोनों ही फिल्मों को
देखने में मानसिक कष्ट ज्यादा होता है. फिल्म को और तकलीफदेह बना देता है जबरदस्ती
की गालियों से भरे इसके संवाद, जो उनके किरदारों के हिसाब से तो एकदम सटीक हैं पर
सेंसर बोर्ड से ‘म्यूट’ होने के बाद सिर्फ चिडचिडाहट पैदा करते हैं, और कुछ नहीं. अगर
हम एक ‘एडल्ट’ फिल्म देख रहे हैं तो बेहतर नहीं होता कि किरदार कुछ संजीदा और
सयाने ‘एडल्ट’ विषयों पर बात कर रहे होते बजाय इसके कि पूरी फिल्म में सिर्फ ‘मेरी
मार लो’ और ‘मैं चू** हूँ’ की ढपली बजा रहे हैं? लेकिन फिर, ‘एडल्ट’ को हम इसी एक नजरिये
से तो देखते आये हैं.
कार्तिक आर्यन के सात मिनट लम्बे ‘नारी-विरोधी’ संवाद-सीन
को और सनी सिंह के ईमानदार अभिनय को अगर छोड़ दें, तो फिल्म में ढेरों ऐसी वजहें
हैं जो इसे एक ‘नीरस, उबाऊ और अपमानजनक’ फिल्म बनाती हैं. ओंकार कपूर [‘छोटा बच्चा
जान के’ के बाल कलाकार] के अभिनय-प्रयास पर अगर उनकी गाढ़ी-घनी-रोबदार भौंहें ग्रहण
लगा देती हैं तो नुसरत का ‘ओवर द टॉप’ अभिनय परेशान ही करता है. फिल्म के तमाम
दृश्यों में उसके किरदार प्यार-मुहब्बत और शादी को सेक्स से जोड़ कर देखते हैं, और
इस हद तक कि जब उनका गुस्सा फूटता है तो लड़कों को ‘अपने हाथ’ से ही शादी कर लेने
की सलाह तक दे डालते हैं. फिल्म और फिल्म के लेखक-निर्देशक लव रंजन [हमने
फिल्म-मेकिंग के कुछ सबक साथ ही में सीखे हैं] मेरी बधाई के पात्र होते, ग़र
उन्होंने फिल्म के अंत में तीनों दोस्तों को समलैंगिकता की तरफ झुकते हुए दिखाने
का साहस किया होता, क्यूंकि लड़कियां तो बेवकूफ हैं, मतलबी हैं, धोखेबाज़ हैं! [1.5/5]
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