Friday, 24 February 2017

रंगून: ‘इस’ इश्क़ और जंग में सब कुछ जायज़ नहीं! [3/5]

विशाल भारद्वाज की नई-नवेली फिल्म ‘रंगून’ को अमेरिकी क्लासिक ‘कासाब्लांका’ से जोड़ के देखना एक दर्शक के तौर पर शायद आपकी सबसे बड़ी भूल होगी. हालाँकि इसकी पटकथा में कहने को बहुत सारे ऐसे पहलू हैं, जो ‘रंगून’ को ‘कासाब्लांका’ जैसा दिखाने-बताने की होड़ में बेसुध लगे रहते हैं. विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि में प्रेम-त्रिकोण की पेचीदगी उनमें से सबसे ज्यादा करीब भी है, सबसे ज्यादा कामयाब भी. फिर भी कमोबेश, यह विशाल भारद्वाज की औसत फिल्मों (सात खून माफ़, मटरू की बिजली का मंडोला) की लिस्ट में ही एक बड़ा इजाफा करने तक सीमित रह पाती है.

रंगून’ आज़ादी से पहले के भारत का इतिहास टटोलने और उसे दुबारा परदे पर परोसने तक तो बहुत जोश-ख़रोश दिखाती है, पर जब बात दर्शकों के सामने अपने किरदारों के दिल चीर कर रख देने की आती है, तो भारद्वाज बड़ी बेचारगी और मासूमियत से कहानी के साथ घालमेल करने में जुट जाते हैं. गनीमत है कि फिल्म में रंगीली, नशीली, कंटीली कंगना, और पंकज कुमार की दिलकश सिनेमेटोग्राफी एक फ्रेम के लिए भी अपनी जगह, अपनी जिम्मेदारी, अपनी जवाबदेही नहीं छोड़ते!

अपने स्टंट खुद करने में माहिर जूलिया (कंगना रानौत) ’40 के दशक की सबसे मशहूर फ़िल्मी सितारा है, साथ ही कभी मूक फिल्मों के ‘एक्शन-स्टार’ रहे रूसी बिलिमोरिया (सैफ अली खान) के दिल का चैन-सुकून भी. रूसी ने ही जूलिया को फुटपाथ से उठा कर आसमान की बुलंदियों तक पहुँचाया है. दोनों के रिश्ते में जमादार नवाब मलिक (शाहिद कपूर) का आना तब होता है, जब जूलिया को बर्मा में अँगरेज़ फौज के सामने प्रोग्राम करने के लिए तलब किया जाता है. मलिक और जूलिया में बढ़ती नजदीकियों के अलावा, देश में आज़ाद हिन्द फौज की सरगर्मियां भी बढ़ने लगी हैं. देशभक्ति जब हवाओं में घुल कर साँसों में आग फूंक रही हो, प्यार कैसे अछूता रह पायेगा? चेहरों पे चढ़े मुखौटे टूटने लगे हैं. इश्क अपनी ज़द, अपनी हद से पार जाने को मचल रहा है.

‘रंगून’ एक बड़े कैनवास की फिल्म होने का सारा दम-ख़म रखती है. प्रोडक्शन-डिजाईन में छोटी से छोटी बारीकियों की बात हो (फिल्म स्टॉक के ज़माने में रील पर पेन से मार्क करना, मुंबई के पुराने इरोस थिएटर का सेट), या बेहतरीन कैमरावर्क के जरिये फिल्म को ‘क्लासिक’ लुक देने का माद्दा; ‘रंगून’ कहीं से भी कमज़ोर या लचर नहीं दिखती. फिल्म में विशाल भारद्वाज का चिर-परिचित राजनीतिक व्यंग/कटाक्ष भी कम ही सही, पर असरदार तरीके से दिख तो जाता ही है. किरदारों को दिलचस्प बनाने की रटी-रटाई कवायद यहाँ भी साफ़ झलकती है. जूलिया अगर ‘फियरलेस नाडिया’ से अपने ताव, तौर-तरीके अपनाती है, तो वहीँ एक अँगरेज़ जनरल उर्दू शेर-ओ-शायरी का मुरीद निकल जाता है.

अभिनय में कंगना सबसे काबिल बनकर उभरती हैं. आपको याद भी नहीं होगा, पिछली बार कब कोई महिला किरदार परदे पर इतनी सशक्त, जांबाज़, दिलेर और उतनी ही मखमली और मजबूर भी लगी हो! शाहिद की अदाकारी आपको ‘हैदर’ की तरह हैरान तो नहीं करती, पर पूरी तरह मंजी हुई लगती है और कहीं भी परेशान नहीं करती. अपने शाहाना अंदाज़ से, सैफ परदे पर मशहूर हॉलीवुड अभिनेता क्लार्क गेबल की याद दिला जाते हैं. शायरी-पसंद ब्रिटिश आर्मी जनरल की भूमिका में रिचर्ड मैकेब गुदगुदाते रहते हैं.   

इतने सब के बावजूद, ‘रंगून’ एक ही फिल्म में कई फिल्में ठूंसी हुई लगती है. जूलिया अपने आप में एक मुकम्मल कहानी का इल्म कराती है. काश, हम उसे और जान पाते! रूसी-जूलिया-मलिक का इश्किया सफ़र भी ज्यादा वक़्त मांगता है. और अंत में; एक बेहद काबिल वॉर-फिल्म, जिसकी सिर्फ झलक ही आपको पूरी फिल्म में देखने मिलती है, और आप मन मसोस के रह जाते हैं कि बॉलीवुड को उसका ‘सेविंग प्राइवेट रायन’ मिलना अभी दूर लगता है. इश्क़ और जंग की ‘इस’ कहानी में सब कुछ जायज़ तो नहीं है, पर 2 घंटे 50 मिनट की इस महत्वाकांक्षी फिल्म में बहुत कुछ देखने और सराहने लायक है. [3/5]