ज़िंदगी में जब दुखों का शोर बरदाश्त से
बाहर हो जाये, बेबसी बात-बात पर मुंह चिढ़ाये और अपने साथ हो रहे हर सितम-हर गलत के
खिलाफ़ आवाज़ उठाने को ज़बान लड़खड़ाये, बेहतर है कि अपने मोबाइल पर
अपना पसंदीदा म्यूजिक फुल वॉल्यूम पर लगाईये, कानों में हैडफ़ोन
अन्दर तक ठूंसिये, और मुस्कुराते दिखने की कोशिश कीजिये. हालाँकि
इससे बदलेगा कुछ नहीं, पर बदलाव की कुलबुलाहट लिए अन्दर
धधकती आग को थोड़ी और हवा जरूर मिलेगी. मुराद (रनवीर सिंह) ऐसा ही कर रहा है. उसके
अब्बू (विजय राज) उसके लिए छोटी अम्मी ले आये हैं, उसकी खुद
की अम्मी (अमृता प्रकाश) के रहते. मुराद के लिए निकाह के गाजे-बाजे का उबलता शोर कानों
में इयरफ़ोन डालते ही हिप-हॉप की ठंडी बयार बन जाता है. जोया अख्तर की ‘गली बॉय’ धारावी की संकरी, बजबजाती गलियों और दड़बों से भी तंग कमरों में घुटते
इंसानी चाहतों, अरमानों और सपनों का उदास चेहरा है. बेहतर
जिंदगी की आस में कुछ ने हथियार पहले ही डाल दिए हैं, कुछ बच-बचा
के निकलने की लगातार तरकीबें लड़ा रहे हैं, और कुछ सही वक़्त और
सही जगह के इंतज़ार में राख के भीतर, आग बनके धधक रहे हैं.
मोईन (विजय वर्मा) गाड़ी चुराने निकला
है, अपने दो साथियों के साथ. मुराद उनमें से एक है, कहानी का मुख्य पात्र होते हुए भी उसपे आपका ध्यान नहीं जाता. पीछे से
आगे आने में अभी उसको वक़्त है. मुराद के इस इंतज़ार में तेज-तर्रार सैफीना (आलिया
भट्ट) 9 साल से उसके साथ है. कुछ इस कदर ज़रूरी, मानो वो ना
हो तो जिंदगी बिना बचपन की हो के रह जाए. मुराद खुद भी नहीं जानता, कौन सा रास्ता
उसे धारावी की गलियों से निकाल कर उसे उसके अपने सपनों के आसमान तक ले जाएगा. कॉलेज
के नोटबुक के बीचोबीच लिखी कवितायें उसका गुबार भर हैं, तब तक जब तक रैपर एमसी शेर
(सिद्धांत चतुर्वेदी) के रूप में उसकी पहचान अपने आप से नहीं होती.
हिंदी फिल्मों ने हिप-हॉप और रैप
कल्चर को भुनाने और निचोड़ने की होड़ में, उसकी असल बनावट और उसके होने के पीछे के
जरूरी मकसद को पेश करने में ख़ासी बेईमानी बरती है. समाज के दबे-कुचले गरीब, असहाय और निचले तबके के गुस्से और अकुलाहट को तेवर भरे अंदाज़ और मज़बूत आवाज़
की शकल में ठीक-ठीक परोसने में ‘गली बॉय’ की ईमानदारी
काबिल-ए-तारीफ़ है. मुराद के लिखे गीतों में गाड़ी में पीछे बैठी मालकिन के आंसू न
पोछ पाने की बेबसी भी है, सामाजिक बन्धनों से आज़ाद होने की
तड़प भी और हिन्दुस्तान को असली हिप-हॉप से मिलाने का जोश भी. सच्चाई से मैच करने
वाले सपने देखने की हिदायत अब्बू का अपना सच है, मुराद तो
सपनों से मैच कराने के लिए अपनी सच्चाई तक को बदल देने का दम रखता है.
