मुख्य भूमिकायें सितारों की किस्मत होती
हैं, चमचमाती थाली में रख कर ड्राइंग रूम में परोस दी जाती हैं. सहायक भूमिकायें अक्सर
अभिनेताओं की झोली में उनकी मेहनत का नजराना समझकर डाल दी जाती हैं. कम से कम
बॉलीवुड में बॉक्स-ऑफिस के इर्द-गिर्द मंडराती रहने वाली ‘बड़ी’ फिल्मों का तो यही
लब्बो-लुबाब है. ओमंग कुमार की ‘सरबजीत’ उन्ही चंद फिल्मों
में से एक है.
सरबजीत [रणदीप हुडा] सालों
से पाकिस्तानी जेल में हिन्दुस्तानी जासूस होने के शक़ में कैद है. बहन दलबीर कौर [ऐश्वर्या
राय बच्चन] की लगातार कोशिशों का दम-ख़म देखिये कि आज सरबजीत का पूरा
परिवार उस से मिलने पाकिस्तान की जेल में आया है. बीवी [रिचा चड्ढा]
भर्राए गले से पूछ बैठती है, “ठीक हो?” सरबजीत [हुडा] अपनी सारी
टूटती सांसें बटोर कर कहता है, “अब हूँ!” मेरे ख़याल से पूरी फिल्म
का ये सबसे कामयाब, सबसे कारगर सीन है. यहाँ आपको फिल्म से शिकायतें कम रहती हैं,
पर कुछ है जो अचानक आपके जेहन में बिजली की तरह कौंध गया है. सीन में मौजूद सितारे
[राय बच्चन] की चकाचौंध धीमी पड़ गयी है. दोनों अभिनेताओं को [चड्ढा
और हुडा] बहुत थोड़ा ही सही, फैलने का एक मौका मिल गया है और वे उसमें इस
कदर कामयाब रहते हैं कि आप सोच में पड़ जाते हैं, आखिर क्यूँ हर ‘मैरी कॉम’
को जरूरत होती है ‘प्रियंका चोपड़ा’ की?
जब ऐश्वर्या अपने चीखने-चिल्लाने के
प्रतिभा-प्रदर्शन में कैमरे को लताड़ने में मशगूल रहतीं हैं, अक्सर बैकग्राउंड में
रिचा चड्ढा या तो भैसें नहलाने या ढहती दीवाल की ईंटें हटाने में चुपचाप लगी रहती
हैं. उन्हें पता है, उन्हें सिर्फ फिल्म चलाने के लिए शामिल नहीं किया गया है. हालाँकि
ओमंग कुमार उनका भी इस्तेमाल अरिजीत सिंह के गाने पर बखूबी करते हैं, ठीक वैसे ही
जैसे वो रणदीप को फिल्म के शुरुआत में ही ‘बैंड बाजा बारात’ का रणवीर सिंह
बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. सरबजीत की बहन के रोल में ऐश्वर्या को एक माकूल
ज़मीन देने में ओमंग इतनी शिद्दत दिखाते हैं कि फिल्म में हर
बूढा-बच्चा-जवान ऐश्वर्या को ‘बहनजी’ ही कह के बुलाता है. उस पर डॉयलागबाजी
का आलम कुछ यूँ कि ‘ग़दर’ का सनी देओल भी तौबा कर ले!
ग़ालिब अपने एक शे’र में कहते हैं, “मुश्किलें पड़ीं
मुझपे इतनी कि आसां हो गयीं”. ओमंग
कुमार भी ‘सरबजीत’ की कहानी में मुश्किलों को पहले तो यूँ सामने ला पटकते
हैं मानो अब कुछ भी हल मुमकिन नहीं, फिर अगले ही पल उन्हें कुछ इस अंदाज़ से
दुरुस्त कर देते हैं, जैसे पहले उनका कोई नाम-ओ-निशाँ ही न रहा हो. फिल्म अपने इसी
लचर रवैये की वजह से अक्सर सच्चाई से परे झाँकने लगती है. सरबजीत का पाकिस्तानी
जेल में लगातार अपने परिवार के साथ चिट्ठियों से जुड़े रहना, दलबीर कौर का बार-बार
पाकिस्तान आना-जाना, वहाँ के लोगों को मुंहतोड़ जवाब देना; सब कुछ एक बॉलीवुड फिल्म
के दायरे में बड़ी आसानी से समा जाता है.
आखिर में, ओमंग कुमार की ‘सरबजीत’ रणदीप हुडा, रिचा
चड्ढा और अपने छोटे से मजेदार रोल में दर्शन कुमार [मैरी कॉम,
एनएच 10 वाले] के अच्छे अभिनय के बावजूद, ऐश्वर्या के उकता देने
वाले अभिनय [???], धीमी गति और कहानी में बनावटीपन के पुट की वजह से आपके दिल तक
शायद ही पहुँच पाए. [2/5]
kya likha hai yaar , kuch b samaj nai ara, post in english
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