‘गैंगस्टर’ सुनते ही मुंबई
के ‘भाई लोग’ बिना इजाज़त लिए जेहन में खलबली मचाने लगते हैं. ‘सत्या’ के भीखू
म्हात्रे से लेकर ‘वास्तव’ के रग्घू तक, बॉलीवुड हमेशा से इन टपोरियों-मवालियों और
पंटर लोगों में अपनी कहानी के हीरो ढूंढता रहा है. जीशान क़ादरी इस चलन को तोड़ने की,
या यूँ कहें तो एक नया चेहरा देने की कोशिश करते हैं. उनकी फिल्म ‘मेरठिया
गैंगस्टर्स’, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, उत्तर प्रदेश के मेरठ और दिल्ली से सटे नोएडा
के आस-पास के इलाकों को ही अपना गढ़ बनाती है. यहाँ बाप की कम पेंशन और मिडल-क्लास
का रोना रोने वाले टपोरी नहीं होते. यहाँ होते हैं यूनिवर्सिटी हॉस्टल में
कुर्सी-टेबल की तरह सालों से जमे हुए मुंहफट-अक्खड़-लड़ाकू ‘लौंडे’! यहाँ जो कुछ
नहीं कर रहे होते, वो ‘लॉ’ कर रहे होते हैं. जल्दी और ज्यादा पैसे कमाने के लिए,
कैरियर के नाम पर जिनके सामने दो ही आसान तरीके नज़र आते हैं, एक तो रियल इस्टेट का
बिज़नेस और दूसरा ‘अगवाई’ यानी ‘किडनैपिंग’. जीशान अपनी पहली फिल्म में किरदारों के
हाव-भाव, चाल-चलन और बोली पर तो अच्छी-खासी पकड़ बनाते दिखते हैं, पर फिल्म को
बांधे रखने वाली एक अच्छी और मज़बूत कहानी की कमी उनके इस सराहनीय प्रयास को खोखला
कर देती है.
मेरठ के ६ बेरोजगार [जयदीप
अहलावत, आकाश दहिया, शादाब कमल, वंश भारद्वाज़, चन्द्रचूड़ राय और जतिन सरना]
छोटी-मोटी छिनैती में तो पहले भी शरीक रहे हैं, पर जब नौकरी दिलाने वाली एक कंपनी
के झांसे में आकर ठगे जाते हैं तो जाने-अनजाने फिरौती के धंधे में भी बोहनी कर
बैठते हैं. फिर तो पीछे मुड़ के क्या देखना? हालात उस वक़्त रंग बदलने लगते हैं, जब
उनकी उड़ान कुछ ज्यादा जल्दी ही आसमान छूने के ख्वाब देखने लगती है. लाखों की
फिरौती अब करोड़ों में बदल गयी है और इन सब के बीच है एक पागल पुलिसवाला [मुकुल
देव], जो अपने ऊपर वालों को भी दो-टूक सुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ता.
‘मेरठिया गैंगस्टर्स’ में
अगर कुछ है, जो इसे देखने लायक बनाता है तो वो हैं इसके किरदार. कहानी हालाँकि
अपना असर बिलकुल नहीं छोडती, किरदार ही हैं जो आप तक रह जाते हैं. उनकी आम बोल-चाल
का लहज़ा, उनके तेवर, उनका अख्खड़पन! फिल्म के एक दृश्य में गैंग का एक मेम्बर संजय
फ़ोरेनर [अपने मेहंदी रंगे बालों की वजह से उसे ये नाम मिला है] अपने ही दोस्तों से
खुद को गोली मरवाने की जिद पकडे बैठा है, क्यूंकि लड़की के बाप ने उसके खिलाफ़ पुलिस
केस दर्ज करा दिया है, पर गैंग का लीडर टीवी पे क्रिकेट वर्ल्ड कप का मैच छोड़ना
नहीं चाहता. और अंत में जब घटना को अंजाम देना है, तयशुदा गैंग-मेंबर उसे .22 की कम
नुकसान पहुंचाने वाली बुलेट के बदले 303 की जानलेवा गोली दाग आता है. पश्चिमी
उत्तर प्रदेश का झूठा पुरुष अहंवाद भी इन सब में कहीं-कहीं साफ़ झलकता है. अपने
लीडर को उसकी प्रेमिका के नाखूनों पे रंग लगाते हुए देखना, गैंग में सबके लिए आसान
नहीं होता. फिल्म के संवाद कहीं भी, एक पल के लिए भी किरदारों से छूटते दिखाई नहीं
देते.
जीशान डायरेक्शन के अपने इस
पहले प्रयास में कैमरे और अभिनेताओं के साथ कई सफल प्रयोगों के साथ प्रभावित करते
हैं. मसलन, दोपहर से लेके रात तक चलने वाले एक शूटआउट सीन में उन्होंने गाने और
स्टॉप-मोशन तकनीक का बखूबी इस्तेमाल किया है. इसी तरह फिल्म की शुरुआत में कॉलेज
कैंटीन के और अंत में जेल के अन्दर के दृश्यों में वन-शॉट सीन का प्रयोग भी सराहनीय
है. जयदीप [‘गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर’ के शाहिद खान] और आकाश [तनु वेड्स मनु रिटर्न्स]
उम्दा हैं. शादाब कमल [‘बी ए पास’] निराश करते हैं. संजय मिश्रा, मुकुल देव, ब्रजेन्द्र
काला ठीक-ठाक हैं.
अंत में; ‘मेरठिया गैंगस्टर्स’ की कहानी में जीशान की वो धार कहीं दिखाई नहीं
देती जिसकी उम्मीद उन्होंने ‘गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर’ से जगाई थी पर एक नए उभरते डायरेक्टर
के रूप में वो पूरी तरह असफल भी नहीं होते. मजेदार किरदार और उन्हें आत्मसात करते
अभिनेता, इस फिल्म को काफी हद तक देखने लायक बनाये रखते हैं. फिल्म ख़तम होने के
बाद भी ख़तम नहीं होती, और इसे वापस लौटने का एक इशारा भी समझा जा सकता है. इन किरदारों
को एक बार और परदे पर देखने में मुझे तनिक हर्ज़ न होगा, अगर इस बार एक अच्छी-दमदार
कहानी भी हाथ लग जाए! [2.5/5]
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