जोया की खिंचाई अक्सर इस बात पर होती
रही है कि उनकी कहानियों का संसार अमीरी की चमक का मोहताज़ रहता है, हालाँकि ‘लस्ट स्टोरीज’ के अपने हिस्से वाली कहानी (भूमि पेडणेकर
अभिनीत) में उन्होंने इस भ्रम को ख़ूब सलीके से तोड़ा है; फिर भी ‘गली बॉय’ सच्चे मायनों में उन्हें सिनेमा के जानकारों के साथ-साथ, आम दर्शकों के सामने
भी एक नए कलेवर में पेश करती है. गौरतलब है कि जोया मुंबई के सबसे बदहाल इलाके की
कहानी कहते वक़्त भी किरदारों के हाल-ओ-हालात, और उनकी जेहनी जद्दो-जेहद पर ज्यादा
पैनी नज़र रखती हैं, ना कि ‘अंडरडॉग’ को
‘स्लमडॉग’ बना कर बेचने की आसान कोशिश.
अभिनय में रनवीर लाजवाब हैं. ‘पद्मावत’
और ‘सिम्बा’ से अलग इस फिल्म में न सिर्फ उनकी चुनौती कमउम्र लगने की थी, बल्कि विपरीत हालातों के आगे सहम सहम कर चलने वाले नौजवान के किरदार में
जान फूंकने की भी. लोकल गाइड विदेशी सैलानियों को धारावी के लोगों की जिंदगियों का
नज़ारा दिखाने लाया है, मुराद बिना लाग-लपेट, बेफिक्री से वहीँ कोने में अधनंगी हालत में लेटा सब देख रहा है. मुराद की
आँखों में नमी हो या चमक, रनवीर उसे आप तक पहुँचाने में कोई
कमी-कोई कसर नहीं छोड़ते. आलिया के तो क्या ही कहने! बोलने की शैली से लेकर, शरारत
भरी भाव-भंगिमाओं तक; आलिया दिलकश हैं. इन दोनों के साथ, दो
और ख़ास अभिनेता जो बड़ी शिद्दत के साथ अपना दमखम दर्ज कराते हैं, वो हैं, मोईन के किरदार में विजय वर्मा और एमसी शेर
बने सिद्धांत चतुर्वेदी. विजय उन कलाकारों में से हैं, जिनकी
शुरुआत ‘मानसून शूटआउट’ जैसी फिल्म में तारीफें बटोरने से
भले ही हुई हो, हिंदी फिल्मों ने हमेशा उनकी प्रतिभा को कमतर
ही आंका है. आप इस फिल्म से पहले उन्हें पहचानते भले ही न रहें हों, इस फिल्म के बाद उन्हें भूलने की गलती नहीं करेंगे. सिद्धांत बेमिसाल
अदाकार हैं. कुछ इतने मंजे हुए, सधे हुए कि रनवीर भी कहीं
कहीं उनके आगे फीके नज़र आते हैं. बहुत मुमकिन है कि आप उन्हें असल में कोई जाना-माना
रैपर मान बैठें.
आखिर में; ‘गली
बॉय’ अपनी धीमी रफ़्तार के बावजूद,
लम्बे सफ़र और कहीं कहीं दोहराव की शिकायतों के बीच, एक बेहतरीन फिल्म है. एक ऐसी मुकम्मल
फिल्म जिसका जादू आप पर देर से भी चढ़ेगा, और रहेगा भी देर तक. ‘भोत हार्ड है’, ‘मज़बूत है, भाई लोग’, और ‘अपना
टाइम आएगा’ जैसे टपोरी संवादों के साथ-साथ, यकीनन सिनेमाघरों
से बाहर निकलते वक़्त आप मुराद बन कर रैप करने की असफल कोशिशों में अपने आप को
चहकते-चमकते पायेंगे. दर्शकों पर ऐसा असर, आज के दौर में न
आसान है, ना ही आम! जोया को बधाई! [4/5]