फिल्म शुरू हो रही है. यशराज फिल्म का चिर-परिचित 'लोगो' स्क्रीन पर बनने लगा है पर बैकग्राउंड से लता मंगेशकर का आलाप गायब है! कुमार सानू की दर्द भरी आवाज़ ने लता दीदी की जगह बखूबी हथिया ली है, और ये फिल्म के लिए सटीक भी है. जिन नौजवानों को इस नाम के बारे में तनिक भी शक-ओ-शुबहा हो, उन्हें बता दूँ, एक वक़्त था जब महबूब दिखे तो सानू, चिट्ठियां लिखें तो सानू, मुलाक़ात हो तो सानू और दिल टूटे तो भी सानू! 90 का दशक था ये, जब कुमार सानू के हर गाने में हम अपने लिए इमोशंस ढूंढ ही लेते थे! गानों की रिकॉर्डिंग के लिए ऑडियो कैसेट की दूकान के आगे-पीछे मंडराते रहते थे. शरत कटारिया की
'दम लगा के हईशा' उसी वक़्त और मूड की 'बड़ी' सी ख़ुशी बिखेरती एक छोटी सी फिल्म है, जो आपको जी भर के गुदगुदाती है और हंसी-हंसी में ही आँखें नम कर जाती है.
बेमेल की शादियां कोई नहीं बात तो है नहीं इंडिया में, पर बॉलीवुड इस मुद्दे पर भी ज्यादा कुछ हिम्मत दिखाने से बचता रहा है मसलन, नायिका का डील-डौल! पिछली बार कब आपने किसी मेनस्ट्रीम सिनेमा में दोहरे, भरे-पूरे बदन वाली लड़की को मुख्य किरदार में देखा है, वो भी यशराज फिल्म्स जैसे बड़े लेकिन बचते-संभलते बैनर की फिल्म में? ['गिप्पी' तो बहुतों को याद भी नहीं होगी]. 90's के हरिद्वार में, प्रेम प्रकाश तिवारी [आयुष्मान खुराना] का विवाह कु. संध्या वर्मा [भूमि पेडणेकर] के साथ संपन्न हुआ है. तिवारीजी [संजय मिश्रा] का लौंडा दसवीं फेल है, शाखा का रेगुलर सदस्य है और ऑडियो कैसेट की दूकान चलाता है! संध्या बी.एड. कर चुकी है और टीचर बनना चाहती है। सुनने में कोई हर्ज़ नहीं, पर देखने में है। संध्या को अक्सर उसके 'तंदरूस्त' व्यक्तित्व के लिए ताने सुनने पड़ते हैं, और कुमार सानू के परम भक्त प्रेम प्रकाश तिवारी को तो कोई जूही चावला चाहिए थी। नतीज़ा, दोनों परिवारों के लगातार दखल के बावज़ूद इस विवाह में प्रेम की जगह बनती नहीं दिखती। अंत में, ले दे कर इस डूबते रिश्ते को एक स्थानीय प्रतियोगिता का ही सहारा है जहां जीतने के लिए रिश्तों का बोझ उठाकर भागना है और जीत का एक ही मन्त्र है आपसी ताल-मेल!
फिल्म यशराज की भले ही हो, जब अनुपम खेर के 'कूल डैड' की जगह संजय मिश्रा का 'चप्पल से पीटने वाला बाप' हो, जब 'घिसी-पिटी' रीमा लागूओं और फरीदा जलालों की जगह अलका अमीन और सीमा पाहवा के 'सीधी-सादी' माओं ने ले रखी हो तो फिल्म से नए की उम्मीद रखना बेमानी और बेवजह नहीं है. हालाँकि फिल्म का कथानक कहीं-कहीं 'चमेली की शादी' की याद दिलाता है खासकर शाखा वाले प्रकरण, पर कहानी की साफगोई और किरदारों की सच्चाई फिल्म को शुरू से अंत तक मजेदार बनाये रखते हैं! माँ का बेटी को वीसीआर पर एडल्ट फिल्में देख कर पति को रिझाने का सुझाव हो या मन-मुटाव के वक़्त गुस्सा दिखाने के लिए बार-बार अपने-अपने पसंदीदा गाने बजाने की ज़िद, फिल्म ऐसे खुशनुमा पलों से पटी पड़ी है. गाने सुनते वक़्त वरुण ग्रोवर के गीतों
को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं होगा! उनके लफ़्ज़ों में एक सोंधापन तो है ही, रस भी बहुत है!
अभिनय की दृष्टि से, फिल्म में छोटे से छोटा किरदार भी निराश नहीं करता, संजय मिश्रा, अलका अमीन, सीमा पाहवा, शीबा चड्ढा तो फिर भी मंजे हुए कलाकारों की जमात है. फिल्म की कास्टिंग डायरेक्टर शानू शर्मा का प्रयास सराहनीय है. आयुष्मान खुराना को इस तरह के रोल की दरकार काफी वक़्त से थी जहां वे न सिर्फ अपने किरदार को जीते हुए दिखाई देते हैं, एक नए रंग में अपने आपको पेश करते हैं. पर इन सबसे कहीं ज्यादा अलग और ऊपर नज़र आतीं हैं भूमि पेडणेकर! सही मायनों में अगर 'दम लगा के हईशा' में दम है तो भूमि उसकी एक बहुत 'बड़ी' वजह हैं. हाल के सालों में किसी नए कलाकार का ये सबसे प्रभावशाली अभिनय है. हालाँकि कि उनमें आम हीरोइनों जैसी कोई बात नहीं है, और यही उनकी ख़ास बात है. देखना बाकी रहेगा कि अब आगे बॉलीवुड के पास उनके लिए क्या है ?
आखिर में, 'दम लगा के हईशा' एक दिल छू लेने वाली फिल्म है, जो अपनी ईमानदारी, सच्चाई और साफ़दिली से आपको अपना बना लेती है! फिल्म के अंत में आयुष्मान और भूमि 90's के गानों की तर्ज़ पर नाचते-गाते दिखाई देते हैं, बिलकुल गोविंदा-शिल्पा शेट्टी या अजय देवगन- तब्बू की जोड़ी की तरह. उस गाने में अगर किसी को देखना है तो भूमि को देखिये...ये सपने सच होने जैसा ही है, सिर्फ भूमि के लिए नहीं, हर आम दिखने वाले दर्शक के लिए! बॉलीवुड ऐसी दरियादिली बहुत कम ही दिखाता है, तो पूरा मज़ा उठाईये! जरूर देखिये!! [3.5/5]