कोई बॉलीवुड फिल्म एक छोटे से गाँव में अपना
बसेरा बना ले, हंसती हुई कहानियों में चुभने
वाले व्यंग्य गढ़े और अपना नायक एक गरीब ईमानदार लेकिन इंसानी फ़ितरतों से कूट कूट कर
भरे हुए आम आदमी में तलाशे, ऐसा अक्सर तो नहीं होता! दूरदर्शन पर चाणक्य से प्रसिद्धि
पाने वाले डॉ. चंद्रप्रकाश द्धिवेदी की नयी फिल्म 'ज़ेड प्लस' का नायक लुंगी और हवाई
चप्पल में साइकिल के पंचर बनाने वाला एक आम आदमी तो है, पर उसकी कहानी आम बिलकुल नहीं। डॉ. द्धिवेदी
फिल्म की शुरुआत में ही साफ़ कर देते हैं, "ऐसा दुनिया की किसी भी डेमोक्रेसी में
होना नामुमकिन है".
राजस्थान के फतेहपुर में असलम [आदिल हुसैन] अपनी
बीवी हमीदा [मोना सिंह] और माशूका सईदा के साथ मज़े की ज़िंदगी गुज़ार रहा है. जो थोड़ी
बहुत परेशानियाँ हैं उनमें उसका पड़ोसी शायर दोस्त हबीब [मुकेश तिवारी] अव्वल नंबर पे
आता है, जो खुद सईदा का आशिक़ है और अब असलम से उसकी बिलकुल नहीं बनती। ज़िंदगी रफ़्तार
तब पकड़ती है जब सरकार बचाने की मन्नत लिये प्रधानमंत्री [कुलभूषण खरबंदा] फतेहपुर में
पीपल वाले पीर बाबा की दरगाह पर चादर चढ़ाने पहुंचते हैं. असलम का उनसे मिलना, अपने
पड़ोसी से जान का खतरा होने की बात करना, प्रधानमन्त्री का पड़ोसी से 'पाकिस्तान' का
मतलब निकालना और फिर असलम को ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा मुहैय्या करवाना, इन सब में आपको
कहीं न कहीं राजनीतिक व्यंग्य की बहुत सारी मिसालें मिलेंगी और लगातार गुदगुदाती रहेंगी।
खैर कहानी यहां रूकती नहीं और दिलचस्प मोड़ ले लेती है. जाने-अनजाने की ये जेड सुरक्षा
धीरे धीरे असलम के जी का जंजाल बन जाती है और इस से निजात पाने की लगातार कोशिश में
वो खुद गन्दी राजनीति का शिकार बनने लगता है.
'जेड प्लस' बहुत ही मज़ेदार तरीके से व्यवस्था-तंत्र
और राजनीतिक गलियारों की सांठ-गाँठ और समझ-बूझ का मज़ाक बनाती है, साथ ही आम आदमी की
बेबसी और नासमझी पर भी खासा व्यंग्य कसती है. फिल्म के एक दृश्य में प्रधानमन्त्री
अपने सचिव [के के रैना] को 'पाकिस्तान' को 'पड़ोसी' कहने की हिदायत देते हैं, जो कि
राजनीतिक दृष्टि से एक सुरक्षित कदम है. वहीँ असलम के घर को बंकर बनाये बैठे सेना के
जवानों का धीरे-धीरे असलम के परिवार के साथ घुलते-मिलते देखना, अच्छा लगता है. फिल्म
का एक और मजबूत पक्ष उसका आर्ट-डायरेक्शन और बोलचाल की शैली है जो कहानी को किरदारों
से और किरदारों को माहौल से अलग नहीं होने
देती। हालाँकि फिल्म के दूसरे हिस्से में ड्रामा व्यंग्य पर ज्यादा हावी होने लगता
है, फिल्म ढीली और सुस्त पड़ने लगती है, साथ ही कहानी बार-बार खुद को दोहराने लगती है,
फिर भी कलाकारों का सटीक अभिनय फिल्म को उसकी तमाम कमियों के बावजूद संभाल लेता है.
आदिल हुसैन असलम के किरदार में उभर कर सामने
आते हैं. उनका अभिनय सिर्फ किरदार के पहनावे को ही ओढ़ने में यकीन नहीं रखता बल्कि उसे
अपने अंदर तक उतार लेता है जैसे आदिल असलम एक ही हों, हालाँकि कहीं कहीं उनका लाऊड
हो जाना खलता है. मोना सिंह बखूबी अपनी एक्टिंग की छाप छोड़ जाती हैं ख़ास तौर पर फिल्म
के आखिरी हिस्से में. मुकेश तिवारी जमते हैं. संजय मिश्रा पाकिस्तानी आतंकवादी सरगना
के रोल में अपनी 'फंस गए रे ओबामा' वाले किरदार को ही दुबारा ज़िंदा करते हैं. कुलभूषण
खरबंदा निराश करते हैं. के के रैना सहज हैं, समर्थ हैं.
अंत में, डॉ. चंद्रप्रकाश
द्धिवेदी
की
'जेड
प्लस'
उन
चन्द
फिल्मों
में
से
है
जो
अब
भी
सिनेमा
को
कहानी
कहने
का
एक
मज़बूत
और
कामयाब
ज़रिया
मानते
हैं,
न
कि
सिर्फ
तकनीकी
समझ
की
एक
गैरजरूरत
नुमाइश।
देखिये,
अगर
कुछ
अलग-कुछ अच्छा-कुछ सच्चा देखना चाहते हों! [3.5/5]
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