‘सैराट’ देखते वक़्त एक गलती हम सभी कर
बैठते हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता लेखक-निर्देशक नागराज पोपटराव मंजुले को एक
ऐसे सामान्य फिल्म-निर्देशक की तरह देखने की गलती, जो सामाजिक मसलों पर चोट करती
अपनी पहली जोरदार फिल्म (फैंड्री) के बाद अब एक आम सी रोमांटिक फिल्म को बड़े
कैनवास पर पटक कर ‘क्लासेस टू मासेस’ का सफ़र पूरा करना चाहता है. हमारा गलती करना
वाज़िब भी है, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी मिसालें बहुतायत में मौजूद हैं. पर ‘सैराट’
और ‘सैराट’ के साथ मंजुले जिस तरह आपको चौंकाते हैं, आप दहल जाते हैं. आपके अन्दर
एक ऐसा भूचाल आ जाता है, जिसकी थिरकन फिल्म देखने के बहुत बाद तक वैसी ही तरोताज़ा
रहती है.
परश्या [आकाश ठोसर] का दिल आर्ची [रिंकू
राजगुरु] पर लट्टू है. खो-खो खेलते हुए आर्ची से जो एक बार आँखें चिपकीं तो पता
चला दिल का मौसम उधर भी खुशगवार ही है. कुछ छंटे-छंटाये पर ईमानदार दोस्तों के बीच
तय रहा, परश्या लव लैटर लिखेगा. आर्ची भी कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं, बुलेट भी चला
लेती है और ट्रैक्टर भी. फिर जो एक बार मुहब्बत परवान चढ़ने लगा तो किसे होश रहता,
आर्ची ऊँची जाति की है और परश्या नीची जाति का. हालाँकि मंजुले बार-बार अपने
किरदारों और प्रतीकों से आपको चेताते रहते हैं पर जब परदे पर इश्क़ नदी किनारे की
ठंडी हवा सा बह रहा हो, शाम को ढलते सूरज के साथ सिंदूरी हो रहा हो, किसी कमअक्ल
को ही जाति-पांति के टंटों में दिलचस्पी जागेगी.
बहरहाल, बहुत सारी उठा-पटक, जोर-आजमाईश और
घर से भागने के बाद परश्या और आर्ची अब हैदराबाद की एक गरीब बस्ती में अपना
आशियाना बसाने की कोशिश कर रहे हैं. ‘तुम काम पर जाना, मैं खाना बनाकर तुम्हारा
इंतज़ार करूंगी’ वाली चमकीली बातें सच हो रही हैं, पर उनकी चमक अब धुंधली पड़ चुकी
है. मंजुले अब अपना रंग बदल रहे हैं. एक गाढ़ापन गहराने लगा है. बहुत कुछ वैसा ही
हो रहा है जैसा आपने ‘साथिया’ या ‘क़यामत से क़यामत तक’ में देखा-महसूस किया हो, पर
फिर से आपको चौंकन्ना कर दूं, आप नागराज पोपटराव मंजुले को कम आंकने की गलती कर
रहे हैं. मंजुले अब वो कहने वाले हैं, जिसके लिए पिछले ढाई घंटे से वो सिर्फ आपको
तैयार कर रहे थे. और उसे कहने के लिए उन्हें अजय-अतुल के शानदार म्यूजिक का भी
सहारा लेने की जरूरत नहीं.
‘सैराट’ जहां एक तरफ नौजवान दिलों की धड़कन
का मधुर संगीत है, इश्किया सपनों का खुला आसमान है, वहीँ सामाजिक कुरीतियों और
जातिगत संघर्ष का घिनौना मैदान भी है. मंजुले की खासियत ये है कि वे उन्ही जगहों
से आते हैं, जहां की वो बात करते हैं. ऐसे में, फिल्म के किरदारों और उनके बीच
बनते-पनपते पलों से जुड़ाव महसूस करना आपके लिए कतई आसान हो जाता है. तमाम प्रमुख
कलाकारों के साथ आकाश ठोसर और रिंकू राजगुरु भी पहली बार कैमरे के सामने आने का हौसला
दिखाते हैं. मंजुले भी उनकी अभिनय-कला को पूरी तरह खोल कर परोस देने की कोई जल्दी
नहीं दिखाते और पूरा वक़्त देते हैं.
अंत में, ‘सैराट’ एक लम्बी फिल्म जरूर है
(170 मिनट की) पर इस का असर आपके दिल-ओ-दिमाग पर काफी देर तक रहने वाला है. बचपन
की दोस्ती, दोस्तों का प्यार और पहले-पहले इश्क का बुखार स्लो-मोशन शॉट्स में बहुत
मजेदार लगने वाला है, पर सिनेमा सिर्फ इतना ही तो नहीं. मंजुले का सिनेमा सिर्फ
इतना ही नहीं. जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं. साल की सबसे ‘चौंका देने
वाली’ फिल्म! [4.5/5]
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