Friday, 13 May 2016

अज़हर: वन्स अपॉन अ टाइम इन क्रिकेट [1/5]

शुरुआत में ही, अपने तीन पैराग्राफ लम्बे बयान [Disclaimer] के साथ ‘अज़हर’ विवादों से बचने और कुछ बहुत जरूरी सवालों से मीलों दूर रहने की समझदार कोशिश में दर्शकों पर इतनी शर्तें लाद देती है कि कहना मुश्किल हो जाता है, आप एक जीते-जागते शख्सियत पर बनी एक ईमानदार फिल्म देखने जा रहे हैं या फिर एक पूरी तरह मनगढ़ंत कहानी. फिल्म की विश्वसनीयता, नीयत और सूरत का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अगर इसका नाम ‘अज़हर’ न होकर ‘जन्नत 3’ या ‘वन्स अपॉन टाइम इन क्रिकेट’ भी होता, तो भी फिल्म की सीरत में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता. आखिर में रहती तो ये इमरान हाशमी की ही फिल्म. आगे बढ़ने से पहले एक Disclaimer मैं भी पढ़ देना चाहता हूं, “आगे की पंक्तियों में ‘अज़हर’ शब्द का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ फिल्म के शीर्षक और फिल्म के मुख्य किरदार के लिए किया जा रहा है. इसका किसी भी मशहूर क्रिकेटर या पूर्व सांसद से कोई लेना देना नहीं है.” लीजिये, अब मैं भी फिल्म की राह पर पूरी तरह स्वच्छंद और स्वतंत्र हूँ, कुछ भी उल-जलूल लिखने-कहने के लिए!

99वें टेस्ट मैच में शानदार प्रदर्शन के बाद, अज़हर [इमरान हाशमी] अब अपने नानूजान [कुलभूषण खरबंदा] के सपने से सिर्फ एक मैच और दूर है, जब उसे मैच-फिक्सिंग के इल्ज़ाम में क्रिकेट खेलने से बैन कर दिया जाता है. इस फिल्म वाले अज़हर को भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे कामयाब कप्तान मोहम्मद अज़हरुद्दीन के रूप में देखने की गलती करने की आपको पूरी छूट है, हालाँकि मुझे ये दोनों [परदे का अज़हर और असलियत के अज़हरुद्दीन] वो दो जुड़वाँ भाई लगते हैं जिनका आपस में कुछ भी मिलता नहीं. न शकल, न हाव-भाव! 

हाँ, फिल्म की कुछ घटनाएं और किरदार जरूर आपको इस भूल-भुलैय्ये में उलझाये रखते हैं कि आप एक सच्ची कहानी देख रहे हैं. मसलन, अज़हर के साथ ड्रेसिंग रूम शेयर करते मनोज प्रभाकर [करणवीर शर्मा], नवजोत सिंह सिद्धू [मंजोत सिंह], रवि शास्त्री [गौतम गुलाटी], कपिल देव [वरुण वडोला] और अज़हर की जिंदगी में खासा दखल रखने वाली 90 के दशक की खूबसूरत बॉलीवुड एक्ट्रेस संगीता बिजलानी [नरगिस फाखरी]. इन सबमें अगर कोई अपने किरदार के बहुत करीब तक पहुँच पाने में कामयाब हुआ है तो वो हैं सिर्फ नरगिस. उनका और संगीता बिजलानी दोनों का ही एक्टिंग से कभी कोई सरोकार रहा नहीं.  

हालाँकि ‘अज़हर’ सनसनीखेज बने रहने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देती, पर दिक्कत वहां मुंह बाये खड़ी हो जाती है जब फिल्म ईमानदारी से कहानी कहने की बजाय अज़हर को ‘हीरो’, ‘बेक़सूर’ और ‘बेचारा’ बनाने और बताने की जी-तोड़ कोशिश आप पर थोपने लगती है. रोमांच और रोमांस का तड़का जिस सस्ते, हलके और ठन्डे तरीके से फिल्म में परोसा जाता है, आप मोहम्मद अज़हरुद्दीन [फिल्म वाला नहीं, असली वाला] से सिर्फ हमदर्दी ही जता पाते हैं. ‘देश’, ‘मुल्क’ और ‘कौम’ जैसे भारी-भरकम शब्दों के बार-बार खोखले इस्तेमाल से अगर आप बच भी जाएँ, तो ‘सच ये, सच वो’ का जुमला आपका दम घोंटने के लिए काफी है. रजत अरोरा के दोयम दर्जे के संवाद सिर्फ शब्दों की हेरा-फेरी तक ही अपना जादू चला पाते हैं. उनके मायने ढूँढने की गलती कीजियेगा भी मत.

अज़हर’ एक निहायत ही डरपोक किस्म की नाकाबिल फिल्म है जो सिर्फ उन बातों को चुनती है, जिनके कहने-सुनने में किसी तरह का कोई अन्तर्विरोध पैदा न हो. एक बहुत ही हलकी फिल्म जो अपने ‘हीरो’ के साथ कहीं से भी कोई न्याय नहीं करती! फिल्म में बुकी से पैसे लेकर भी अच्छा खेल जाने पर अज़हर की सफाई सुनिए, “मैंने पैसे रख लिए ताकि तुम किसी और खिलाड़ी तक पहुँच न सको...तुम्हारे पैसे वापस भिजवा रहा हूँ’. अब अपनी कहानी में तो सब खुद ही हीरो होते हैं, इसमें नया क्या है? बस्स, इस कहानी में दम नहीं! [1/5]                

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