सपनों के कोई दायरे नहीं हुआ करते. छोटी
आँखों में भी बड़े सपने पलते देखे हैं हमने. फेसबुक की दीवारों और अखबारों की परतों
के बीच आपको दिल छू लेने वाली ऐसी कई कहानियाँ मिल जायेंगी, जिनमें सपनों की उड़ान
ने उम्मीदों का आसमान छोटा कर दिया हो. हालिया मिसालों में वाराणसी के आईएएस (IAS)
ऑफिसर गोविन्द जायसवाल का हवाला दिया सकता है, जिनके पिता कभी रिक्शा चलाते थे.
अश्विनी अय्यर तिवारी की मार्मिक, मजेदार और प्रशंसनीय फिल्म ‘निल बट्टे सन्नाटा’
भी ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी कहानी के जरिये आपको जिंदगी के उस हिस्से में ले जाती है,
जहां गरीबी सपनों की अमीरी पर हावी होने की कोशिश तो भरपूर करती है पर अंत में जीत
हौसलों से लथपथ सपने की ही होती है.
घरों, जूते की फैक्ट्री और मसाले की
दुकानों पर काम करने वाली चंदा (स्वरा भास्कर) एक रात जब थक कर सोने से पहले अपनी
15 साल की बेटी अप्पू (रिया शुक्ला) से पूछती है कि वो बड़ी होकर क्या बनेगी? अप्पू
खरी-खरी कह देती है, “मैं बाई बनूंगी. बाई की बेटी बाई ही तो बनेगी.” चंदा बहस में
जीत नहीं सकती. 10वीं के बाद अप्पू को पढ़ाने के लिए पैसे कहाँ हैं चंदा के पास? वैसे
भी, अप्पू मैथ्स में ‘निल बट्टा सन्नाटा’ है, मतलब ज़ीरो. पैसे तो बाद की बात हैं,
पर इस मैथ्स का क्या करें? चंदा तो खुद मैट्रिक फ़ेल है. डॉ. दीवान (रत्ना पाठक
शाह) के पास एक उपाय है. चंदा भी अप्पू का स्कूल ज्वाइन कर ले, खुद भी पढ़े और
अप्पू की भी मदद करे. बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए माँ-बाप क्या कुछ नहीं करते,
पर हम बच्चे कितना समझ पाते हैं? अप्पू के पास तो कोई सपना ही नहीं है, और चंदा के
पास अप्पू से बड़ा कोई सपना नहीं!
अश्विनी अय्यर तिवारी अपनी पहली ही फिल्म
में साफ़ कर देती हैं कि सिनेमा कहानी कहने का एक सशक्त माध्यम है, कहानी जिसका कहा
जाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसका सही ढंग से कहा जाना. आगरा की तंगहाल
बस्तियां हों या सरकारी स्कूलों का वही जाना-पहचाना बेढंगापन; तिवारी बड़ी खूबी से
फिल्म को सच्चाई के बिलकुल करीब तक रखने में कामयाब रही हैं. उनके किरदार भी अपनी
जड़ों से एक बार भी उखड़ते दिखाई नहीं देते. चंदा गुस्से में होती है तो अपनी बेटी
को भी गाली देने से झिझकती नहीं.
अभिनय की दृष्टि से ‘निल बट्टे सन्नाटा’
एक जोरदार और जबरदस्त फिल्म है. स्वरा भास्कर एक पल को भी चन्दा से अलग नहीं दिखतीं.
बेटी की हताशा में बेबस, गरीबी से जूझती, सपनों को जिंदा रखने में दौड़ती-भागती एक
अकेली माँ का सारा खालीपन उनकी आँखों में हमेशा तैरता रहता है, ऐसा शायद ही कभी
होता है कि वो पूरी तरह टूट जाएँ स्क्रीन पर, फिर भी आपकी आँखों को भिगोने में वो
हर बार कामयाब होती हैं. अपनी पहली फिल्म में ही रिया एक मंजी हुई कलाकार की तरह
आपको चौंका देती हैं, और इन दोनों के बीच फिल्म के सबसे मजेदार दृश्यों में नज़र
आते हैं पंकज त्रिपाठी! अक्खड़, अकड़ू और निहायत ही अनुशासित मैथ्स टीचर की भूमिका
में त्रिपाठी आपको अपने किसी न किसी पुराने टीचर की याद दिला ही देंगे.
अंत में; ‘निल बट्टे सन्नाटा’ सिनेमा के उस क्लासिक नियम की जोर-शोर से पैरवी करती है, जहां फिल्म के बड़ी होने से कहीं ज्यादा ‘कहानी’ का बड़ा होना मायने रखता है. फ़िल्म के एक दृश्य में चंदा कहती भी है, “कृष 3 नहीं है, जिंदगी है जिंदगी”. और जिंदगी से ज्यादा दिलचस्प, जिंदगी से ज्यादा जज्बाती, जिंदगी से ज्यादा सच्ची कहानी और क्या होगी! [4/5]
अंत में; ‘निल बट्टे सन्नाटा’ सिनेमा के उस क्लासिक नियम की जोर-शोर से पैरवी करती है, जहां फिल्म के बड़ी होने से कहीं ज्यादा ‘कहानी’ का बड़ा होना मायने रखता है. फ़िल्म के एक दृश्य में चंदा कहती भी है, “कृष 3 नहीं है, जिंदगी है जिंदगी”. और जिंदगी से ज्यादा दिलचस्प, जिंदगी से ज्यादा जज्बाती, जिंदगी से ज्यादा सच्ची कहानी और क्या होगी! [4/5]
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