Friday, 24 November 2017

कड़वी हवा: एक जरूरी फिल्म, कड़वी दवा की तरह! [3.5/5]

किसानों की आत्महत्याएं अब अखबारों और समाचारों की सुर्खियाँ नहीं बटोर पातीं. खबर देने की गरज़ से किसी कोने-किनारे में जगह मिल भी जाती है, तो हम उसे पढ़ कर संवेदनाएं व्यक्त करने के नाम पर जीभ को उपरी तलुवे से तीन बार गिन कर चिपकाते हैं, छुड़ाते हैं और 'च्च, च्च, च्च' करने से ज़्यादे की ज़ेहमत भी नहीं उठाते. 'क्लाइमेट चेंज' की तो पूछिए ही मत! इस मुद्दे पर तो हमारा चिंतन, मनन और ज्ञान इतना सीमित है कि अप्रैल-मई में बेडरूम का एयर-कंडीशनर काम न करे, 'ग्लोबल वार्मिंग' के प्रभाव तभी याद आते हैं. इन दोनों ही लिहाज़ से नील माधव पंडा की 'कड़वी हवा' एक निहायत ही अच्छी और जरूरी फिल्म है. बंजर हो चले किसानों के रूंधे, सूखे गलों में घुटती चीखों, कराहों को सुन्न पड़ते कानों तक पहुंचाने में, 'कड़वी हवा' किसी कड़वी दवा की तरह ही पुरजोर असर करती है. 

बूढ़े बाबा (संजय मिश्रा) देख नहीं सकते, लेकिन हवा की खूब परख है उनको. कहते हैं, "आजकल हवा कुछ बीमार चल रही है". स्कूल में मास्टरजी पूछते हैं, "मौसम कितने होते हैं?"; बच्चे को दो ही पता हैं, सर्दी और गर्मी. बरसात तो वैसे भी कभी कभी ही होती है, कभी कभार सर्दी में, तो कभी गर्मी में. यहाँ खेतों में फसल कम उगती है, सरकारी कर्जों पर ब्याज़ अनचाही, मनमौजी बेल की तरह बढती ही रहती है. मोपेड पर बैंक का सरकारी एजेंट गन्नू (रनवीर शौरी) यमराज की तरह सबके हिसाब-किताब लेकर घूमता रहता है. बाबा के बेटे मुकुंद के सर का क़र्ज़ भी 25 हज़ार से बढ़कर 42 हज़ार तक पहुँच गया है. बाबा डरते हैं, कहीं रामसरन जैसे दूसरे किसानों की तरह ही उनका बेटा भी...!

सूखे, बंजर और रेतीले ज़मीनी समन्दर में लाठी टेकते-टेकते भटकते हुए बूढ़े बाबा के किरदार में संजय मिश्रा बहुत कम बोलते हैं, और सिर्फ जरूरत का ही बोलते हैं, पर उनके अन्दर की कराह, बदलते मौसम और कर्जे में डूबे परिवार की परवाह आपको हर वक़्त, हर फ्रेम में सुनाई देती है. बाप-बेटे में बातचीत नहीं होती, ऐसे में एक दिन बेटा बाबा को घर से बिना बताये बाहर जाने के लिए डांटता है, और बाप सिर्फ इतने से खुश कि इसी बहाने आज मुकुंद ने उनसे बात तो की. संजय मिश्रा इस भूमिका को कुछ इस हद तक परदे पर जीवंत रखते हैं कि आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, आखिरकार एक नेत्रहीन किरदार के रूप में इतना सजीव अभिनय आपने आखिरी बार किसका, कब और कहाँ देखा था? 'चौरंगा' के धृतिमान चटर्जी मेरे ज़ेहन में तुरंत आ जाते हैं. 

कुछ ऐसा ही कमाल रनवीर शौरी भी कर गुजरते हैं. हालाँकि उनके किरदार की बोलचाल पहले पहल आपको अटपटी सी लगती है, पर धीरे-धीरे जब आप पर उनके उड़िया होने का खुलासा ज़ाहिर होता है, आप उनके किरदार के साथ बेपरवाह जुड़ने लगते हैं. तिलोत्तमा शोम चौंकाती हैं. कुछेक दृश्यों में उनका अभिनय चेहरे के भावों का मोहताज़ भी नहीं रहता और अपना लोहा बड़ी मजबूती से मनवा जाता है. 

'कड़वी हवा' जिस ठहराव के साथ आपको खेतिहर किसानों की जिंदगी में उठते-बनते झंझावातों की तरफ धकेलती है, आप चाह कर भी उन ज़ज्बातों से अछूते नहीं रह पायेंगे. दृश्यों को सच्चाई के एकदम आसपास तक लाकर छोड़ जाने में नील माधव पंडा बखूबी सफल रहते हैं. गर्मी से बदहाल सरकारी बैंक के कर्मचारी बनियान में ही अपना काम निपटा रहे हैं. पैसों की वसूली के लिए यमराज बने घूमते गन्नू पर भी दूधवाले का दो महीने से पैसा उधार है. इसी संजीदगी के साथ 'कड़वी हवा' पहले तो आपको किरदारों से जोड़ती है, फिर उनकी कहानी का हिस्सा बनने का पूरा-पूरा मौका देती है, ताकि अंत तक आते-आते जब एक नाटकीय मोड़ के सहारे आपको फिल्म और कहानी के मुख्य खलनायक (क्लाइमेट चेंज) से रूबरू होना पड़े, तो न सिर्फ आप सिहर उठें, बल्कि थिएटर छोड़ते-छोड़ते इस बेहद जरूरी मुद्दे को कम आंकने की भूल से भी बचें. [3.5/5]